प्रसाद की जीवनी : देर आयद दुरुस्त आयद

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— विमल कुमार —

हिंदी के अमर कथाकार मुंशी प्रेमचंद का निधन 1936 में हुआ था। उनके निधन के 26 वर्ष बाद उनके लेखक पुत्र अमृत राय ने उनकी जीवनी ‘कलम का सिपाही लिखी थी’ जिस पर उन्हें 1963 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार भी मिला था। महाप्राण निराला का निधन 1961 में हुआ था और उसके 8 वर्ष बाद रामविलास शर्मा ने उनकी जीवनी ‘निराला की साहित्य साधना’ लिखी जो तीन खंडों में प्रकाशित हुई थी और 1970 में उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार से नवाजा गया था (यद्यपि रामविलास जी निराला की जीवनी लिखने की दिशा में काम 1948 से ही कर रहे थे और इस सिलसिले में उनका पत्राचार शिवपूजन सहाय से हुआ था। अमृत राय तो प्रेमचन्द के पुत्र ही थे और प्रखर लेखक भी। उन्होंने अपने पिता को देखा था लेकिन इस दौरान जयशंकर प्रसाद की कोई जीवनी नहीं लिखी गयी जबकि प्रसाद का निधन प्रेमचन्द के निधन के एक साल बाद यानी 1937 में हो गया। इस तरह आठ दशकों में हिंदी समाज में उनकी जीवनी लिखने का कोई उपक्रम नहीं किया गया। 85 वर्ष बाद अब जाकर उनकी जीवनी आयी है।इसके लिए हिंदी समाज रज़ा फाउंडेशन और सत्यदेव त्रिपाठी का ऋणी है कि महाकवि की जीवनी अंततः आ सकी। आखिर उनकी जीवनी के न आने के पीछे उपेक्षा और विलम्ब के क्या कारण रहे होंगे, हमें इस पर भी विचार करना चाहिए!

क्या अमृत राय की तरह जयशंकर प्रसाद के पुत्र रत्नशंकर प्रसाद अपने पिता की जीवनी लिखने के लिए सक्षम नहीं थे या उन्होंने इसकी जरूरत नहीं समझी? यद्यपि उन्होंने प्रसाद वांग्मय निकालकर एक उपकार हिंदी साहित्य पर जरूर किया अन्यथा सत्यदेव त्रिपाठी को यह जीवनी लिखने में और मुश्किल होती। क्या हिंदी जगत को रामविलास शर्मा की तरह जयशंकर प्रसाद का कोई जीवनीकार नहीं मिला, इस वजह से भी जीवनी नहीं लिखी गयी? अगर रत्नशंकर प्रसाद ने अपने पिता की जीवनी नहीं लिखी तो आखिर प्रसाद के किसी प्रशंसक ने उनकी जीवनी क्यों नहीं लिखी? क्या प्रसाद धीरे धीरे हिंदी साहित्य के कोने में धकेल दिए गए और उनके साहित्य की तरफ नए अध्येताओं की दिलचस्पी नहीं जागी? क्या हिंदी साहित्य समाज का ध्यान प्रेमचन्द और निराला पर अधिक केंद्रित हो गया और उन दोनों की जीवनियों के आने के कारण बाद में साहित्य की दुनिया में चर्चा भी उनपर केंद्रित रही? प्रेमचन्द स्कूल और प्रसाद स्कूल में हिंदी साहित्य विभक्त हो गया?

