स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये 13वीं किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पृष्ठभूमि

न 1857 के विद्रोह से बंबई, बंगाल तथा मद्रास के इलाके पूर्णतः अलग रहे। यहाँ अंग्रेजी शिक्षा और सभ्यता का बोलबाला था। परंतु अंग्रेजियत से प्रभावित नेता भी आखिरकार कब तक राजनीतिक आकांक्षाओं से अछूते रहते? धीरे-धीरे वे राजनीतिक संगठन बनाने लगे और उसके माध्यम से जनता की तकलीफों का निराकरण करने के लिए, अपनी दुर्बल ही सही, लेकिन आवाज उठाने लगे। आधुनिक विचारों से प्रभावित ऐसे वर्ग शनैः-शनैः सभी प्रांतों में कम-अधिक मात्रा में बनने लगे। कुछ अंग्रेजी अफसरों के भी तब मन में आया कि यदि हिंदुस्तानियों की आकांक्षा को अभिव्यक्ति देने के लिए कोई वैध मंच, कोई कांस्टीट्यूशनल प्लेटफॉर्म यदि नहीं बनाया जाएगा तो हो सकता है कि कालक्रम में भारतीय समाज में गुप्त असंतोष बढ़ने लगे और 1857 की तरह कहीं फिर उसका विस्फोट न हो जाए। इसलिए ह्यूम, वैडरबर्न जैसे कुछ ख्यातनाम अंग्रेजों ने हिंदुस्तान में इंडियन नेशनल कांग्रेस (भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस) के रूप में एक अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस स्थापित करने का विचार सृजित किया।

1885 में पहली बार हिंदुस्तान के विभिन्न प्रांतों से कुछ पढ़े-लिखे नेता एक जगह एकत्र हुए और उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। भारत के आधुनिक इतिहास में यह एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना थी। पहली बार समूचे हिंदुस्तान के कोने-कोने से, किसी तीर्थयात्रा के लिए नहीं, किसी धार्मिक उत्सव के लिए नहीं, बल्कि धर्म-निरपेक्षता और राजनैतिक उद्देश्यों से प्रेरित आधुनिक विद्वान एक जगह जुटे। यह अनोखा जमघट था। इसमें हिंदू नेता अधिक थे इसमें कोई शक नहीं। लेकिन इस जमावड़े में कुछ प्रमुख पारसी, ईसाई और मुसलमान नेता भी थे। उसके बाद हर साल क्रिसमस की छुट्टियों में यह सालाना जलसा होने लगा। इसमें हिंदुस्तान के शिक्षित लोगों की आकांक्षाओं को प्रकट करनेवाले प्रस्ताव पारित होते थे। प्रशासनिक दोषों पर प्रकाश डाला जाता था, अन्याय का उद्घाटन किया जाता था और मांग की जाती थी कि प्रशासन के उच्च पदों पर शिक्षित भारतीयों की अधिक नियुक्तियां की जाएं।

