स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : नौवीं किस्त

0
मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

रंपरागत हिंदू कानून के अनुसार अगड़ी यानी उच्च जातियों में विधवाओं के पुनर्विवाह का निषेध था। कतिपय आधुनिक विद्वान पुनर्विवाह के पक्ष में कुछ सबूत जरूर पेश करते थे, लेकिन परंपरागत पंडितों का सामान्य मत इसके बिल्कुल खिलाफ था। हिंदुओं में, खासकर वरिष्ठ जातियों में सती होने की प्रथा प्रचलित थी। अत्यंत प्राचीनकाल में भी इसके उदाहरण पाए गए हैं। अंग्रेजी साहित्य और पश्चिमी आदर्शों को देखकर कुछ पढ़े-लिखे लोगों को यह प्रथा अमानुषिक प्रतीत होने लगी। ऐसी कुरीतियों पर वे प्रतिबंध लगाना चाहते थे। उसी तरह बाल-विवाह की अनिष्टकारी प्रथा भी अब कुछ प्रगतिशील और विद्वान लोगों को सर्वथा अनुचित महसूस होने लगी थी। फलतः इन सब रूढ़ियों के खिलाफ आंदोलन प्रारंभ हुआ। हालांकि यह कहना कि साधारण जनता का समर्थन इन आंदोलनों को प्राप्त था, वास्तविकता से परे होना होगा। क्योंकि आज भी हमारे देश में जहाँ-तहाँ सती होने के उदाहरण मिलते हैं। आम लोगों का मन इतना प्रतिक्रियावादी है कि हजारों लोग इस भीषण काम को देखते रहते हैं, उसको रुकवाने की चेष्टा तक नहीं करते। कुछ ही दिन पहले दिल्ली में राणी सती का एक उत्सव मनाया गया था। उसके संदर्भ में दिल्ली में सती प्रथा का समर्थन करनेवाली औरतों का एक जुलूस भी निकला था। परंतु आधुनिक आदर्शवादी महिलाओं को यह अच्छा नहीं लगा। इसलिए उन्होंने इस जुलूस का विरोध किया। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि राणी सती के जुलूस में जहाँ डेढ़ हजार महिलाओं ने भाग लिया, वहीं सती प्रथा का विरोध करनेवाली इन महिलाओं की संख्या पचास से अधिक नहीं थी।

जहाँ तक बाल-विवाह का सवाल है, उसके बारे में क्या मर्यादा का कानून बना हुआ है। शहरी इलाकों में इन कानूनों का पालन होता है। लेकिन कौन कह सकता है कि ग्रामीण इलाकों में इन कानूनों की अवहेलना नहीं हो रही है? 1981 में अमेठी (उ.प्र) में लोकसभा का एक उप-निर्वाचन हुआ था। उसमें राजीव गांधी बनाम शरद यादव की लड़ाई थी। यह चुनाव अभियान शादियों के मौसम में ही चल रहा था। कई लोगों ने मुझे वहाँ का आँखों देखा हाल बताया था। अभी तक अवध के इस इलाके में इतना पिछड़ापन है कि गोद में लिये बच्चों की शादियाँ खुलकर की जा रही हैं। यह अकेला उदाहरण नहीं है। गाँवों में ऐसे हजारों उदाहरण आज भी मिलते हैं।

पुनर्विवाह की बात आज पुरानी प्रतीत हो सकती है, लेकिन असलियत यह है कि वरिष्ठ जातियों में विधवा पुनर्विवाह अभी तक प्रचलित नहीं है। हजार में इक्का-दुक्का होता होगा। विडंबना यह है कि जैसे-जैसे पिछड़ी जातियाँ विकसित होती जा रही हैं उनमें भी कुरीतियाँ प्रतिष्ठित होने लगी हैं।

