— गोपाल राठी —
मैंने एक मुस्लिम मित्र को ईद मुबारकबाद का संदेश भेजा तो उसने मुझे परशुरामजी की जयंती का बधाई संदेश भेजा। मैंने उसे शुक्रिया तो कह दिया लेकिन सन्देश पाकर मैं थोड़ा असहज हो गया क्योंकि भगवान परशुराम जी अब समग्र हिंदुओं के नहीं ब्राह्मण समाज के प्रेरक हैं। वे ही धूमधाम से उनकी जयंती मनाते हैं। शोभायात्रा निकालते हैं। बाकी लोग सौजन्यवश शोभायात्रा पर फूल वर्षा करते है, शोभायात्रा का स्वागत करते है। ब्राह्मणों के अलावा अन्य कोई समाज भगवान परशुराम जी की जयंती नहीं मनाता। जबकि परशुराम जी को राम, कृष्ण की तरह विष्णु का एक अवतार माना गया है। आज से पच्चीस-तीस साल पहले तक वे समग्र हिन्दू समाज के थे लेकिन अब वे सिर्फ ब्राह्मण समाज के हिस्से में हैं।
हिन्दू समाज भगवान महेश से जुड़े पर्व महाशिवरात्रि श्रावण सोमवार को भले ही पूरी श्रद्धा से मनाता है लेकिन महेश जयंती (महेश नवमी) सिर्फ माहेश्वरी समाज ही मनाता है। माहेश्वरी समाज भगवान महेश से अपना उदगम मानता है इसलिए वे उनके इष्ट हैं। भगवान राम की जयंती पर रघुवंशी समाज में विशेष उत्साह दिखाई देता है तो कृष्ण जन्मोत्सव पर यादवों में। इसी तरह राधा रानी की जयंती मनाने का जिम्मा गुर्जर समाज ने अपने ऊपर ले लिया है।
भगवान् , अवतार एवं महापुरुष किसी जाति, क्षेत्र और सम्प्रदाय के नहीं होते, उनका इस भूतल पर अवतरण ही मानव मात्र के कल्याण के लिए हुआ है। वे अपने कर्म, लीला और भूमिका के कारण जाति, कुल, गोत्र से ऊपर समग्र हिन्दू समाज की धरोहर हैं।
ऐसा लगता है समाज को जोड़ने और जोड़े रखने के लिए कोई एजेंडा न होने के कारण समाज को संगठित करने के उद्देश्य से भगवानों, अवतारों और महापुरुषों का टूल्स की तरह इस्तेमाल किया जा रहा। भगवान की आड़ में अपनी जातीय संगठन-शक्ति का जोरदार प्रदर्शन किया जा रहा है। जातीय संगठनों के अगुआ लोग यूपी जैसे राज्य में खुलेआम राजनीतिक मोलभाव करते नजर आ रहे थे। उनके लिए जातीय गोलबंदी मोलभाव का सबसे बड़ा औजार है l जातीय नेताओं की कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं होती। वे पिछले चुनाव में किसी के साथ थे तो इस चुनाव में उसके विरोधी पक्ष के साथ थे। अब चुनाव में मुद्दों की अहमियत खत्म हो गयी है l जातीय समीकरण को साधनेवाला चुनाव जीत जाता है l किसानों, मजदूरों, दलितों, आदिवासियों, युवाओं, महिलाओं, अल्पसंख्यकों के अधिकार के लिए बारह महीने संघर्ष करनेवाला बुरी तरह हार जाता है।
जातीय और धार्मिक चेतना के चलते वर्ग चेतना लगभग खत्म होती जा रही है l इसलिए किसान और मजदूर उस पार्टी को वोट देकर आते हैं जो उनका सबसे ज्यादा अहित कर रही है। वे वोट देते समय हिन्दू, मुस्लिम या सिख बन जाते हैं या इस या उस जाति के बन जाते हैं। यूपी में तो जाति पूछ कर ही पत्रकार यह अंदाजा लगा पा रहे थे कि इनका वोट कहाँ जाएगा।
मजेदार बात यह है कि पंद्रह-बीस साल पहले हमारे होशंगाबाद जिले की एक प्रमुख कृषक जाति के संगठन ने भाजपा और कांग्रेस के प्रदेश नेतृत्व को एक-एक ज्ञापन सौंप कर खुलेआम मांग की थी कि जो भी पार्टी जिले में हमारे समाज के व्यक्ति को फलां सीट से टिकट देगी हमारा पूरा समाज उस पार्टी को जिले की सभी सीट पर साथ देगा। जबकि इस प्रमुख कृषक जाति के बहुत से लोग बरसों से भाजपा व कांग्रेस के बड़े नेता बने हुए हैं। देखने में आ रहा है कि धीरे-धीरे राजनीतिक प्रतिबद्धता और विचारधारा गौण होती जा रही है।
भगवान, अवतार और महापुरुषों पर जाति-समाज का ठप्पा लगाने का चलन अभी हाल ही के कुछ वर्षों से शुरू हुआ है। इसे रुकना चाहिए। जातीय गौरव से प्रेरित इस जातीय चेतना के चलते एक दिन ऐसा आएगा जब हिंदुओं के तैंतीस करोड़ देवी-देवता किसी न किसी जाति या उपजाति में बॅंट जाएंगे l
जातीय और धार्मिक चेतना के चलते वर्ग चेतना लगभग खत्म होती जा रही है l इसलिए किसान और मजदूर उस पार्टी को वोट देकर आते हैं जो उनका सबसे ज्यादा अहित कर रही है।