वैसे तो प्रसाद की जीवनी लिखने के सर्वाधिक उपयुक्त पात्र राय कृष्णदास थे लेकिन उन्होंने भी प्रसाद की जीवनी नहीं लिखी जबकि वे सत्तर के दशक के बाद तक जीवित रहे।जयशंकर प्रसाद को रामविलास शर्मा जैसा कोई अध्येता नहीं मिला जिसके कारण प्रसाद के बारे में हिंदी समाज बहुत कुछ जान नहीं सका। अगर हिंदी के कुछ लेखकों यथा राय कृष्णदास, विनोद शंकर व्यास, शिवपूजन सहाय, महादेवी वर्मा, रामनाथ सुमन, अमृतलाल नागर, राजेन्द्र नारायण शर्मा, बेढब बनारसी आदि ने प्रसाद पर संस्मरण न लिखे होते तो हम प्रसाद के व्यक्तित्व को नहीं जान पाते।प्रसाद के कृतित्व पर तो अनेक बातें हुईं पर उनके व्यक्तित्व पर कम बातें हुईं। पुरुषोत्तम मोदी और विनोद शंकर व्यास ने प्रसाद पर किताबें सम्पादित न की होतीं तो शायद हम प्रसाद के बारे में बहुत सारी बातों को नहीं जान पाते।

प्रसाद के निधन के कुछ वर्ष बाद शिवपूजन सहाय ने राय कृष्णदास से ‘बालक’ पत्रिका के लिए प्रसाद पर एक लेखमाला लिखवायी थी लेकिन वह भी पूरी नहीं हुई। उनका भी आग्रह था कि प्रसाद की जीवनी लिखी जाए। लेकिन शुक्र है रजा फाउंडेशन का कि उसने प्रसाद की जीवनी लिखने के लिए सत्यदेव त्रिपाठी को अवसर दिया। इस जीवनी को पढ़कर ऐसा लगता है इस किताब को लिखने के लिए इस समय सर्वाधिक योग्य पात्र त्रिपाठी जी हैं जो इस जीवनी को लिख सकते थे और उन्होंने बड़े मनोयोग और मेहनत से लिखा।

जीवनीकार के भीतर एक पैशन होना चाहिए तभी वह सरस जीवनी लिख सकता है अन्यथा जीवनियां निष्प्राण हो जाती हैं। वे घटनाओं और विवरणों का एक संचयन बन जाती हैं।यद्यपि यह जीवनी भी अब तक प्रसाद के बारे में प्रकाशित साहित्य को आधार बनाकर लिखी गयी है लेकिन सबको गूंथा गया है एक जीवन दृष्टि के साथ। रचनाकार या आलोचक की दृष्टि की तरह जीवनीकार की भी एक दृष्टि होनी चाहिए। अमृत राय ने प्रेमचंद और रामविलास जी ने निराला को एक परिप्रेक्ष्य में देखा और रखा, उसी तरह त्रिपाठी जी ने भी प्रसाद को एक परिप्रेक्ष्य में देखा और रखा है। उन्होंने प्रसाद के साथ न्याय करने की कोशिश की है। रामविलास जी की दृष्टि वाला व्यक्ति प्रसाद के साथ न्याय नहीं कर सकता था।

सत्यदेव त्रिपाठी

त्रिपाठी जी ने यह जीवनी लिखकर प्रसाद को हिंदी साहित्य के विचार-विमर्श के केंद्र में लाने की एक बार फिर कोशिश की है और उन्होंने जयशंकर प्रसाद को एक सही परिप्रेक्ष्य में रखने का प्रयास किया है। इस किताब का शीर्षक अवसाद में आनंद प्रसाद के पूरे व्यक्तित्व और कृतित्व को रेखांकित करता है और उनके मूल्यांकन का एक सूत्रवाक्य देता है। दरअसल, हम लोग लेखकों की कृतियों के बारे में बहुत कुछ जानते हैं लेकिन लेखको के निजी जीवन के बारे में बहुत कम जानते हैं और इस कारण उसकी रचना प्रक्रिया को समझ नहीं पाते हैं और इसलिए हम उसका सही मूल्यांकन भी नहीं कर पाते हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो यह जीवनी प्रसाद को समझने में बहुत मददगार होगी।

