स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : छठी किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

क्षिण में पांडिचेरी फ्रांसीसियों का व्यापारिक केंद्र बन गया था। उसके उत्तर में मद्रास अंग्रेजों का। जब यूरोप में फ्रांस और ब्रिटेन के बीच लड़ाई शुरू हो गयी तो उसका असर भारत में भी इनके संबंधों पर हुआ। फ्रांसीसियों ने मद्रास पर कब्जा कर लिया। अंग्रेजों की दोस्ती अर्काट के नवाब से थी। नवाब ने फ्रांसीसियों से कहा कि आप अपनी सेना वापस हटा लीजिए। फ्रांसीसियों ने सुना नहीं। इस पर एक बड़ी सेना अर्काट के नवाब ने फ्रांसीसियों के खिलाफ भेज दी। अब मैं जो उदाहरण दे रहा हूँ उससे अर्काट की भारतीय सेना की क्षमता का पता चलता है।

पश्चिमी आक्रमणकारियों के मन में यह भावना थी कि हिंदुस्तान के स्थानीय राजा बड़े शक्तिशाली हैं। वे सोचते थे कि इनका क्षेत्र विशाल है, जनसंख्या भी ज्यादा और सैन्यबल भी अधिक है। उनकी ऐसी धारणा मुगल साम्राज्य के प्रति ही नहीं, दक्षिण के सूबेदार, अर्काट के सूबेदार और मराठाओं के प्रति भी थी। हालांकि नादिरशाह के हमले से दिल्ली का खोखलापन पहले ही स्पष्ट हो चुका था, फिर भी विदेशी लोगों को भारतीयों की दुर्बलता का अहसास नहीं था। लेकिन इस युद्ध में नवाब की सेना की जो दुर्गति हुई उससे उनकी भ्रांति एक क्षण में दूर हो गयी। फ्रांसीसियों की केवल एक बटालियन ने अर्काट के नवाब की पूरी सेना का सफाया कर दिया। एक बटालियन में चार कंपनियां, और एक कंपनी में चार प्लाटून होते हैं। यानी लगभग हजार-बारह सौ कुल सिपाही। एक ओर फ्रांसीसियों के हजार-बारह सौ सिपाही और दूसरी तरफ अनवरूद्दीन की पूरी सेना! क्या यह आश्चर्य की बात नहीं थी कि इस लड़ाई में नवाब की एक बड़ी सेना पूरी तरह साफ हो गयी।

इतिहासकार कहते हैं कि इस लड़ाई से पहली बार यह बात सिद्ध हुई कि छोटी लेकिन अनुशासित यूरोपीय सेना के सामने हिंदुस्तान की बड़ी फौजें भी नहीं टिक सकेंगी। इसका क्या कारण था।

एक लेखक लिखता है : पूर्व के लोग बच्चों जैसे हथियारों से लड़ते थे जबकि फ्रांसीसी या अंग्रेज मस्केट और बेयोनेट जैसे आधुनिकतम हथियारों से, जिनकी कि जबरदस्त मारक क्षमता थी।

निःसंदेह हमारी गुलामी का सबसे बड़ा कारण यह था कि हमारे पास नवीनतम हथियार नहीं थे, न ही मिलिट्री तकनीक। हम लोग पूरी तरह पिछड़ गए थे और यूरोप वाले वैज्ञानिक तथा इंजीनियरिंग प्रगति के आधार पर, अपने हथियार में, अपने नाविक बेड़े में, सैनिक संगठन और अनुशासन में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन न केवल ला चुके थे बल्कि सतत ला रहे थे।

अंग्रेज भी इस बीच चुप नहीं थे। वे भी आँखें खोलकर सारी बातें देख रहे थे। यानी अर्काट की सेना का जो हश्र हुआ वह उनसे छिपा नहीं रहा। सर जान माल्कम ने एक जगह लिखा है : अंग्रेजों ने जो अपनी हिंदुस्तानी सेना तैयार की, उसमें यहाँ की देशी सेना में ही मामूली परिवर्तन किए थे। जैसे उन्होंने इस सेना को अंग्रेजी ब्रोड क्लाथ का जैकेट दिया जिसका आधार हिंदुस्तान की परंपरागत ड्रेस की तरह ही था। उन्हें कुछ शारीरिक व्यायाम के सबक सिखाए और सैनिकी कवायद तथा प्रशिक्षण दिया। बस, शुरू में हिंदुस्तानी सिपाहियों को उन्होंने इतना ही सिखाया। फिर उनको अंग्रेजी हथियार, फायर आर्म्स आदि दिए गए। यानी अनुशासन और विदेशी अफसरों के कुशल नेतृत्व में ये पलटनें इतनी शक्तिशाली बन गयीं कि उनके सामने परंपरागत देसी सेनाएँ संख्या में ज्यादा होते हुए भी नहीं ठहर पाती थीं। यूरोपियन पद्धति से प्रशिक्षित और नए हथियारों से लैस यह अंग्रेजों की नयी भारतीय सेना रणकुशल अंग्रेज अफसरों के संचालन में लड़ाई के मैदान में उतर जाने पर अक्सर सफलता ही प्राप्त करती थीं। इसके मुकाबले देशी हिंदुस्तानी सेनाएँ अनुशासन तथा राष्ट्रीय भावना के अभाव में एक संगठित सेना का स्वरूप प्राप्त नहीं कर सकीं।

