स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : तीसरी किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

अंग्रेजों का आगमन हमारे यहाँ होता है 17वीं शताब्दी की शुरुआत से। जो लोग कहते हैं कि वे आधुनिक कारखानों द्वारा निर्मित सस्ता माल लेकर आए और उस सस्ते माल की वजह से हमारा सारा औद्योगिक व्यवसाय उन्होंने ध्वस्त कर दिया वाली बात सही नहीं है। 17वीं शताब्दी के प्रारंभ में जब अंग्रेज वर्तमान इंडोनेशिया पहुँचे थे तो उन्होंने गौर किया कि वहाँ अधिकांश लोग हिंदुस्तान-निर्मित कपड़ा पहनते थे। उस कपड़े को उन दिनों केलीको कहा जाता था। इस कपड़े की बुनावट देखकर अंग्रेज बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने देखा कि हिंदुस्तानी कपड़ा इंडोनेशिया के अलावा मलेशिया और दक्षिण-पूर्वी एशिया में भी बिकता है। उन्होंने विचार-विमर्श किया कि हिंदुस्तान के साथ व्यापार कैसे किया जाए क्योंकि इनके पास ऐसी कोई चीज नहीं थी जिसकी हिंदुस्तान को आवश्यकता हो।

हिंदुस्तान अपनी आवश्यकताओं के बारे में 16वीं, 17वीं, और 18वीं शताब्दी तक पूर्णतः आत्मनिर्भर था। यूरोपियन लोगों के पास कोई भी ऐसी चीज नहीं थी जो वे हिंदुस्तान को बेच सकें और जिसके बदले हिंदुस्तानी माल ले सकें। सोना और चाँदी के अलावा हिंदुस्तानी लोग इनकी कोई चीज लेने के लिए तैयार नहीं थे। अतः उन्होंने यही फैसला किया कि सोने से हिंदुस्तान का कपड़ा खरीदकर उसे इंडोनेशिया, मलेशिया या दूसरे देशों में बेचा जाए। उससे जो धन मिले उससे मसाले खरीदकर उन्हें यूरोप में बेचा जाए।

एल.सी.ए. नौल्स ने हिंदुस्तान का आर्थिक विकास नाम के अपने ग्रंथ में कहा है : उन दिनों पूर्व के देशों के साथ यूरोप का व्यापार बढ़ाने में सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि यूरोप के पास कोई चीज नहीं थी जिसको वे पौर्वात्य देशों से विनिमय कर सकते, अदल-बदल कर सकते। इसलिए उन्हें सोना, चाँदी जैसी कीमती धातुओं को बेचना पड़ता था। नौल्स के उपरोक्त विचार न केवल 16वीं और 17वीं शताब्दी में सही थे, बल्कि यह कथन रोमन साम्राज्य के दिनों में भी ज्यों का त्यों लागू होता था। उन दिनों रोमन व्यापारी हिंदुस्तान और एशिया के दूसरे देशों के साथ अपना व्यापार चाँदी और सोने के जरिये ही किया करते थे।

जी. एम. ट्रिवेल्यन नाम के लेखक ने  ‘अंग्रेजों का सामाजिक इतिहास नामक अपने ग्रंथ में कहा है : जहाँ तक 17वीं शताब्दी के मध्य का सवाल है, उन दिनों लंदन में विश्व के कोने-कोने से माल लदे जहाज आया करते थे। ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों व्यापार की एकाधिकारशाही थी। यह कंपनी न केवल चीन और हिंदुस्तान से साल्ट पीटर, मसाले और रेशम लाया करती थी। इन कपड़ों का प्रयोग उन दिनों इतना सामान्य हो चला था कि आयातित माल साधारण जनता के उपभोग का एक हिस्सा बन गया था।

मानूची नाम के एक वेनिस निवासी (जो औरंगजेब के दरबार में वैद्य के रूप में चालीस वर्ष रह चुका था) ने बंगाल के बारे में लिखा हैः यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि बंगाल न केवल मिस्र की बराबरी का प्रदेश है, बल्कि रेशम, सूती कपड़ा, चीनी और नील जैसे पदार्थों के उत्पादन में तो उससे भी बढ़कर है। यहां सारी चीजों की विपुलता है। क्या फल, क्या दाल, क्या अनाज, क्या महीन कपड़ा, क्या सोने और चांदी के जरी वाले कपड़े और क्या किनखाब, इन सबकी यहाँ बहुतायत है।

