— शर्मिला जालान —
हाल ही में कथाकार जयशंकर की प्रतिनिधि कहानियां ‘आधार चयन’ से आई हैं। ये कहानियाँ ‘शोकगीत’, ‘लाल दीवारों का मकान’, ‘मरुस्थल’, ‘बारिश ईश्वर और मृत्यु’ तथा ‘चेंबर म्यूजिक’ शीर्षकों से आए कहानी संग्रहों में प्रकाशित हो चुकी हैं।
कहानी, डायरी, नोट्स, जर्नल्स, संस्मरण, रेखाचित्र, और निबंध लेखक जयशंकर के उन्नीस सौ अट्ठानवे में आए कहानी संग्रह ‘मरुस्थल’ ने पाठकों के अंदर उनके प्रति अपार आदर और अनुराग पैदा किया। यह वही संग्रह था जिसकी भूमिका निर्मल वर्मा ने लिखी। जिसे विजय वर्मा कथा सम्मान मिला, जिसे पाठकों ने बहुत सराहा, जिसका एक समय शोर जैसा रहा, इस संग्रह की कुछ कहानियों का अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ, नाट्य रूपान्तर हुए। आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण में ‘बिल्ली का बुढ़ापा’ आदि कहानी को श्रोताओं ने लगातार सुना, और तीन कहानियों का नाट्य मंचन भी हुआ।
पर प्रसंग प्रतिनिधि कहानियों का है सो उनकी इन कहानियों को पढ़कर पहली बात जो मन में आती है वह यह कि ये कहानियाँ जितनी व्यक्तिक लगती हैं उतनी ही ये निर्व्यक्तिक और मानव बोध की कहानियाँ भी लगती हैं।
कहानियों के बाहर का जो जीवन है, वहाँ जो यथार्थ है वह कठिन, कठोर, रूखा है लेकिन उसका विरल सौंदर्य है। इस सौंदर्य को रचनेवाले उपकरणों में हैं- कस्बे के लैंडस्केप, मुरमुण्डा दंतेवाड़ा, दंतेश्वरी का मंदिर, बेतवा नदी की कल कल, वैन गंगा, पीर की मजार, उदयगिरी की गुफा, वैनगौग की चिट्ठियाँ, रवीन्द्रनाथ के उपन्यास, शेक्सपियर का नाटक ‘मैकबेथ’, अमीर खान का राग दरबारी, राग मारवा और मेघ, कर्नाटक संगीत, कुमार गंधर्व, आल्हा गान, कबीर के भजन, राग केदार, निखिल बैनर्जी का रिकॉर्ड, देसी कवेलियों की छत, हावड़ा मेल, मैकमिलन की किताबें, बनारस, चिड़ियाघर, म्यूजियम, पुस्तकालय, लेबोरेटरी, चश्मा, कुर्सी, दरगाह, सर्कस, सिनेमा, रामलीला, अमलतास, ध्रुवतारा, पूर्णिमा, चांदनी रात, जंगल की सरसराहटें, डूबता हुआ सूरज, एम्प्रेस मिल और ग्रामीण शाम।
कस्बे के धूप-छाहीं संसार के छोट- छोटे डिटेल्स। ये सब कहानियों की निर्मम ठंडी वयस्क वस्तुपरकता में कला की महान चेतना के रूप में विद्यमान रहते हैं।
इन कहानियों में एकांत चित्र मिलते हैं – मानवीय रिश्तों की जांच-पड़ताल, रिश्तों के अकथनीय और जटिल होने की विडम्बना, रिश्तों को समझने-समझाने की लहूलुहान करती कोशिशें, तो वे भी समग्र जीवन दृष्टि को हमारे सामने खोलते हैं। समग्र जीवन दृष्टि में विवेक, मानवीय न्याय का पक्ष, सौन्दर्यमयता, सुघड़ता आदि शामिल हैं।
जयशंकर की कहानियों के पात्र गाँव की गरीबी को बहुत पास से देखे हुए, साधारण लोगों से कुम्हारों से बात करते, उनकी गरीब और गलीज बस्ती में जाते हुए, मुरमुण्डा से आते हुए, आदिवासियों के अभाव और भावनाओं से भरे हुए जीवन को समझते हुए, रवीन्द्रनाथ के पाठक और गाँधी के भक्तों के बीच समय बिताए पात्र हैं। इन पात्रों के बाहर के संसार में पागल, भिखारी, अस्पताल, गरीबी, गंदगी, भूख, श्मशान, शव और शवयात्रा के चित्र सघनता के साथ उपस्थित हैं।
