जनता की चिट्ठी ही तुड़वा सकती है प्रधानमंत्री की चुप्पी!

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— श्रवण गर्ग —

देश में चल रही धार्मिक हिंसा और नफरत की राजनीति के खिलाफ कुछ सेवा-निवृत्त नौकरशाहों और अन्य जानी-मानी हस्तियों के द्वारा प्रधानमंत्री के नाम खुली चिट्ठी लिखकर उनसे अपील की गयी है कि वे अपनी चुप्पी तोड़कर तुरंत हस्तक्षेप करें पर मोदी इन पत्र-लेखकों को उपकृत नहीं कर रहे हैं। देश के कामकाज में किसी समय प्रतिष्ठित पदों पर कार्य करते हुए उल्लेखनीय भूमिका निभानेवाले इन महत्त्वपूर्ण लोगों की चिंताओं का भी अगर प्रधानमंत्री संज्ञान नहीं लेना चाहते हैं तो समझ लिया जाना चाहिए कि उसके पीछे कोई बड़ा कारण या असमर्थता है और नागरिकों को उससे परिचित होने की तात्कालिक रूप से कोई आवश्यकता नहीं है।

कोई एक सौ आठ सेवा-निवृत्त नौकरशाहों (ब्यूरोक्रेट्स) ने जब भाजपा-शासित राज्यों में पनप रही ‘नफरत की राजनीति’ को खत्म करने के लिए खुली चिट्ठी के जरिए पीएम से अपनी गहरी चुप्पी को तोड़ने का निवेदन किया होगा तब उन्हें इस बात की आशंका नहीं रही होगी कि मोदी उनकी बात का कोई संज्ञान नहीं लेंगे। चिट्ठी पर हस्ताक्षर करनेवालों में कई या कुछ नौकरशाहों ने तो अपनी सेवा-निवृत्ति के पहले वर्तमान सरकार के साथ भी काम किया है।

उल्लेख किया जा सकता है कि 108 नौकरशाहों द्वारा लिखी गयी उक्त चिट्ठी पर पीएम ने तो अपनी खामोशी नहीं तोड़ी पर सरकार के समर्थन में उसका जवाब आठ पूर्व न्यायाधीशों, 97 पूर्व नौकरशाहों और सशस्त्र बलों के 92 पूर्व अधिकारियों की ओर से दे दिया गया। कुल 197 लोगों के इस समूह ने आरोप लगा दिया कि 108 लोगों की चिट्ठी राजनीति से प्रेरित और सरकार के खिलाफ चलाए जानेवाले अभियान का हिस्सा थी।

पिछले साल के आखिर में उत्तराखंड की धार्मिक नगरी हरिद्वार में आयोजित हुई विवादास्पद ‘धर्म संसद’ में कतिपय ‘साधु-संतों’ की ओर से मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं द्वारा हथियार उठाने की जरूरत के उत्तेजक आह्वान के तत्काल बाद भी इसी तरह से राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश को चिट्ठियाँ लिखी गयी थीं पर कोई नतीजा नहीं निकला। सुप्रीम कोर्ट के 76 वकीलों ने एनवी रमना को पत्र लिखकर हरिद्वार में दिए गए नफरती भाषणों का संज्ञान लेने का अनुरोध किया था। पत्र में कहा गया था कि पुलिस कार्रवाई न होने पर त्वरित न्यायिक हस्तक्षेप जरूरी हो जाता है।

इसी दौरान सशस्त्र बलों के पाँच पूर्व प्रमुखों और सौ से अधिक अन्य प्रमुख लोगों ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर माँग की थी कि सरकार, संसद और सुप्रीम कोर्ट तत्काल प्रभाव से कार्रवाई करते हुए देश की एकता और अखंडता की रक्षा करें। कहना होगा कि इन तमाम चिट्ठियों और चिंताओं के कोई उल्लेखनीय परिणाम नहीं निकले। हरिद्वार के बाद भी धर्म संसदों या धर्म परिषदों के आयोजन होते रहे और अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरती हिंसा वाले उदबोधन भी जारी रहे।

