राजेन्द्र वर्मा की दो कविताएं

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पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

1. मंडी में शकुनी

जब से ट्रैक्टर आए
हल की मुठिया ही छूटी।

काम हुआ आसान मगर,
लागत दुगुनी-तिगुनी
ऊपर से कानून,
विहॅंसता मंडी में शकुनी

हुई किसानी व्यर्थ,
आस की गागर है फूटी?

धेले भर की बचत नहीं,
फिर खेती क्योंकर हो?
कैसे गाड़ी पार लगे,
जब करती चरमर हो

मेघ घने छाए लेकिन,
घर की छत है टूटी।

झूरी ‘हीरा-मोती’ को
कब तक नॉंदों-बॉंधे?
होरी ने मजदूरी को ही
लाद लिया कॉंधे

कोई तो समझाए,
किसने किस्मत है लूटी?

पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

2.

कौन कहता है किसान अपने यहॉं बदहाल है,
पोस्टरों में देखिए, कितना वो मालामाल है!

देश में कृषि-नीति की उपलब्धियॉं तो देखिए,
लोग मरने को विवश, सत्ता बजाती गाल है।

इस व्यवस्था में किसानी हाशिये पर ही रही,
कुछ करे, फिर भी कृषक रहता सदा कंगाल है।

हम अभी सूखे से उबरे थे कि आयी बाढ़ है,
ऐसा लगता है, प्रकृति ने बिछाया जाल है।

फायदा तो छोड़िए, लागत निकलती भी नहीं,
हम सभी छोटे किसानों का यही बस हाल है।

आढ़ती हो या कि व्यापारी, मजे में वो रहे,
अन्नदाता की मगर थाली से गायब दाल है।

अपने मुस्तकबिल की खातिर जान भी हम दे रहे,
पर सियासत कर रही पूॅंजी का इस्तकबाल है।

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