— योगेन्द्र यादव और विक्रम श्रीनिवास —
जिस विचार को ‘जीविका का अधिकार’ कहते हैं, क्या अब उसे साकार करने का वक्त आ चुका है? अगर हम देश में विकराल होते जा रहे बेरोजगारी के संकट और उसे निपटने के लिए सुझाये जा रहे भांति-भांति के उपायों को देखें तो यही कहा जाएगा कि हां, जीविका के अधिकार को अब मूर्त रूप देने का समय बिल्कुल आ चुका है। जरूरत एक व्यापक नीति की है, जिसके साथ कानूनी गारंटी जुड़ी हो ताकि जो कोई भी अपनी सामर्थ्य के हिसाब से रोजी-रोजगार कमाना चाहता है उसे जीविका का जरिया हासिल हो और अगर हासिल नहीं होता तो उसे इसकी क्षतिपूर्ति मिले।
जीविका के अधिकार की अर्जी में तीन सवालों के जवाब होने चाहिए। एक तो यही कि क्या हमें ऐसे अधिकार की जरूरत है? दूसरा ये कि क्या ऐसे उपाय को समुचित उपाय माना जा सकता है? और तीसरा सवाल कि क्या उपाय को अमल में लाया जा सकता है, क्या ऐसा करने के लिए हमारे पास पर्याप्त रकम है?
क्या हमें इसकी आवश्यकता है?
हाल में, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकॉनॉमी (सीएमआईई) ने अपने बेरोजगारी के आंकड़ों के जरिए आगाह किया कि अभी भारत की कामकाजी उम्र की 101 करोड़ की आबादी में से मात्र 40 फीसद लोग ही नौकरी की तलाश में हैं। शेष विश्व के लिए यह आंकड़ा 60 प्रतिशत का है। स्थिति हर बीतते दिन के साथ और भी ज्यादा गंभीर होती जा रही है। नौकरी की तलाश कर रहे कामकाजी उम्र (वर्किंग एज) के लोगों की तादाद (इसे श्रमबल की प्रतिभागिता दर कहते हैं) पिछले पांच सालों में 46 प्रतिशत से घटकर 40 प्रतिशत पर आ गयी है। इसका मतलब हुआ कि बीते पांच सालों में 6 करोड़ लोगों ने नौकरी खोजना ही छोड़ दिया है क्योंकि उन्हें इसकी कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही।
और, एक बात ये भी है कि जितने लोग अभी नौकरी की तलाश में हैं उनमें से हर किसी को नौकरी मिल जा रही हो, ऐसा भी नहीं है। सीएमआईई के नये आंकड़ों में बेरोजगारी दर 7.6 प्रतिशत की बतायी गयी है। मतलब बड़ा साफ है, नौकरी की जी-तोड़ तलाश कर रहे 3.3 करोड़ लोग इस देश में बेरोजगार हैं। अगर परिभाषा को कुछ और व्यापक कर दिया जाए तो बेरोजगार लोगों की तादाद लगभग 5 करोड़ के आसपास बैठेगी।
अब आप इसे जिस कोण से देखें, नजर यही आएगा कि इस देश में कामकाजी आयुवर्ग के कम से कम 10 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके पास नौकरी नहीं है लेकिन इन लोगों को अवसर मिलता तो जरूर ही वे नौकरी कर रहे होते। जो लोग अभी पढ़ाई कर रहे हैं लेकिन अगले चंद सालों में श्रम-बाजार में नौकरी खोज रहे होंगे तथा जो लोग अभी नौकरी में हैं लेकिन उनकी नौकरी औने-पौने किस्म की है, उन लोगों को भी जोड़ लिया जाए तो अभी इस देश में बेरोजगार लोगों की तादाद 14 करोड़ के आंकड़े पर पहुंची दिखायी देगी।
इस स्थिति की जरा तुलना करें उस वक्त से, जिसे इतिहास में बेरोजगारी के सबसे बुरे दौर की संज्ञा दी जाती है। अमेरिका में 1930 के दशक की महामंदी के समय लगभग 1.5 करोड़ लोग बेरोजगार हो गये थे जो कार्यबल का लगभग 25 प्रतिशत था। भारत में हालत धीमी गति से पैर पसार रही महामंदी की ही है और इस धीमी गति की महामंदी में (अमेरिका की तीस के दशक की महामंदी की तुलना में) कई गुना ज्यादा लोग बेरोजगार हैं।
जाहिर है कि अगर सूरत-ए-हाल इस कदर संगीन है तो फिर फौरी उपाय करने की जरूरत है। लेकिन, उपाय ऐसे ना हों मानो कहीं पेच कसा जा रहा हो, कहीं पच्चर लगाया जा रहा हो और इस तरह पुरानी मशीन और पुराने तरीके को ही कारगर मानकर आगे के सफर को कदम उठाये जा रहे हों। अर्थव्यवस्था के किसी क्षेत्र विशेष के खास कोने के उद्योगों (या उद्योगपतियों!) को बढ़ावा देने या फिर ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ अथवा ‘आत्मनिर्भरता’ जैसे भुलावे-छलावे में रहने और इस उम्मीद को पालने की जरूरत नहीं कि रोजगार का सृजन खुद-ब-खुद एक दिन हो ही जाएगा। जैसे 1930 के दशक में अमेरिका की सरकार ने ‘न्यू डील’ का रास्ता अपनाया था वैसे ही सरकार को बेरोजगारी के विकराल होते जा रहे संकट से देश को उबारने के लिए पुरजोर और बड़ी पहल करनी होगी। ऐसा ही सोचकर हम यहॉं प्रस्ताव पेश कर रहे हैं।
समाधान क्या है?