17वीं शताब्दी तक हिंदुस्तान की आर्थिक स्थिति तुलनात्मक दृष्टि से उन्नत थी। हिंदुस्तान में उत्पादन के तौर-तरीकों और औद्योगिक तथा व्यापारिक संगठनों की कार्यक्षमता तत्कालीन अन्य देशों के संगठनों की तुलना में अच्छी ही मानी जो सकती थी – ऐसा उल्लेख   व्हेरा एंस्टेन नाम की लेखिका ने  ‘द इकनामिक डेवलपमेंट आफ इंडिया नामक अपनी किताब में किया है। सन् 1840 में यानी इसके दो सौ से अधिक साल बाद एक संसदीय जांच के सामने बोलते हुए मांटगोमरी मार्टिन ने कहा थाः  ‘मैं इस राय से सहमत नहीं हूँ कि हिंदुस्तान एक कृषिप्रधान देश है। हिंदुस्तान जितना कृषिप्रधान है, उतना ही औद्योगिक भी है। जबरदस्ती उसको एक कृषिप्रधान देश मानना हिंदुस्तान के साथ बड़ा अन्याय है।

18वीं शताब्दी के मध्य में बंगाल की राजधानी मुर्शिदाबाद की जो संपन्न स्थिति थी उसके बारे में इंडस्ट्रियल कमीशन ने अपनी रपट में लिखा है : यह शहर बहुत विस्तृत है, बहुत ज्यादा आबादी वाला और समृद्ध है। इसकी तुलना लंदन से की जा सकती है। फर्क इतना ही है कि मुर्शिदाबाद में लंदन से भी अधिक धनी और संपन्न लोग हैं।

जैसा मैंने पीछे बताया मार्क्स ने अपनेकम्युनिस्ट मेनीफेस्टो में कहा है कि औद्योगिक देशों का सस्ता माल उनकी बड़ी तोपें हैं जिनकी ममद से वे (औद्योगिक) चीनी दीवारों को तोड़ सकते हैं। लेकिन सस्ते माल या औद्योगिक क्रांति या यांत्रिक उत्पादन के बल पर इंग्लैण्ड ने हिंदुस्तान की व्यापार की दीवारों को नहीं तोड़ा था। बंगाल के नवाब ने अंग्रेज गवर्नर को 1762 के मई के महीने में एक स्मरण-पत्र दिया था। इस स्मरण-पत्र से स्पष्ट होता है कि अंग्रेजों ने हिंदुस्तान के ऊपर अपना व्यापारिक वर्चस्व औद्योगिक क्रांति की बड़ी तोप से नहीं बल्कि बलप्रयोग और जबरदस्ती स्थापित किया था।

हिंदुस्तानी कपड़ा इंग्लैण्ड और यूरोप में न केवल अत्यंत लोकप्रिय हो चुका था बल्कि इसे पहनना अंग्रेजों के लिए एक फैशन सा हो चुका था। ईस्वी सन् 1690 में इंग्लैण्ड के ऊनी कपड़ा बुनकरों द्वारा शोर मचाए जाने पर भारत में आनेवाले सूती कपड़े पर वहाँ 20 प्रतिशत का विशेष सीमाशुल्क लागू कर दिया। फिर सन् 1700 में उन्होंने एक कानून बनाकर अपने यहाँ आयात पर प्रतिबंध लगा दिया, केवल उस कपड़े को छोड़कर जिस पर इंग्लैण्ड में छपाई का काम होता था। कपड़ा छपाई उद्योग वहाँ उस समय उत्कर्ष पर था और उसमें कई लोगों को रोजगार मिला हुआ था। इसके बावजूद वहाँ आंदोलन चलता रहा। अंततः 1720 के कानून के तहत वहाँ कपड़े के आयात पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया।

इतिहास आज अपने को दोहरा रहा है। भारत और अन्य एशियाई देशों से आयात होनेवाले कपड़े आदि पर आज यूरोप–अमरीका में पुनः रोक लगाई जा रही है।