सेवा-निवृत्त नौकरशाहों, राजनयिकों, विधिवेत्ताओं और सशस्त्र सेनाओं के पूर्व प्रमुखों की चिंताओं के विपरीत जो लोग सत्ता के नजदीक हैं उनका मानना है कि नफरत की राजनीति के आरोप अगर वास्तव में सही हैं तो प्रधानमंत्री को चिट्ठियाँ नागरिकों के द्वारा लिखी जानी चाहिए और वे ऐसा नहीं कर रहे हैं। सत्ता-समर्थकों का तर्क है कि जो कुछ चल रहा है उसके प्रति बहुसंख्य नागरिकों में अगर प्रत्यक्ष तौर पर कोई नाराजगी नहीं है तो फिर उन मुट्ठी भर लोगों के विरोध की परवाह क्यों की जानी चाहिए जिन्हें न तो कोई चुनाव लड़ना है और न ही कभी जनता के बीच जाना है? दॉंव पर तो उन लोगों का भविष्य लगा हुआ है जिन्हें हर पाँच साल में वोट माँगने जनता के पास जाना पड़ता है। जो लोग नफरत की राजनीति को मुद्दा बनाकर विरोध कर रहे हैं जनता के बीच उनकी कोई पहचान नहीं है। जनता जिन चेहरों को पहचानती है वे बिलकुल अलग हैं।

दूसरा यह भी कि ‘नफरत की राजनीति’ अगर सत्ता को मजबूत करने में मदद करती हो तो उन राजनेताओं को उसका इस्तेमाल करने से क्यों परहेज करना चाहिए जिनका कि साध्य की प्राप्ति के लिए साधनों की शुद्धता के सिद्धांत में कौड़ी भर यकीन नहीं है?

इस सच्चाई की तह तक जाना भी जरूरी है कि हरेक सत्ता परिवर्तन के साथ हुकूमतें नौकरशाहों और संवैधानिक संस्थानों के शीर्ष पदों पर पहले से तैनात योग्य और ईमानदार लोगों को सिर्फ इसलिए बदल देती हैं कि उनकी धार्मिक-वैचारिक निष्ठाओं को वे अपने एजेंडे के क्रियान्वयन के लिए संदेहास्पद मानती हैं। इसीलिए ऐसा होता है कि नफरत की राजनीति के खिलाफ चिट्ठी लिखनेवाले नौकरशाह, ‘जो कुछ चल रहा है उसमें गलत कुछ भी नहीं है’ कहनेवाले नौकरशाहों से अलग हो जाते हैं। इसे यूँ भी देख सकते हैं कि नफरत की राजनीति ने नागरिकों को ऊपर से नीचे तक बाँट दिया है।

नफरत की राजनीति को सफल करने की जरूरी शर्त ही यही है कि सत्ता के एकाधिकारवाद की रक्षा में नागरिक ही एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हो जाएँ या कर दिए जाएँ और सरकार चुप्पी साधे रहे, वह किसी के भी पक्ष में खड़ी नजर नहीं आए। यानी जो नौकरशाह नफरत की राजनीति को लेकर चिंता जता रहे हैं उन्हें भी वह चुनौती नहीं दे और जो उसके बचाव में वक्तव्य दे रहे हैं उनकी भी पीठ नहीं थपथपाए।

प्रधानमंत्री ने अपने इर्द-गिर्द जिस तिलिस्म को खड़ा कर लिया है उसकी ताकत ही यही है कि वे बड़ी से बड़ी घटना पर भी अपनी खामोशी को टूटने या भंग नहीं होने देते। खामोशी के टूटते ही तिलिस्म भी भरभराकर गिर पड़ेगा।

मुमकिन है हरिद्वार की तरह की और भी कई धर्म संसदें देश में आयोजित हों जिनमें नफरत की राजनीति को किसी निर्णायक बिंदु पर पहुँचाने के प्रयास किए जाएँ और नौकरशाहों के समूह भी इसी तरह विरोध में चिट्ठियाँ भी लिखते रहें। होगा यही कि हरेक बार प्रधानमंत्री या सत्ता की ओर से वे लोग ही सामने आकर जवाब देंगे जिनका कि सवालों या शिकायतों से कोई संबंध नहीं होगा। प्रधानमंत्री की खामोशी उस दिन निश्चित ही टूट जाएगी जिस दिन नफरत की राजनीति को लेकर नागरिक भी उन्हें चिट्ठियाँ लिखने की हिम्मत जुटा लेंगे। अतः प्रधानमंत्री की खामोशी तुड़वाने के लिए नौकरशाहों को पहले जनता के पास जाकर उसकी चुप्पी को तुड़वाना पड़ेगा।

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