पर्यवारणविद अनुपम मिश्र ‘चेम्बर म्यूजिक’ के ब्लर्ब में लिखते हैं –
“इन कहानियों के पात्र, घटनाएँ ठीक उन्हीं की तरह हमारे भी चारों और बिखरी पड़ी हैं पर हम इन घटनाओं और पात्रों के आर पार नहीं देख पाते। जयशंकर इनके आर पार देख सकते हैं और फिर वे इनको अपनी कलम से उठाकर हमारे सामने कुछ इस तरह से रख देते हैं कि लो हम भी इनके आर पार देखने लग जाते हैं।”
लेखक के ये पात्र अपने बचपन में, किशोर दिनों में लौटते हैं, बार-बार लौटते हैं, तरह-तरह से लौटते हैं और उन सगे दिनों के साथ बने रहना चाहते हैं। बचपन और किशोर वय के वे दिन पवित्र, निष्कलंक, आध्यात्मिक अंतर्लोक का सुगन्धित वायुमंडल है। इस संसार में प्रकृति चित्र आते हैं, बिम्ब व रूपक आते हैं, आत्मीय गहरे मानवीय अनुभव, प्रश्नाकुलता का एक समूचा संसार सामने आता है। नदी, पेड़, परिंदे, वन, वस्पतियां आती हैं। यहाँ अकेलेपन, एकांत और अवसाद का संसार कितना विविध, कितना संवेद्य, गहन और एकान्तिक है वह इन कहानियों से गुजरते हुए हम देख पाते हैं।
ये कहानियाँ अपने में और भी कई कथाएं छिपाए हुए हैं, ये कथाएं उनके लिए हैं जो बचपन में अपनी बीमार माँ के साथ रहे हैं और उनके लिए भी जो बीमार माँ के साथ नहीं रहे हैं। इन कहानियों के पात्रों के अंदर दुख-सुख बहुस्तरीय ढंग से आते जाते रहते हैं। पात्रों के जीवन में कभी-कभी बाहर सब कुछ ठीक-ठाक लगता है पर अंदर ही अंदर कुछ रिसता रहता है। कुछ पात्र तो परिस्थितयों की वजह से अकेले रहते हैं पर कुछ परिस्थितियां कैसी भी रहें अकेले ही रहते हैं। इनके विश्वास कभी अविश्वास में बदलते हैं तो कभी अविश्वास विश्वास में। ये मार्मिक किस्म की विकलताओं से गुजरते रहते हैं। कभी ऐसा भी लगता है कि आदमी अपनी खोल से ही बाहर निकल गया है। एक तरह के आत्म निर्वासन में।
‘मरुस्थल’ के ब्लर्ब में निर्मल वर्मा जयशंकर की एक कहानी ‘मीरा की मौत’ से एक वाक्य उद्धृत करते हैं –
“सारे दुख एक तरह की अवधारणाएं हैं। हम सब अपनी अवधारणाओं की वजह से दुख भोगते हैं।” (मीरा की मौत)
निम्नमध्यवर्गीय भारतीय स्त्री की निराशा और जिजीविषा, धीरज, संयम और सहनशीलता, लगाव और ईर्ष्या, कर्मठता और दारुण व जटिल परिस्थितियों का उसके ऊपर प्रहार, प्रेम और लगाव के मूर्त अमूर्त पक्ष, अँधेरे और उजाले, सघनता से कहानियों में आते जाते रहते हैं। कहानियों के पात्रों के स्वप्न, आकांक्षाएं, विकल्प सब अनुभवों को पूरी विकटता, पूरी जटिलता पूरी सघनता के साथ पाठक महसूस करने लगता है। उसपर सोचने लगता है। हम अपनी औसत जिन्दगी में जो अनुभव प्राप्त नहीं कर सकते वे अनुभव इन कहानियों से गुजरते हुए प्राप्त करते हैं।
कहानियों के संसार के भीतर से गुजरते हुए जो चीज हम तक पहुँचती है वह है पात्रों की आधी अधूरी जिन्दगी और जीवन को फिर से, अच्छी तरह से जीने की कोशिश। जीवन पर आस्था, और वह भाषा जिसके कारण इन कहानियों का जो मर्म है उसकी जो पीड़ा और यंत्रणा है वह हम तक पहुँच पाती है।