अगर बेरोजगारी का दूरगामी समाधान करना है तो उसके लिए हमें आर्थिकी के मॉडल यानी समष्टिगत आर्थिक नीतियों से लेकर औद्य़ोगिक नीति तथा लघु उद्यमों को मजबूत बनाने तक, तमाम बातों पर पुनर्विचार करना होगा। ऐसा करने पर भी नतीजे हाथ के हाथ नहीं बल्कि एक लंबी अवधि में मिलेंगे, लेकिन लंबे समय तक प्रतीक्षा करने की ऐसी सहूलियत हम नहीं पाल सकते। आज हम रोजगार के मोर्चे पर जिस संकट का सामना कर रहे हैं, जीविका का अधिकार उसके समाधान की दिशा में एक व्यापक पहलकदमी की तरह है।
सौभाग्य कहिए कि जीविका के अधिकार पर अमल करने की दिशा में कदम बढ़ाने की सोचना हो तो ऐसा नहीं है कि हमें शुरुआत एकदम ही सिफर से करना पड़े। हम यहां हाल के कुछ प्रस्तावों, खासकर प्रोफेसर ज्यां द्रेज, संतोष मेहरोत्रा और अमित बसोले के प्रस्तावों से बहुत कुछ सीख सकते हैं। इसकी सैद्धांतिक जमीन समाजवादी चिन्तक राकेश सिन्हा ने अपनी रचना ‘बेरोजगारी : समस्या और समाधान’ में दी है।
जीविका के अधिकार को बेरोजगारी दूर करने के तमाम उपायों को एक में समेटने वाली एक गठरी मान सकते हैं। पहला काम तो सरकार को ये करना होगा कि वह जहॉं संभव और युक्तिसंगत जान पड़ता हो वहॉं प्रत्यक्ष तौर पर रोजगार बढ़ाए। इस दिशा में सबसे आसान कदम होगा कि लगभग 25 लाख की तादाद में विभिन्न सरकारी महकमों में जो पद रिक्त हैं वहां बहाली की जाए।
इससे शिक्षित बेरोजगार युवाओं को तात्कालिक तौर पर कुछ राहत मिलेगी। इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य, शिक्षा, पुलिसिंग, शहर से संबंधित आधारभूत ढांचे जैसे सार्वजनिक सेवाओं के क्षेत्र में रोजगार के अतिरिक्त अवसरों के सृजन की फौरी जरूरत है क्योंकि इन क्षेत्रों में सेवाएं जैसे-तैसे मुहैया हो पा रही हैं जबकि सेवाओं की सख्त जरूरत बनी हुई है। पर्यावरणीय क्षरण को रोकने के मोर्चे पर भी रोजगार के अवसरों के सृजन की ऐसी ही सख्त जरूरत है।
दूसरा कदम होगा कि सरकार हस्तक्षेप करे और पारिश्रमिक के भुगतान के मोर्चे पर कामगारों का शोषण होना रोके। कामगार फिलहाल औने-पौने के भाव से मिल रहे पारिश्रमिक पर काम करने को बाध्य हैं क्योंकि नौकरियां कम हैं और इन नौकरियों के लिए होड़ करनेवालों की संख्या बहुत ज्यादा है।
हमारे संविधान में समान काम के लिए समान भुगतान की गारंटी दी गयी है और सुप्रीम कोर्ट ने इस सिद्धांत के लिए बारंबार हामी भरी है। सरकार को इस नियम पर खुद भी अमल करना चाहिए ताकि सरकारी महकमों में अनुबंध पर काम कर रहे करोड़ों कामगारों को शोषण से बचाया जा सके और दूसरों से भी इस नियम पर अमल करवाना चाहिए।