नए हिंदू कोड में एक से अधिक शादी पर प्रतिबंध है। हमारे देश में वैसे रामचन्द्र जी ने एकपत्नी व्रत का आदर्श भी रखा है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि इस देश में एक पत्नी की प्रणाली कभी भी लोकप्रिय थी। अनेक विवाह करने की छूट पुरुषों को दी गयी थी। आज इस पर कानूनी प्रतिबंध जरूर है, लेकिन शक्तिशाली लोग जबरदस्ती कानून तोड़कर दो या दो से अधिक शादियाँ कर रहे हैं। अभी पीछे उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में राजनीतिक सूत्रों में एक ऐसी घटना हुई है। वहाँ के एक शादीशुदा कांग्रेसी विधायक ने एक कांग्रेसी विधायिका से दूसरी शादी की जबकि उसकी पहली पत्नी मौजूद हैं और उससे उनके दो-तीन बच्चे भी हैं। यानी कानून बनानेवाले लोग भी जब ऐसा आदर्श प्रस्तुत करते हैं तो साधारण जनता से क्या उम्मीद की जा सकती है? लगता है कि अंग्रेजी हुकूमत के कार्यकाल में पश्चिमी सभ्यता से उधार लिये गए ये सारे समानतावादी और प्रगतिवादी संस्करण केवल दिखावा मात्र रह गए हैं। वास्तव में तो वही पुरानी और सड़ियल व्यवस्था जारी है।

हिंदू सभ्यता और दर्शन के बारे में अक्सर कहा जाता है कि यह परम सहिष्णुता पर आधारित हैं। सत्य एक है, उस ओर जानेवाले रास्ते अनेक हैं– यह वचन इसके प्रतीक रूप में माना जाता है। लेकिन सवाल है लोक व्यवहार का। क्या वह सहिष्णुता और मानवता पर आधारित है? इसमें मुझे संदेह है। इस बारे में ऊपर कुछ उदाहरण दिए गए हैं तथा कुछ और उदाहरण भी दिए जा सकते हैं। सभी जानते हैं कि कोल्हापुर की रियासत शिवाजी के वंशजों को हाथ में थी। उस रियासत में जैन अपने तीर्थकरों की मूर्तियों के जुलूस नहीं निकाल सकते थे। अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना के बाद भी यह स्थिति रही। 19वीं शताब्दी के अंत में वहाँ के पोलिटिकल एजेण्ट और उनके एक प्रगतिशील हिंदू सहायक ने जैनियों को जुलूस निकालने की इजाजत दी और प्रमुख हिंदुओं के घर-घर जाकर उन्हें सुझाव दिया कि आप इस जुलूस को देखना पसंद न करें तो अपने घरों के दरवाजे बंद करके जुलूस समाप्त होने पर्यन्त अंदर ही रहें। ऐसा करने से कोई बखेड़ा नहीं होगा, ऐसी उनकी धारणा थी। लेकिन उनकी यह धारणा गलत साबित हुई। कोल्हापुर के ब्राह्मण इस जुलूस से अत्यंत उत्तेजित हो गए। और स्थानीय अंबा के मंदिर में एकत्र होकर इस जुलूस के प्रतिकार के लिए सज गए। जैसे ही जुलूस अंबा के मंदिर के पास से गुजरने लगा, उन्होंने उसपर पथराव शुरू कर दिया। इसमें दोनों तरफ के लोग घायल हुए। अंत में पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा, दंगा-फसाद करनेवालों को गिरफ्तार करना पड़ा। यह घटना हिंदू समाज के प्रमुखों की मनोवैज्ञानिक स्थिति पर काफी हृदय विदारक प्रकाश डालती है।

दूसरी घटना पूना की है। पूना शिवाजी के वंशजों के पेशवाओं (प्रधानमंत्री) की राजधानी थी। 1818 में पेशवाओं की हुकूमत समाप्त हो गयी और वहाँ अंग्रेजों का शासन हो गया। लेकिन अंग्रेज प्रशासन वहाँ के वरिष्ठ वर्ग से इतना डरते थे कि वे उन्हें हमेशा खुश रखने का प्रयास करते थे। पेशवाओ के राज में ब्राह्मणों को उनके अपराधों के लिए दंड नहीं दिया जाता था। लेकिन अंग्रेजों ने कानून के सामने समानता के सिद्धांत को लागू कर इस विषमता को समाप्त कर दिया। फिर भी पेशवाओं के जमाने में और उऩके बाद भी कई वर्षों तक पूना के जैनियों को अपने मंदिर बनवाने की इजाजत नहीं थी। जैन मंदिरों का निर्माण, यानी ब्राह्मणी व्यवस्था का नाश– ऐसी उनकी मान्यता थी। जैनियों का पहला मंदिर पूना में 1859 में बना, ऐसा इतिहास के परिशीलन से पता चलता है। हिंदुओं के तथाकथित विशाल दृष्टिकोण का यह एक नमूना माना जा सकता है।


Discover more from समता मार्ग

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Comment