— नन्दकिशोर आचार्य —
शिक्षा की जितनी भी परिभाषाएँ दी जाती रही हैं, उन सभी में, तत्त्वतः, एक बात समान है और वह यह है कि उन सभी में शिक्षा को संस्कृति के साथ जोड़कर देखा गया है। शिक्षा की प्रक्रिया मूलतः एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है क्योंकि उसका उद्देश्य संस्कृति का नैरन्तर्य और उसका परिष्करण एवं परिवर्द्धन है। एन साइक्लोपीडिया ऑफ सोशल साइंसेज में शिक्षा की परिभाषा करते हुए उसे बालक के संस्कृति में प्रवेश की प्रक्रिया कहा गया है। इसलिए शिक्षा के उद्देश्य और उसकी पूर्ति के लिए उचित प्रक्रिया का निर्धारण करते समय यह ध्यान रखना जरूरी होगा कि उसका अन्तस्सूत्र सांस्कृतिक विकास की प्रक्रिया से जुड़े।
संस्कृति मानवीय चेतना और व्यवहार का गुणात्मक उत्कर्ष है। अलग-अलग युगों या समाजों में उसकी अभिव्यक्ति के रूप और बलाघात भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, लेकिन, बुनियादी तौर पर वह मानवीय चेतना की सृजनशीलता का गुणात्मक विकास है। इसलिए शिक्षा की वही प्रक्रिया सही और सार्थक मानी जा सकती है, जो मानवीय सृजनात्मकता के विकास में सहायक हो।
सामान्यतः, जब मानवीय सृजनशीलता की बात की जाती है तो उसका तात्पर्य ललित कलाओं या साहित्य-रचना की प्रतिभा और कभी-कभी विज्ञान की आविष्कारक प्रतिभा से ही लिया जाता है। लेकिन, मानवीय सृजनशीलता तो इससे कहीं अधिक व्यापक प्रवृत्ति है। कला, साहित्य या विज्ञान निश्चय ही इस सृजनात्मक प्रवृत्ति की विशिष्ट अभिव्यक्ति हैं। लेकिन, इस प्रकार की विशिष्ट अभिव्यक्ति या अभिरुचि न होने पर उसे सृजनशीलता का अभाव मानना एक भूल होगी।
मनुष्य यदि एक सृजनशील प्राणी है– जो कि वह है– तो उसकी इस सृजनशीलता की हर स्तर पर अभिव्यक्ति स्वाभाविक है। यदि कोई व्यक्ति कलाकार, लेखक या वैज्ञानिक आदि नहीं है तो भी वह सृजनशील हो सकता है। न केवल यह कि उसका प्रत्येक कर्म सृजन और प्रत्येक सामाजिक रिश्ता– प्रेम, मैत्री, रक्त एवं भावनात्मक संबंध आदि– एक सृजनात्मक रिश्ता हो सकता है, बल्कि अपने परिवेश– प्राकृतिक एवं सामाजिक दोनों- के साथ भी उसका रिश्ता अनिवार्यतः एक सृजनात्मक रिश्ता होना चाहिए। किसी भी व्यक्ति, जाति या समाज के सुसंस्कृत होने की एक प्रमुख पहचान यही है कि उसके सभी रिश्तों और व्यवहार में इस सृजनात्मकता का कितना उत्कर्ष होता है।
अधिकांशतः शिक्षा को एक ऐसी प्रक्रिया माना गया है, जिसके द्वारा व्यक्ति को परिवेश के अनुकूल होने या उस पर नियंत्रण करने के लिए तैयार किया जाता है। उससे आशा की जाती है कि वह सामाजिक परिवेश के अनुकूल हो और प्राकृतिक परिवेश पर नियंत्रण रख सके। समाज शिक्षा-व्यवस्था से यही अपेक्षा करता है कि वह व्यक्ति को इन दोनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक योग्यता प्रदान करे। इसी प्रयोजन से शिक्षा की प्रक्रिया व्यावहारिक ज्ञान– अपनी विशिष्ट शाखाओं सहित– और मूल्य-चेतना दोनों को अपने में समोने की कोशिश करती है।
सामान्य दृष्टि से देखने पर इस में कोई आपत्ति नहीं दिखाई देती और इसी कारण प्रारंभ से ही शिक्षा के दो उपर्युक्त प्रयोजन रहे हैं। प्राचीन युगों में शिक्षा को लेकर अधिक परेशानी नहीं थी तो इसका कारण यह था कि शिक्षा-प्रक्रिया में निरंतर परिवर्तन की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि सामाजिक परिवेश में बदलाव की गति बहुत धीमी और इसलिए अधिकांशतः अलक्षित रहती थी तथा प्राकृतिक परिवेश की जानकारी सीमित थी और इसलिए उस पर नियंत्रण के उपाय और उसे अपने लिए इस्तेमाल कर सकने के तरीके भी बहुत सीमित थे।
