10 मई। देश में जहाँ एक तरफ लाखों लोग बगैर इलाज के मर रहे हैं, तो वहीं दूसरी तरफ देश भर के अस्पतालों में डॉक्टरों की भारी कमी है। इससे भी ज्यादा हैरानी की बात है, कि इसके बावजूद हजारों पद खाली हैं। इससे साबित होता है कि सरकार लाखों गरीब परिवारों को मौत के मुँह में झोंकने का सरकारी इंतजाम कर रही है। इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है, कि देश के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर करीब 41.32 फीसदी स्टाफ की कमी है।
सरकार की तरफ से कुल 158,417 पद स्वीकृत हैं। इनमें से 65,467 पद अब भी खाली हैं। जबकि एक्सपर्ट डॉक्टरों की करीब 82 फीसदी कमी है। केंद्र की नयी रिपोर्ट के अनुसार देश के ग्रामीण इलाकों के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) में डॉक्टरों की भारी कमी है। ग्रामीण इलाकों में सर्जन, बच्चों के डॉक्टर, दाई और महिला रोग स्पेशलिस्ट और जनरल फिजीशियन जैसे डॉक्टरों की 68 फीसदी कमी है। ग्रामीण इलाकों में 5000 से ज्यादा सीएचसी में करीब 22,000 डॉक्टरों की जरूरत है। इस आवश्यकता के बाद भी स्वीकृत पद केवल 13,637 हैं, जिसमें से 9,268 पद अभी खाली हैं।
डॉक्टर टी सुंदररमन ने कहा कि देखा गया है, कि नेशनल लेवल पर 2005 में विशेषज्ञों की कमी 46 फीसदी थी, जो अब बढ़कर 68 फीसदी हो गयी है। यह हालात पिछले दो साल से बने हुए हैं। इसके अलावा शायद ही कभी डब्ल्यूएचओ या यूनिसेफ जैसी स्वास्थ्य एजेंसियों ने इस कमी को दूर करने के लिए जोर दिया हो। सीएचसी में जरूरी सुविधाएँ नहीं दी गयी हैं, और गाँवों में डॉक्टरों को बनाए रखने के लिए कोई नया तरीका भी नहीं निकाला गया है। ऐसे में निजी कॉलेज में लोन लेकर मोटी फीस चुकाकर पढ़नेवाले स्टूडेंट पास होने के बाद सरकारी अस्पतालों में काम करने के लिए शामिल नहीं होंगे। अगर वो सरकारी अस्पताल में काम करेंगे तो अपना लोन नहीं चुका पाएंगे। वो काम के दौरान पैसे वसूली के तरीके तलाश करेंगे।
सरकारी अस्पतालों में रेडियोग्राफर, नर्सिंग स्टाफ और लैब टेक्नीशियन की भी बहुत कमी है। बिहार में ग्रामीण क्षेत्रों के अस्पतालों में कोई रेडियोग्राफर नहीं है। जबकि गुजरात में आठ हैं। 37 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के सीएचसी में नर्सों के 1.06 लाख से ज्यादा स्वीकृत पोस्ट हैं, जिनमें से करीब 30,000 खाली हैं यानी 28 फीसदी स्टाफ की कमी है।
देश में डॉक्टरों की भारी कमी को लेकर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने राज्यसभा में एक रिपोर्ट पेश की थी। उस रिपोर्ट के अनुसार 1,445 लोगों की जिम्मेदारी केवल एक एलोपैथ के डॉक्टर के कंधों पर है। उस वक्त उत्तर भारत में सबसे बुरे हालात हरियाणा के थे। जबकि उत्तर प्रदेश में 3,692, उत्तराखंड में 1,631, पंजाब में 778, हिमाचल प्रदेश में 3,015, जम्मू कश्मीर में 1,143 और राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 1,252 लोगों के लिए एक एलोपैथी डॉक्टर पंजीकृत थे।