कहानियों के भीतर से हम जीवन का हर रंग राग और इमेज देख पाते हैं। ये कहानियाँ अकेलेपन के क्षणों में अपने से साक्षात्कार की कहानियाँ हैं। हम जो लगातार चल रहे, दौड़ रहे, अचानक रुक जाते हैं और कहानियों के जीवन में जो गुजरा है जो बीत रहा है उसे पढ़कर पढ़ते हुए हम अपने बारे में सोचने लगते हैं। ये कहानियाँ उस तरह का क्षण देती हैं जहाँ बाहर के अराजक जीवन में बिखराव के बीच हम एक संगति पा लेते हैं।
कहानियों का आग्रह अपने पवित्र एकांत को बचाए रखने का आग्रह भी है। शब्दों की स्वर ध्वनि, शब्द संरचना, उसका संगीत, उसकी लय, शब्दों का चयन, आदि में बँध जाते हैं। कहानियों के भीतर जो संदेश या सत्य छिपा है वह पूरी तरह हासिल कर पाना मुश्किल है, उसका कुछ हिस्सा जो मिल पाया है उससे यही जानना हुआ है कि ये कहानियाँ प्रेम की प्रतीक्षा और प्रेम की प्रक्रिया की कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उस अकेलेपन और अवसाद की कहानियाँ हैं जो निम्नमध्यवर्गीय जीवन में, क़स्बे के जीवन में दिखाई देता है।
लेखक के पास जो अनुभव आते हैं वे अंदर से बाहर के परिवेश की तरफ जाते हैं और फिर बाहर से अंदर की तरफ आते हैं। इस तरह अन्तर्मन और बाहर के यथार्थ से रिश्ता बनाते हुए अनुभूति से कथा संसार रचा जाता है। कहानियों के केंद्र में स्त्रियाँ आती हैं और पुरुष मन की निर्लज्जता, नीचता, निष्ठुरता, नियति को भी उसी संवेदना के साथ समझा है| यह सब एकालाप, संलाप, वार्तालाप, संभाषण के रूप में होता है।
प्रतिनिधि कहानियों की सभी कहानियों को मिला लें तो हम पाएंगे कि उन असंख्य स्थितियों, घटनाओं, चरित्रों-पात्रों, जगहों, विवरणों, वर्णनों पर हम कई तरह से सोच सकते हैं जो यहाँ इकठ्ठे हो गए हैं। इनमें इनको गढ़े और रचे जाने के बावजूद एक प्रवाह सा है, सोच का, भाषा का, दिखने और दिखाई देनेवाली चीजों का, सहजता से आए किसी खास पहर, महीनों और मौसम का।
कहानियों के पात्रों का जीवन प्रेम, अच्छा गाने, गणित का अच्छा अध्यापक बनने की उम्मीद और लालसा, लेखकीय बेचैनी आदि लेखकीय सजगता और चिन्तनशीलता के कारण आती है।
ये कहानियाँ हमारे अंदर ‘वी शैल ओवरकम’ का विश्वास पैदा करती हैं। जयशंकर अपने कथेतर गद्य की पुस्तक ‘गोधूलि की इबारतें’ के एक निबंध ‘रचना का आत्मसंघर्ष’ में कहते हैं –
“एक बात अनंतमूर्ति बहुत अच्छी तरह कहा करते थे— हमारे समय की आधुनिक प्रार्थनाओं में मुझे किसी प्रार्थना को चुनना होगा तो में अश्वेत गायक पॉल रॉब्सन का गीत वी शैल ओवर कम को चुनूँगा।”
ये कहानियाँ जीवन पर आस्था, शब्द पर आस्था और लिखने पर आस्था की कहानियाँ हैं। इनको पहले भी पढ़ा है और इनका सत्य, इनके शब्दों के भीतर जो संदेश आज दिखाई दे रहा है वह है लिखने और अच्छा लिखने की लेखक की गहरी जिजीविषा।
जयशंकर की कहानियों को पढ़ते हुए उनके अध्ययन कक्ष में झुककर देखने की स्वाभाविक इच्छा होती है। उनके फिल्मकारों, संगीतकारों, चित्रकारों, देशी-विदेशी लेखकों की पुस्तकों को जानने, पढ़ने-देखने की लालसा होती है जो उनकी अदृश्य और अश्रव्य को रेखांकित करती कहानियों को समृद्ध करती रही हैं।
किताब : प्रतिनिधि कहानियां
लेखक : जयशंकर
आधार प्रकाशन, एससीएफ 267, सेक्टर-16, पंचकूला (हरियाणा) – 134114
मूल्य : 250 रु.