जीविका के अधिकार को साकार करने की दिशा में तीसरे हस्तक्षेप के तौर पर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) को उसके मूल रूप में लागू करना जरूरी है।
यह एक मॉंग आधारित योजना है जिसके तहत काम की अर्जी देनेवाले को मेहनत-मजदूरी के काम दिये जाते हैं और इस योजना के लिए बजट-आबंटन की कोई सीमा नहीं रखी गयी है। लेकिन जहॉं तक जमीनी सच्चाई का सवाल है, यह योजना मॉंग-आधारित ना होकर आपूर्ति-संचालित बनकर रह गयी है। केंद्र सरकार ने योजना के लिए पैसे देने से हाथ इस कदर खींच लिया है कि राज्यों के लिए लोगों की तरफ से हो रही रोजगार की मॉंग के अनुरूप मनरेगा को चलाये रखना बहुत मुश्किल हो रहा है। देश के ग्रामीण इलाकों में व्याप्त रोजगार के संकट (कोविड-काल के लॉकडाउन में रोजगार के ठिकानों से हुए पलायन के कारण यह और भी ज्यादा बढ़ चला है) के समाधान के लिए इस चलन को बदलना जरूरी है।
चौथे हस्तक्षेप के तौर पर एक नयी पहल करना जरूरी है और इस नयी पहल के रूप में शहरी क्षेत्र के लिए रोजगार गारंटी का कानून लाना जरूरी है।
मोटे तौर पर कहें तो शहरी क्षेत्र के लिए रोजगार गारंटी के कानून के तहत न्यूनतम मजदूरी पर काम करने को तैयार हर इच्छुक कामगार को साल में 100+ दिनों के लिए काम दिया जाए और काम देने की यह जिम्मेदारी शहरों के स्थानीय निकायों को निभानी होगी। लेकिन रोजगार की यह योजना मनरेगा से तनिक अलग तर्ज पर संचालित हो। शहरी क्षेत्र के रोजगार गारंटी कानून के तहत चलायी जानेवाली योजना में पूंजीगत संपदा के सृजन और प्रबंधन में उन लोगों का उपयोग तो हो ही जिन्हें पारिभाषिक तौर पर अकुशल श्रमिक कहा जाता है, साथ ही, इस योजना में उन लोगों को भी शामिल किया जाए जो कुशल श्रमिक की श्रेणी में आएंगे और ऐसी महिला श्रमिकों की जरूरतों का भी ध्यान रखा जाए जो अपनी रिहाइश की जगह के आसपास ही काम करना चाहती हैं।
शहरी इलाके में निजी क्षेत्र को भी एक ना एक रीति से शामिल करने के अवसर हैं, खासकर कौशल-प्रशिक्षण (एप्रेन्टिसशिप) के काम में। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की ही तरह शहरी क्षेत्र की रोजगार गारंटी योजना में भी यह तरीका अपना सकते हैं कि अगर कोई काम के लिए अर्जी डालता है और उसे काम नहीं दिया जा पा रहा तो क्षतिपूर्ति के तौर पर उसे न्यूनतम मजदूरी की आधी रकम दी जाए।
इस दिशा में शुरुआती और महत्त्वपूर्ण काम पहले से ही हो रखा है। ज्यां द्रेज तथा अमित बसोले सरीखे अर्थशास्त्रियों ने विस्तृत प्रस्ताव तैयार किया है। केरल, हिमाचल, झारखंड तथा महाराष्ट्र जैसे कई राज्यों में शहरी रोजगार गारंटी योजना से मिलते-जुलते कार्यक्रम राज्यस्तर पर अभी चलाये जा रहे हैं।
क्या ये तरकीब काम आ सकती है?