अगर आयुष (आयुर्वेद, योगा, यूनानी, सिद्धा, होम्योपैथी) चिकित्सा पद्धति के डॉक्टरों को इनके साथ जोड़ दें, तो भी उस वक्त हरियाणा में 1,812 लोगों की आबादी पर मात्र एक डॉक्टर तैनात थे, जो कि उत्तर भारत के बाकी राज्यों की तुलना में सर्वाधिक थे। जबकि डब्ल्यूएचओ के अनुसार एक हजार आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए। मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार देश में 11.59 लाख एलोपैथी के डॉक्टर पंजीकृत हैं। लेकिन इनमें से 9.27 लाख डॉक्टर ही हर दिन अस्पताल या क्लीनिक में मरीज का उपचार करते थे।
डॉक्टरों की कमी होने का नतीजा यह है, कि झोलाछाप डॉक्टरों को लोगों के जीवन से खिलवाड़ करने का मौका मिल जाता है। गैरसरकारी संगठनों की मानें तो स्वास्थ्य के क्षेत्र में ग्रामीण इलाकों की हालत बहुत खराब है। इन इलाकों में झोलाछाप डॉक्टरों की तादाद में भारी इजाफा हुआ है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आँकड़े डरानेवाली तस्वीर दिखाते हैं। इनके अनुसार भारत में एलोपैथिक डॉक्टर के तौर पर प्रैक्टिस करनेवाले एक तिहाई लोगों के पास मेडिकल की डिग्री नहीं है।
चौंकानेवाली एक और बात है, कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बीते साल अपनी एक रिपोर्ट में कहा था, कि भारत में स्वास्थ्य के मद में होनेवाले खर्च का 67.78 प्रतिशत लोगों की जेब से ही निकलता है, जबकि इस मामले में वैश्विक औसत 17.3 प्रतिशत है। रिपोर्ट में कहा गया है कि आधे भारतीयों की आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच ही नहीं है, जबकि स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठानेवाले लोग अपनी आय का 10 फीसदी से ज्यादा इलाज पर ही खर्च कर रहे हैं। संगठन की विश्व स्वास्थ्य सांख्यिकी रिपोर्ट 2020 के अनुसार, भारत में लगभग 23 करोड़ लोगों को 2007 से 2015 के दौरान अपनी आय का 10 फीसदी से अधिक पैसा इलाज पर खर्च करना पड़ा। यह संख्या ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी की संयुक्त आबादी से भी अधिक है।
भारत की तुलना में इलाज पर अपनी आय का दस प्रतिशत से अधिक खर्च करनेवाले लोगों का प्रतिशत श्रीलंका में 2.9 फीसदी, ब्रिटेन में 1.6 फीसदी, अमेरिका में 4.8 फीसदी और चीन में 17.7 फीसदी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक ट्रेडोस एडहानोम गेबेरियस ने एक विज्ञप्ति में कहा, बहुत से लोग अभी भी ऐसी बीमारियों से मर रहे हैं, जिनका इलाज मौजूद है और जिन्हें बड़ी आसानी से रोका जा सकता है।
बहुत से लोग केवल इलाज पर अपनी कमाई खर्च करने के कारण गरीबी में उलझ जाते हैं और बहुत से लोग स्वास्थ्य सेवाओं को ही पाने में असमर्थ हैं। यह अस्वीकार्य है। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट में बताया गया है, देश की आबादी का कुल 3.9 प्रतिशत यानी 5.1 करोड़ भारतीय अपने घरेलू बजट का एक चौथाई से ज्यादा खर्च इलाज पर ही कर देते हैं, जबकि श्रीलंका में ऐसी आबादी महज 0.1 प्रतिशत है, ब्रिटेन में 0.5 फीसदी, अमेरिका में 0.8 फीसदी और चीन में 4.8 फीसदी है। रोटी, कपड़ा और मकान इंसान की बुनियादी जरूरतें भले ही हैं, लेकिन अच्छा स्वास्थ्य और उसे बनाए रखना भी उतना ही जरूरी है, और उसके लिए डाक्टरों की कमी को दूर करना समय की पहली जरूरत है।