यूँ तो प्रसाद पर नंददुलारे वाजपेयी, डॉ नगेंद्र, रमेश चंद्र शाह, सिद्धनाथ कुमार, नेमिचन्द्र जैन, विजय मोहन सिंह जैसे अनेक लोगों ने लिखा है लेकिन अब जीवनी के आने के बाद अगर कोई आलोचक प्रसाद पर आलोचना की कोई किताब लिखे तो वह अधिक न्याय कर सकेगा। उसका परिप्रेक्ष्य बड़ा और सही होगा। अमृत राय और रामविलास शर्मा कृत जीवनियों ने क्रमशः प्रेमचन्द और निराला को समझने में बड़ी मदद की है।आज हिंदी समाज के मन में इन दोनों लेखकों की छवि जो बनी है उसमें इन किताबों का बड़ा योगदान है। उम्मीद है यह किताब (अवसाद का आनन्द) भी वैसी ही साबित होगी।

यह जीवनी केवल प्रसाद की नहीं बल्कि उस युग को भी समझने में मदद करती है जिसमें प्रसाद पैदा हुए। आदि सुंघनी साहू से लेकर महाकवि सुंघनी साहू की यात्रा एक रोचक ऐतिहासिक यात्रा है जिसमें बनारस की सभ्यता और संस्कृति भी दिखाई देती है। सत्यजित रे या श्याम बेनेगल के लिए इसमें सिनेमा की बड़ी सामग्री भी छिपी थी। त्रिपाठी जी ने उस पूरे परिदृश्य को खड़ा कर दिया है और एक फिल्म की तरह दृश्य विधान को प्रस्तुत किया है जिससे प्रसाद को जानने की उत्सुकता पैदा होती है।

उन्होंने प्रसाद की पारिवारिक पृष्ठभूमि से लेकर उनके निजी जीवन की व्यथा कथा (दो-दो पत्नियों और नवजात संतान की दुखद मृत्य) के अलावा वेशभूषा, खान पान, नृत्य, संगीत, प्रेम, बैठकबाजी आदि का बड़ा सूक्ष्म और विशद वर्णन किया है।रज़ा फाउंडेशन की अन्य जीवनियों में इस तरह के विविध वर्णन कम हैं।

इस जीवनी में अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिससे हिंदी जगत पहली बार परिचित होगा पर प्रसाद को लेकर कुछ ऐसे प्रसंग भी हैं जो नहीं आ पाए हैं। प्रसाद जी महादेवी की चित्रकला की प्रदर्शनी में भाग लेने लखनऊ गए थे। निराला के सिफलिस का इलाज भी कराया था। हिंदी आलोचना समाज ने प्रसाद और प्रेमचन्द तथा प्रसाद और निराला को एक दूसरे के साहित्यिक विलोम के रूप में खड़ा कर दिया जबकि प्रेमचन्द ने गड़े मुर्दे उखाड़ने वाले विवाद में प्रसाद से माफी भी मांग ली। बेढब बनारसी की मध्यस्थता के कारण दोनों में संवाद शुरू हुआ अन्यथा अबोला रहा था।

पुस्तक में प्रसाद से जुड़े और भी प्रसंगों को जोड़ा जा सकता था लेकिन कुछ ऐसे प्रसंग हैं जिन्हें बहुत कम लोग जानते हैं।महादेवी की बनारस यात्रा में प्रसाद से मिलने से पहले उनको नहीं पता था कि वह जिस सुंघनी साहू से मिलने जा रही हैं वह प्रसाद ही हैं। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जब उनकी कविता नहीं छापी तो प्रसाद ने आजीवन ‘सरस्वती’ को अपनी कविता नहीं भेजी। लेकिन जब द्विवेदी जी की 67वीं जयंती पर 1932 में अभिनंदन ग्रंथ भेंट किया गया तो उस समारोह में प्रसाद जी मंच पर मौजूद थे (लेकिन उस अभिनंदन ग्रंथ के लिए न केवल प्रसाद बल्कि निराला ने भी अपनी कोई रचना नहीं दी थी। उस ग्रंथ के सम्पादक राय कृष्णदास और श्यामसुंदर दास थे।कार्यकारी संपादक शिवपूजन सहाय; और ये सभी प्रसाद के शुभचिंतक और मुरीद थे। जाहिर है उन लोगों ने प्रसाद से जरूर रचना मांगी होगी लेकिन प्रसाद व निराला, दोनों इतने स्वाभिमानी कि उन्होंने रचना नहीं दी। ‘मतवाला’ में निराला ‘सरस्वती’ के संपादक के खिलाफ लिख चुके थे जिससे कुपित होकर द्विवेदी जी ने ‘मतवाला’ में गलतियां निकालकर लाल स्याही से संपादित कॉपी ‘मतवाला’ को भेजी थी।)