इस तरह के व्यापक हस्तक्षेप के फायदे बड़े प्रकट हैं। लोगों को रोजगार मुहैया कराने के अतिरिक्त भी ऐसे हस्तक्षेप के कई लाभ हैं। शहरी इलाके में बुनियादी ढांचा, खासकर छोटे शहरों में, बड़ी बदहाली का शिकार है। इसके अतिरिक्त शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्यावरण संरक्षण जैसे क्षेत्र में अकुशल श्रमिकों को प्रशिक्षित करके बहाल करने से इन क्षेत्रों में काम के बोझ से दबे पेशेवरों को कुछ राहत मिलेगी, दशकों से इन क्षेत्रों में सराकारी रकम के कम आबंटन करने का जो चलन निकला है, उसपर रोक लगेगी और निष्ठावान तथा प्रतिबद्ध कुशल कामगारों का पूरा दस्ता तैयार किया जा सकेगा। भारत में आज हर नियोक्ता शिकायत करता मिलता है कि जैसे कुशल कामगारों की जरूरत है, वैसे कुशल कामगार मिलते ही नहीं। कौशल-प्रशिक्षण के केंद्रों की मदद लेकर इस शिकायत को दूर किया जा सकता है, साथ ही उस खला को भी पाटा जा सकता है जहॉं हम देखते हैं कि बाजार में जैसे कौशल की जरूरत है उसके अनुकूल पढ़ाई हमारे युवजन को शिक्षा-संस्थान नहीं दे पा रहे। इसके अलावा, अगर पारिश्रमिक भुगतान के मामले में अबतक सबसे निचली सीढ़ी पर मौजूद लोगों को कुछ बेहतर भुगतान होता है तो इसके बढ़वारी क्रम में लाभकारी परिणाम होंगे और हमारी अर्थव्यवस्था को सुस्ती से उबरने में मदद मिलेगी।
सवाल बस एक ही है कि क्या हम ऐसे हस्तक्षेप का खर्चा उठा पाएंगे? ऊपर बताये गये शुरुआती तीन हस्तक्षेप तो मौजूदा सरकारी योजनाओं के आधार पर ही तैयार किये गये हैं, सो उनपर अमल करने में बस थोड़ी ही अतिरिक्त रकम की जरूरत पड़ेगी। चौथा उपाय नया है और उसपर अमल करने में बड़ी रकम खर्च करनी होगी।
अमित बसोले के नेतृत्व में अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं की एक टोली का आकलन है कि 2.8 लाख करोड़ रुपये यानी देश की जीडीपी का 1.7 प्रतिशत हिस्सा खर्च करके शहरी क्षेत्र में 3.3 करोड़ लोगों को रोजगार दिया जा सकता है। इस खर्चे में ऊपर बताये गये शुरुआती तीन हस्तक्षेपों पर अमल करने पर आनेवाली लागत को भी जोड़ दें तो कहा जा सकता है कि देश की जीडीपी का कुल 3 प्रतिशत खर्च करके हम बेरोजगारी दूर करने की दिशा में व्यापक पहल कर सकते हैं। यह खर्चा बेशक कुछ ज्यादा तो है लेकिन इसे अनिवार्य निवेश के तौर पर देखा जाना चाहिए। यह निवेश जरूरी है बशर्ते हम देश के ज्यादातर लोगों को ‘हम, भारत के लोग` की परिभाषा के दायरे में शामिल करना चाहते हैं।
इसकी जरा तुलना करें उन खर्चों से, जो हाल के सालों में हम वहन करने में कामयाब हुए हैं। बैंकों ने पिछले साल 2 लाख करोड़ रुपये का खर्च सिर्फ कर्जों की माफी के तौर पर उठाया। सरकार की योजना उद्योगों को सीधे तौर पर 1.9 लाख करोड़ रुपये की सबसिडी देने की है। कॉरपोरेट टैक्स की दर 30 फीसदी से घटाकर 22 फीसदी करने पर 1.5 लाख करोड़ रुपये खर्च हुए। अगर आप अतिरिक्त राजस्व की चिंता कर रहे हैं, तो जरा इस आंकड़े पर गौर करें : भारत में धन्नासेठों ने अकेले महामारी के दौरान 20 लाख करोड़ रुपये कमाए। तो फिर यों कहें कि ज्यादा हाथ-पैर मारने की जरूरत नहीं है- खजाने में रकम मौजूद है और रकम जुटायी जा सकती है बशर्ते सरकार बेरोजगारी के संकट को दूर करना अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता समझे।
क्या सरकार ऐसा करेगी? अगर पिछले रिकार्ड को देखें तो इसका उत्तर है- ना, सरकार नहीं करने जा रही। बड़े पैमाने के उपाय करने की बात तो छोड़ दीजिए, नरेन्द्र मोदी सरकार तो यह तक स्वीकार करने को तैयार नहीं कि बेरोजगारी की ऐसी विकट समस्या मौजूद भी है। इस सरकार ने बार-बार जताया है कि लगातार और पूरे मनोयोग से की जानेवाली राजनीतिक लामबंदी से ही उसे ऐसी किसी बात को सुनने के लिए बाध्य किया जा सकता है। ऐसी लामबंदी आज के वक्त की जरूरत है। हमें ऐसा अभियान चलाने की जरूरत है जो सत्ताधारी वर्ग को प्रचलित आर्थिक रूढ़ियों पर पुनर्विचार के लिए बाध्य कर सके। भारत में जीविका के अधिकार के लिए जन-आन्दोलन चलाने की जरूरत है।
(द प्रिंट से साभार)