आई.सी.एस. सेवा का उन दिनों इन शिक्षित लोगों में बड़ा आकर्षण था। इसकी परीक्षाएं इंग्लैण्ड में होती थीं और इसके लिए बहुत कम आयु-सीमा रखी गयी थी। निश्चित रूप से ऐसा इसलिए किया गया था कि भारतीय नौजवान इस परीक्षा में कम-से-कम भाग ले सकें। वस्तुतः होता भी यही था। कम आयु में इंग्लैण्ड जाकर इस परीक्षा और स्पर्धा में पास होना हिंदुस्तानी नौजवानों के लिए मुश्किल हो जाता था। इसलिए इन शिक्षित वर्गों द्वारा ओर आयु-सीमा बढ़ाने की मांग बारंबार होने लगी तो दूसरी तरफ यह भी कि वे परीक्षाएं भारत में ही आयोजित की जाएं।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्यों के मन में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह या विद्वेष की भावना उतनी नहीं थी जितना कि भक्तिभाव था। ब्रिटिश सरकार को मां-बाप सरकार की संज्ञा केवल अशिक्षित और गरीब लोग ही नहीं, ये शिक्षित लोग भी दिया करते थे। अंग्रेजी प्रशासन के प्रति इतनी भक्ति और आकर्षण का सबसे बड़ा कारण यह था कि इस शासन ने हिंदुस्तान के निवासियों को एक लंबे अर्से से चली आ रही और जर्जर कर देनेवाली भयंकर अराजकता से मुक्ति दिलाई थी। मुगल साम्राज्य के पतन-काल में यहां यह अराजकता अत्यधिक बढ़ गयी थी। देश छोटे-छोटे सार्वभौम राज्यों में बँट गया था। कई क्षेत्र निरन्तर लड़ाई और अशांति के शिकार हो गए थे। साधारण रैयत को किसी तरह की राहत नहीं थी। करों का बोझ असह्य हो चला था। जनता पर तरह-तरह के जुल्म ढाए जा रहे थे। परंतु अंग्रेजी हुकूमत आने पर साधारण जनता को ऐसी अराजकता का अंत होता महसूस हुआ। उन्हें लगा कि अब कानून का राज स्थापित होगा, शासक मनमानी नहीं करेगा।

महाराष्ट्र का ही उदाहरण लीजिए। जिस महाराष्ट्र ने मुगल आक्रमण का सफल मुकाबला किया था, शिवाजी के नेतृत्व में न केवल प्राप्त किया था बल्कि उसका काफी विस्तार भी किया था, वहां छत्रपति बाद में केवल नाममात्र के राजा रह गए थे। असली सत्ता पेशवाओं के हाथ में थी, लेकिन अपने अंतिम काल में पेशवाओं के भी हाथ से केंद्रीय सरकार की सारी ताकत निकलकर उनके सरदारों के हाथों में चली गयी थी। पेशवाओं के राज में विशिष्ट ब्राह्मण जातियों को छोड़कर अन्य जातियों पर अत्यधिक जुल्म होते थे। इस बारे में हमने पीछे पढ़ा भी है। फिर भी एक और उदाहरण देना असंगत नहीं होगा।

रामशास्त्री प्रभुणे एक न्यायविद् थे, जो अपवादस्वरूप थे। उन्होंने पेशवा नारायणराव की हत्या के अपराध में पेशवा रघुनाथ राव को मृत्युदंड की सजा फरमाई थी। इतनी बड़ी सजा और वह भी पेशवा को, कैसे बर्दाश्त होती?अतः हुआ यह कि हुकूमत पेशवा रघुनाथराव के हाथ में होने के कारण न्यायाधीश द्वारा दिया गया दंड क्रियान्वित नहीं हो सका। उलटा हुआ यह कि रामशास्त्री प्रभुणे को अवकाश ग्रहण कर पूना छोड़ देना पड़ा। कहने का मतलब यह है कि इस तरह के तौर-तरीकों से लोग तंग आ गए थे। यहां तक कि जब माउंट स्टुअर्ट एलफिंस्टन के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने पश्चिमी महाराष्ट्र पर कब्जा कर लिया तो पेशवाओं के हक में साधारण जनता में कोई तीव्र प्रतिक्रिया नहीं हुई। इस नए विदेशी आक्रमण का विरोध करने के लिए लोग आगे नहीं बढ़े। यही बात पहले बंगाल, मद्रास आदि प्रदेशों में भी हुई थी जो हम देख ही चुके हैं।

अतः कहने का मतलब यह है कि शिक्षित भारतीयों के मन में पुरानी राजसत्ता और पुराने तौर-तरीकों के प्रति कोई भक्तिभाव अथवा आकर्षण नहीं रह गया था। साधारण जनता तो और भी ज्यादा उदासीन थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित शिक्षित वर्ग के मन में बल्कि एक नया विचार घर करने लगा था और वह यह कि हम सभी भारतीय हैं, चाहे हमारा मजहब जो भी हो। हमारी मातृभाषा अलग हो सकती है मगर फिर भी हम एक राष्ट्र के नागरिक हैं। सभी शिक्षित लोग चाहते थे कि हिंदुस्तान की एकता बनी रहे। राष्ट्रीयता की यह भावना उन्हें अंग्रेजी राज से वरदानस्वरूप मिली।