पुस्तक में मैथिलीशरण गुप्त और प्रसाद के एक अप्रिय प्रसंग के अलावा विनोद शंकर व्यास के साथ मनमुटाव का भी एक प्रसंग है लेकिन जब प्रसाद बीमार पड़े तो व्यास उनसे मिलने गए और दोनों के बीच मनोमालिन्य दूर हुआ।

पुस्तक में नाचने-गाने वाली एक युवती श्यामा के प्रति प्रसाद की आसक्ति का भी जिक्र है। प्रसाद के ‘आंसू’, ‘झरना’ और अन्य काव्य की रचना प्रक्रिया को भी समझने का प्रयास किया गया है और इस पर रोशनी डाली गयी है। इसके अलावा उनकी बीमारी का बड़ा करुणाजनक विवरण भी दिया गया है।इस तरह से यह एक सम्पूर्ण जीवनी है पर यह और भी परिपूर्ण बन सकती है।

प्रसाद के गरिमामय, विनम्र, मितभाषी, संकोची और वीतरागी व्यक्तिव को त्रिपाठी जी ने अपने शब्दों और विवरणों में साकार किया है। यूॅं तो इस जीवनी की कुछ कमियां, खामियां और सीमाएं भी बतायी जा सकती हैं पर त्रिपाठी जी ने इतना बड़ा काम कर दिया है जिसके सामने फिलहाल नतमस्तक ही हुआ जा सकता है। हिंदी साहित्य समाज उनका ऋणी रहेगा और अब यह कहा जा सकता है कि ‘कलम का सिपाही’ और ‘निराला की साहित्य साधना’ के बाद हिंदी में एक और उल्लेखनीय जीवनी आयी है। क्या साहित्य अकादेमी का इसकी तरफ ध्यान जाएगा जैसा ध्यान ‘कलम का सिपाही’ और ‘निराला की साहित्य साधना’ की तरफ गया था।

किताब : अवसाद का आनन्द (जयशंकर प्रसाद की जीवनी)
लेखक : सत्यदेव त्रिपाठी
मूल्य : 475 रुपए
प्रकाशक : सेतु प्रकाशन, सी-21, सेक्टर 65, नोएडा-201301
ईमेल : setuprakashan@gmail.com

1 COMMENT

  1. सत्यदेव त्रिपाठी के लेखन की मुरीद हूँ, मगर यह जीवनी नहीं पढ़ी है। आपने इसकी सीमाओं के साथ इसकी विशेषताओं का उल्लेख कर पढ़ने की उत्सुकता जगा दी है। त्रिपाठी का लेखन चित्रात्मक होता है अत: जब प्रसाद पर लेखनी चलाई है तो वह अवश्य रंगारंग होगी।
    वैसे भी आप जैसे बेवाक समीक्षक का लिखना ही बताता है कि किताब में दम है।
    साहित्य अकादमी ध्यान दे मेरी भी यह शुभांकाक्षा है।
    सत्यदेव त्रिपाठी, रजा फ़ाउंडेशन, सेतु प्रकाशन तथा आपको (विमल कुमार) बधाई।

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