दक्षिण भारत में उथल-पुथल जारी थी। अब अंग्रेजों की बारी आयी। उन्होंने अर्काट पर चढ़ाई कर दी और आसानी से अर्काट पर काबिज हो गए। अंग्रेजी सेना का एक सिपाही अपनी डायरी लिखता था। इस दिन की घटना के बारे में जो उसने लिखा है उससे पता चलता है कि हिंदुस्तानी सेना की क्या हालत थी, जनता का मनोबल कितना गिरा हुआ था। वह डायरी में लिखता है :हमारा कोई विरोध नहीं हुआ। हम छह सौ अनुशासित हिंदुस्तानी सिपाही और पाँच सौ यूरोपियनों ने मिलकर आसानी से अर्काट पर कब्जा कर लिया। दस लाख लोग इसके साक्षी थे कि क्या हो रहा था।

तिरस्कार के साथ वह आगे लिखता है : दस लाख लोग देख रहे थे कि हमारा जरा भी विरोध नहीं हुआ। उसके बाद वे हमारे पैरों पर आकर गिर गए और उपहार वगैरह देने लगे। हालांकि मन ही मन हम समझ रहे थे कि ये चेहरे देशद्रोहियों के चेहरे हैं।

यह हिंदुस्तान की 18वीं शताब्दी के मध्य के आसपास की राजनrतिक हालत थी। वास्तविक स्थिति का अहसास होने के बाद क्या कोई सोच सकता है कि प्लासी की लड़ाई में बंगाल के नवाब को पराजित करना क्लाइव के लिए मुश्किल था?

18वीं शताब्दी के मध्य में क्लाइव एक जगह कहता है : ‘हिंदुस्तानी मुसलमान और गेंटू (हिंदू) आलसी, आरामतलब, अज्ञानी और इतने डरपोक हैं कि जिसकी कल्पना करना मुश्किल है। यह देश बड़ी नदियों से भरा हुआ है जिनका यातायात के लिए इस्तेमाल करना आसान है। यह देश पेड़ों और जंगलों से समृद्ध है। यहाँ ऐसे पहाड़ हैं कि जिनकी तंग घाटियों को पार करना असंभव नहीं है। यानी सारी भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि यहाँ पैदल सेना अजेय हो सकती है। घुड़शक्ति की तो बात ही छोड़िए। यहाँ के सिपाहियों में (यदि उनको यह संज्ञा दी जा सकती है।) अपने राजा के प्रति जरा भी निष्ठा नहीं है। कोई भी मालिक अच्छी तनख्वाह देकर इनकी सेवा ले सकता है। उनके लिए यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण नहीं है कि वे किसकी सेवा कर रहे हैं। प्लासी की लड़ाई के बाद तो मेरी यह राय बन गयी है कि यदि मैं चाहूँ तो सारा देश कंपनी के कब्जे में ला सकता हूँ तथा अपने सैन्य बल और कौशल से उसको कब्जे में भी रख सकता हूँ, जैसे कि आज सूबेदार मीर जाफर कर रहा है।(क्लाइव ने उपरोक्त विचार 30 दिसम्बर, 1758 को व्यक्त किया था)

प्लासी और बक्सर की लड़ाइयों के बाद अंग्रेजों का पूरे बंगाल पर कब्जा हो गया। उस समय बंगाल का मतलब था वर्तमान बिहार और ओड़िशा के भी प्रदेश। लेकिन अंग्रेजों ने यहाँ सीधा राज करने के बजाय ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए मुगल सम्राट से केवल दीवानी की सनद, यानी रेवेन्यू एडममिनिस्ट्रेशन और महसूल व्यवस्था अपने हाथ में ले ली। उनका यह अप्रत्यक्ष प्रशासन 1857 के विद्रोह तक चला। उन दिनों यह कहावत प्रचलित हो गयी थी किखल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का और हुक्म कंपनी बहादुर का। ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसी तरीके से पूरे देश पर अपना राज्य जमा लिया और उसके बाद अपनी राजनीतिक सत्ता का प्रयोग कर हमारे व्यवसायों और उद्योगों को समाप्त किया।

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