कपड़ा उद्योग पर एक विहंगम दृष्टिपात यहाँ अनुचित नहीं होगा। 17वीं और 18वीं शताब्दी के प्रारंभ तक हमारा कपड़ा इंग्लैण्ड और यूरोप के बाजारों में धड़ल्ले से बिकता था। आरमूगम नाम के एक समाजवादी लेखक हैं। इन्होंने डॉ. लोहिया की विचारधारा पर एक किताब लिखी है जिसमें अंग्रेजों के बारे में भी उन्होंने जानकारी एकत्र की है। वह कहते हैं कि 17वीं शताब्दी के अंत और 18वीं शताब्दी के आरंभ में हिंदुस्तान से जो कपड़ा इंग्लैण्ड जाता था उसका मूल्य 3 लाख 40 हजार पौण्ड था। आज के संदर्भ में यह कोई बड़ी रकम नहीं है। लेकिन उन दिनों पौण्ड का असली मूल्य बहुत अधिक था इसलिए उन दिनों के हिसाब से यह  बहुत बड़ी रकम थी। उस समय इंग्लैण्ड में जो सूती कपड़ा बनता था उसको खरीदने वाला वहाँ कोई नहीं था और क्योंकि हिंदुस्तान का बढ़िया माल आसानी से उपलब्ध था इसलिए इंग्लैण्ड का मोटा कपड़ा कौन खरीदता? अतः अमरीका के नये बसे इलाकों में अंग्रेज अपना कपड़ा बेचते थे। इस व्यापार का मूल्य था 20 हजार पौण्ड। 1722-24 तक भारतीय कपड़े का निर्यात और बढ़ गया। उस समय 4 लाख 84 हजार पौण्ड का कपड़ा हिंदुस्तान से निर्यात होता था जबकि अमरीका आदि देशों में इंग्लैण्ड जो अपना कपड़ा बेच पाता था उसका मूल्य बैठता था सिर्फ 18 हजार पौण्ड।

1722-54 में लगभग 5 लाख पौण्ड का हिंदुस्तानी कपड़ा इंग्लैण्ड जाता था जबकि इंग्लैण्ड का अपना कपड़ा बिकता था केवल 83 हजार पौण्ड का। आगे चलकर 1772-74 तक भारत से आयातित कपड़े का मूल्य 7 लाख पौण्ड तक पहुँच गया था। अब धीरे-धीरे इंग्लैण्ड का कपड़ा भी अमरीका और यूरोप के बाजारों में अच्छा बिकने लगा था क्योंकि 1772-74 में इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात हुआ। यह संक्रमण काल था। भारतीय कपड़े का निर्यात हो रहा था जिसका मूल्य 7 लाख 10 हजार पौण्ड था। इंग्लैण्ड-निर्मित कपड़ा भी ईस्ट इंडिया कंपनी बेचने लगी थी जिसका मूल्य था 2 लाख 21 हजार पौण्ड। इससे स्पष्ट होता है कि भारतीय कपड़ा व्यापार के साथ अब इंग्लैण्ड का अपना व्यापार भी बढ़ने लगा था।

इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रांति का गति तीव्र होने के बाद और ईस्ट इंडिया कंपनी का व्यापारिक एकाधिकार समाप्त होने के बाद जब खुले व्यापार का सिद्धांत प्रस्थापित हो गया तो हिंदुस्तान के कपड़ा उद्योग का हालत बिगड़ने लगी। 1815 में इंग्लैण्ड से भारत में 26300 पौण्ड का कपड़ा आयात हुआ, जो बढ़ते-बढ़ते 1832 में 4 लाख पौंड हो गया। 1815 में इंग्लैण्ड को भारत से 13 लाख पौण्ड का कपड़ा निर्यात होता था। मगर 1832 में यह निर्यात घटकर मात्र 1 लाख पौण्ड रह गया। 1815 में इंग्लैण्ड निर्मित कपड़े का आधा प्रतिशत भी भारत में नहीं बिक पाता था। लेकिन हिंदुस्तानी कपड़ा उद्योग के तेजी से हो रहे विनाश के कारण इंग्लैण्ड से 1850 में जो कुल कपड़ा निर्यात हुआ उसका 21 प्रतिशत अकेले भारत में बिका। दस साल बाद यह अनुपात 10 प्रतिशत और बढ़कर 31 प्रतिशत हो गया।

(आरमूगम : सोशलिस्ट थाट इन इंडिया : डॉ. राममनोहर लोहियाज कंट्रीब्यूशन) 

हिंदुस्तान पर स्थापित अंग्रेजी प्रभुत्व के कारण इंग्लैण्ड को दो लाभ हुए। हिंदुस्तान की लूट से जो पैसा और साधन उन्हें मिले उनको पूँजी में परिवर्तित करके इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रांति में तीव्रता लायी गयी। इसी राजनीतिक सत्ता का पक्षपातपूर्ण प्रयोग करके भारतीय बाजार को अधिग्रहीत करना उनके लिए आसान हो गया। इस तरह अपनी दासता के कारण भारत दोतरफा मारा गया।

(जारी)

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