यह तो शिक्षित वर्ग का विचार था। परंतु कुछ अंधश्रद्धालु लोगों में यह विचार फैल गया था कि रामायण काल में राम ने आशीर्वाद दिया था कि आगे चलकर भारत में हनुमान जी के वंशजों का राज होगा। इसलिए वे कहने लगे थे कि सफेद चमड़ी वाले अंग्रेज हनुमान जी के ही वंशज हैं और इनका राज हिंदुस्तान के लिए मुफीद साबित होगा। इस तरह की विचित्र धारणाएं उन दिनों साधारण जनता में प्रचलित थीं।

साधारण जनता में तो इस तरह का अंधविश्वास था। लेकिन शिक्षित भारतीयों के मन में ब्रिटेन की लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति विशेष प्रेम अंकुरित हो गया था। इन शिक्षित लोगों ने अंग्रेजों का इतिहास पढ़ा था। जॉन राजा से 14वीं शताब्दी के अंत में मेग्राकार्टा की सनद जिस तरह हासिल की गयी थी, वह भी उन्होंने पढ़ा था। उन्होंने यह भी अध्ययन किया था कि किस प्रकार इंग्लैण्ड की पार्लियामेंट की ओर से अनियंत्रित राजशाही के खिलाफ एक प्रदीर्घ संघर्ष 17वीं शताब्दी में चलाया गया था। उन दिनों इंग्लैण्ड में बालिग मताधिकार पर आधारित लोकतंत्र तो था नहीं परंतु वहां कानून का राज होना चाहिए व्यक्ति का नहीं…इस तरह की विचारधारा 13वीं शताब्दी से ही बलवती हो गयी थी। प्रशासन चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथ में होना चाहिए, ऐसा ये लोग मानने लगे थे। राजा को ईश्वरीय अंश मानकर मनमाने ढंग से आचरण के पक्ष में वहां के राजपक्ष के लोग भी नहीं थे। अतः पार्लियामेंट वाली पार्टी ने अनियंत्रित और स्वच्छंद प्रशासन के जुर्म में चार्ल्स राजा को फांसी पर लटका दिया था।

भारतीय नव-शिक्षित वर्ग ने इन सारी बातों का अध्ययन किया था। उन्होंने अपने अध्ययन से जाना था कि ब्रिटेन में भी आधुनिक लोकतंत्र सही माने में 19वीं शताब्दी में ही पनपा था। प्रारंभ में यहूदियों को इंग्लैण्ड में कोई राजनीतिक ओहदा नहीं मिला था। रोमन कैथलिक भी राजनीतिक अधिकारों से वंचित थे। इन मुद्दों को लेकर एक लंबा वैचारिक संघर्ष वहां चला था। लेकिन धीरे-धीरे धर्मनिरपेक्षता, राजनीतिक स्वतंत्रता और समानता की कल्पना वहां लोगों में प्रबल होने लगी थी। पहले मध्यम वर्ग को और बाद में साधारण लोगों को वहां मताधिकार मिला था। परंतु धीरे-धीरे इंग्लैण्ड में इतना वैचारिक परिवर्तन हुआ कि 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में डिजरायली जैसे एक यहूदी ने न सिर्फ इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री पद सँभाला, बल्कि उनका शुमार शक्तिशाली प्रधानमंत्रियों में किया जाने लगा।

इन सब बातों को देखने-समझने के बाद अब भारतीय शिक्षित लोगों को यह गैर-जवाबदेह अंग्रेज नौकरशाही का शासन असह्य प्रतीत होने लगा था। उन दिनों ये लोग अपने प्रस्तावों में सीधा हमला ब्रिटिश साम्राज्य या साम्राज्ञी पर नहीं करते थे बल्कि विदेशी नौकरशाही और उसके लोक-विरोधी तौर-तरीकों की ही आलोचना करते थे।

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