अंतिम दिनों जयप्रकाश जी बहुत निराश थे – शिवानंद तिवारी

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यप्रकाश जी की मृत्यु के तीन या चार दिन पहले उनसे मिला था। ऊपरवाले बरामदे में गंगा बाबू यानी गंगाशरण सिंह जी या किशोरी प्रसन्न सिन्हा, इन दोनों में से कोई उनके साथ बैठा था। ठीक से स्मरण नहीं कर पा रहा हूं। लेकिन इतना स्पष्ट याद है कि जेपी जीवन  से बिलकुल निराश हो गए थे। उन्होंने संस्कृत का एक श्लोक कहा और उसका अर्थ भी बताया। उन्होंने कहा कि धुआं निकल रहा है, काश एक ज्वाला प्रज्वलित होती और सब कुछ स्वाहा हो जाता। उसी के बाद मुझे लगा कि जेपी अब ज्यादा चलनेवाले नहीं हैं।

1977 में दिल्ली की सरकार बनने के कुछ ही दिनों बाद जेपी पटना और दिल्ली, दोनों सरकारों से निराश हो गए थे। 1977 में ही किशन पटनायक के नेतृत्व में हम लोगों ने तय किया था कि सामयिक वार्ता के नाम से  एक पत्रिका  पटना से प्रकाशित की जाए।  इसके पूर्व चौरंगी वार्ता के नाम से एक पत्रिका हम लोग यानी लोहिया विचार मंच से जुड़े लोग, कोलकाता से निकाला करते थे। रमेश सिंह जी उसके संपादक थे। किशन जी, अशोक जी, योगेंद्र पाल, राम अवतार उमराव, जमुना दादा, दिनेश दा आदि चौरंगी वार्ता से जुड़े हुए थे। आंदोलन के दरमियान चौरंगी वार्ता एक ढंग से आंदोलन की पत्रिका बन गई थी। जेपी भी उसको बहुत चाव से पढ़ते थे।

तय हुआ कि चौरंगी वार्ता अब सामयिक वार्ता के नाम से पटना से प्रकाशित की जाए और किशन जी उसके संपादक रहें। लेकिन शर्त थी कि अशोक सेकसरिया जी प्रकाशन में सहयोग के लिए कोलकाता से पटना आ जाएं। अशोक जी राजी हुए। उसके बाद प्रकाशन की योजना बनी। लोहानीपुर में पत्रिका के दफ्तर के लिए एक साधारण घर किराए पर लिया गया था। पहले अंक में जेपी का साक्षात्कार छपे, इसकी योजना बनी। जेपी से मिलकर इसके लिए मैंने समय तय किया। किशन जी, अशोक जी के साथ मैं भी तय समय पर महिला चरखा समिति पहुंचा। अधिकांश सवाल  किशन जी ने ही किये। साक्षात्कार के लगभग अंत में  अशोक जी ने जयप्रकाश जी से सवाल पूछा कि दिल्ली या पटना की सरकारें आपसे राय-सलाह करती हैं या नहीं! जेपी ने व्यंग्यात्मक  हंसी के साथ उत्तर दिया कि मुझको कौन पूछता है!

सामयिक वार्ता के पहले अंक में जेपी का वह साक्षात्कार छपा था। मुझे याद है कि उस अंक की कुछ प्रतियां लेकर मैं महिला चरखा समिति पहुंचा था। ऊपर जो बैठक थी जिसमें संचालन समिति की बैठक हुआ करती थी, वहां जितेंद्र बाबू, देवेंद्र बाबू, बिहार सरकार के मंत्री सच्चिदानंद सिंह जी तथा अन्य लोग बैठे हुए थे। सबको वार्ता की एक एक प्रति मैंने दी। सब लोग उसको उलटने पलटने लगे। मैं लोगों की  प्रतिक्रिया जानने के लिए उत्सुक था। इस बीच सच्चिदा बाबू जेपी के साक्षात्कार को पढ़ गए और तुरंत तमक कर उन्होंने मुझसे पूछा तुम लोगों ने इसको कैसे छाप दिया? इसको कर्पूरी ठाकुर जी को दिखाया था!

मेरा पारा तुरंत गरम हो गया। मैंने कहा कि जयप्रकाश जी का इंटरव्यू क्या कर्पूरी ठाकुर जी से सेंसर करा कर  छापना पड़ेगा? इसपर उनका उत्तर था कि तुम लोग समझते नहीं हो, सरकार चलाने में कितनी कठिनाई होती है। मैंने उसी तेवर में उनको जवाब दिया कि सरकार बन गई और आपलोग मंत्री बन गए तो आप समझ रहे हैं कि जिन हजारों-लाखों लोगों के संघर्ष से आप लोगों की सरकार बनी है, उसके विषय में जवाबदेही अब सिर्फ सरकार के मंत्रियों की ही है! बाकी लोगों  को अब सरकार से कोई लेना देना नहीं है? वहां बैठे अन्य लोगों ने बीच-बचाव कर मामले को संभाला।

आज उन महान आत्मा को स्मरण करते हुए उनके अंतिम दिनों की घोर निराशा याद आ रही है। वो  कामना कर रहे थे कि काश, अग्नि प्रज्वलित होती और सब कुछ स्वाहा हो जाता, और सचमुच अगर ईश्वर है तो उसने उनकी सुन ली थी। और सब कुछ स्वाहा हो गया। याद होगा, देश की हालत देखकर अपने अंतिम दिनों में गांधी की भी यही मानसिकता बन गई थी।

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