लेकिन आधुनिक समाजों में न केवल सामाजिक परिवर्तन की गति काफी तेज और तुरंत पहचान में आ सकने वाली है बल्कि प्राकृतिक परिवेश की जानकारी और उसे नियंत्रित करने व इस्तेमाल कर सकने के उपायों के ज्ञान में भी निरंतर वृद्धि हो रही है। इन सब कारणों से उत्पन्न गतिशीलता के सम्मुख हमारी शिक्षा-प्रक्रिया, अधिकांशतः, पिछड़ जाती है और इस कारण शिक्षा और मानवीय विकास की प्रक्रियाओं में कोई सामंजस्य नहीं बैठता दीखता।
लेकिन, समस्या को इतना ही देखना अधूरा देखना है। पहले के जमाने की तुलना में ज्ञान के प्रचार-प्रसार के माध्यम भी बढ़ते जा रहे हैं और अब सीखने के लिए किसी के पास निरंतर जाते रहना अनिवार्य नहीं रह गया है। प्रसार और संचार के आधुनिकतम साधनों के द्वारा किसी भी प्रकार की जानकारी और विचार ग्रहण करने की गति भी पहले की अपेक्षा अधिक बढ़ी है और सामान्य जीवन पर इसके प्रत्यक्ष असर के कई स्पष्ट प्रमाण दिये जा सकते हैं। समय-समय पर अल्पकालिक शिक्षण द्वारा भी जानकारी को निरंतर बढ़ाते रहा जा सकता है।
इसलिए शिक्षा की बुनियादी समस्या यह है कि वह व्यक्ति को अपने परिवेश– उसके प्राकृतिक और सामाजिक दोनों ही रूपों– के प्रति किस तरह का रिश्ता विकसित करने की प्रेरणा देती और उसके लिए आवश्यक मानसिक भूमि तैयार करती है। अनुकूलन और नियंत्रण दोनों ही किसी-न-किसी स्तर पर अलोकतांत्रिक और इसीलिए इस सीमा तक मानव-विरोधी प्रवृत्तियाँ हैं। किसी सीमा तक अनुकूलन या नियंत्रण यदि आवश्यक हों- यद्यपि इसके सीमा-निर्धारण का सवाल बहुत टेढ़ा है– तो भी यह देखते रहना जरूरी होगा कि इनके पीछे कौन-सी प्रवृत्ति काम कर रही है। यदि शिक्षा व्यक्ति में एक प्रवृत्ति के रूप में अनुकूलन और नियंत्रण की भावना का विकास करती है तो निश्चय ही सारे आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को देनेवाली होने पर भी उसे मानवीय सृजनशीलता के विकास को कुंठित करनेवाली ही मानना होगा।
यदि सामाजिक मान्यताओं और स्थापित रीतियों के प्रति व्यक्ति का अनुकूलन हर परिस्थिति में सही ही होता तब तो मानवीय चेतना का कोई विकास संभव ही नहीं हुआ होता और किसी तरह के मौलिक अनुसंधान की प्रेरणा ही समाप्त हो गयी होती। इसी प्रकार प्राकृतिक परिवेश को अपना विरोधी मानकर या उसे अपने इस्तेमाल की एक चीज समझकर उस पर नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश एक प्रकार की आत्म-केंद्रित और हिंसक प्रवृत्ति है क्योंकि यह पूरे जीवन की, जीवन के स्रोत की अवमानना और दमन है।
इसलिए शिक्षा-प्रक्रिया का बुनियादी प्रयोजन यही हो सकता है कि वह व्यक्ति की– शिक्षार्थी की– अन्तर्निहित सृजनशीलता को अभिव्यक्ति होने की प्रेरणा दे और इसके लिए आवश्यक गुणों का व्यक्ति में मानसिक और व्यावहारिक स्तर पर विकास करे। आधुनिक समाजों की एक बड़ी कमजोरी यह है कि प्रत्येक क्षेत्र में कुछ विशिष्ट सृजनशील प्रतिभाओं के बावजूद सामान्य जीवन में से सृजनात्मक सुख का यह भाव मिटता जा रहा है।
धर्म सृजन नहीं, तनाव का स्रोत होता जा रहा है। समाज व्यक्ति के सृजनात्मक संतोष का अनिवार्य माध्यम नहीं, एक विवशता माना जाने लगा है और प्रकृति को मनुष्य अपनी सहचरी नहीं, दासी बनाना चाहने लगा है। शिक्षा यदि सामान्य मनुष्य की इस सृजनात्मकता की भावना को नहीं बचाती है तो वह मनुष्य को भी नहीं बचा पाएगी।