सर सैयद अहमद खां ने ‘कौम’ शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में किया है। इंडिया एसोसिएशन, लाहौर द्वारा उन्हें दिए गए मानपत्र के जवाब में 1884 में सर सैयद अहमद खां ने बंगालियों के लिए ‘कौम’ शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने कहा- “मुझे यह मानना पड़ेगा कि हमारे देश में बंगाली एकमात्र ऐसी कौम है जिसके प्रति हम लोग फख्र कर सकते हैं। उनकी वजह से आज हमारे देश में ज्ञान और स्वतंत्रता का विकास हो रहा है और पूरे देश में देशभक्ति की भावना फैल रही है। मैं कह सकता हूँ कि सही माने में बंगाली कौम समूचे देश की भलाई के लिए कार्य कर रही है।”
आगे सर सैयद अहमद खां ‘कौम’ शब्द का इस्तेमाल मुस्लिम समुदाय के लिए करते हैं। 1884 के अपने पंजाब दौरे में सर सैयद अहमद खां ने कहा :‘कौम शब्द का कुछ स्पष्टीकरण करना जरूरी है। एक लंबे अर्से तक कौम शब्द का प्रयोग किसी भी एक गुट के लिए, जिनका कोई समान पुरखा हो या जो एक देश में रहते हों, उनके लिए किया जाता था। लेकिन मोहम्मद पैगंबर ने इस शब्द को एक नया अर्थ प्रदान किया। उसी समय से सभी मुसलमान, चाहे उनका उद्गम जो भी हो, एक ‘कौम’ के सदस्य माने जाने लगे।’ इस भाषण में ‘कौम’ शब्द का प्रयोग उनके द्वारा मुस्लिम संप्रदाय या मुस्लिम समुदाय के लिए किया गया है। लेकिन इस शब्द के सिर्फ ये दो अर्थ नहीं थे। सर सैयद अहमद खां ‘कौम’ शब्द का प्रयोग हिंदुस्तानी कौम के रूप में भी किया करते थे। इसकी पुष्टि के लिए अब मैं तीन उद्धरण देना चाहता हूँ :
“कई सदियों से कौम शब्द एक देश के निवासियों के लिए प्रयोग किया जाता रहा है। अफगानिस्तान के लोग इस अर्थ में एक कौम है, ईरानी लोग भी एक कौम हैं। संक्षेप में ‘कौम’ का माने है किसी देश के बाशिंदे। ऐ हिंदुओं और मुसलमानों, आप किसी दूसरे देश के निवासी हैं या हिंदुस्तान के? क्या मुसलमानों के उसी जमीन में नहीं दफनाया जाता है जिस जमीन पर हिंदुओं का दाह-संस्कार होता है? अगर इस भूमि पर हम जिंदा रहते हैं या मरते हैं तो आपको यह याद रखना चाहिए कि हिंदू और मुसलमान धार्मिक अर्थ में अलग हो सकते हैं, लेकिन अन्यथा हिंदू और मुसलमान और ईसाई (जो इसी मुल्क में रहते हैं) एक ‘कौम’ हैं। जब इन सभी समुदायों के लिए हम लोग एक शब्द का, यानी ‘कौम’ का प्रयोग करते हैं तो इन सबको मिलकर देश की भलाई के लिए काम करना चाहिए।”
आर्य समाज द्वारा उनको जो अभिनंदन पत्र दिया गया था, उसके जवाब में सर सैयद अहमद खां कहते हैं– मेरी राय में ‘हिंदू’ शब्द धर्मवाचक नहीं है। हर हिंदुस्तानी अपने आप को ‘हिंदू’ कह सकता है। लेकिन मुझे अफसोस है कि मेरे हिंदुस्तानी होते हुए भी आप मुझे ‘हिंदू’ नहीं मानते। आपको यह जान लेना चाहिए कि विदेशों की निगाहों में हम सभी ‘हिंदू’ हैं, चाहे धार्मिक अर्थ में हम हिंदू हों या मुसलमान। हम हिंदू हैं, यानी हिंदुस्तानी हैं।
आगे चलकर सर सैयद अहमद खां कहते हैं- “अक्सर मैं सोचता हूँ कि मेरे जैसा आदमी हिंदुस्तान की ओर से लेजिस्लेटिव कौंसिल में बैठने के लायक नहीं है। इस पद के साथ बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। मेरे सामने जो दिक्कतें हैं, उनके बारे में मैं अच्छी तरह जानता हूँ। फिर भी मेरी यह दिली ख्वाहिश है कि मैं अपने मुल्क की ईमानदारी से खिदमत करूं और मेरी ‘कौम’ की भी। ‘कौम’से मेरा मतलब है हिंदू और मुसलमान दोनों की। मैं इसी मिले-जुले अर्थ में ‘नेशन’ या ‘कौम’ शब्द का प्रयोग करता हूँ। मेरी राय में किसी की धार्मिक निष्ठाएं क्या हैं, इसका कोई सवाल नहीं है। सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या हिंदू, क्या मुसलमान दोनों एक भूमि पर रहते हैं, एक ही शासक हमारे ऊपर राज करता है, हम सभी को एक ही किस्म की सुविधाएं प्राप्त हैं और अकाल आदि तकलीफों को हम लोग मिलकर ही झेला करते हैं। इन सब कारणों को लेकर दोनों ‘कौमों’ को मैं हिंदू कहता हूँ या ‘हिंदुस्तानी कौम’ कहता हूँ। मैं लेजिस्लेटिव कौंसिल का सदस्य था तो मैंने पूरे देश के लिए कार्य किया था। मैं अल्लाह से प्रार्थना करता हूँ कि वह हमारे मुल्क पर, कौम पर (उपरोक्त अर्थ में) मेहरबान हो और हमारे देश में ज्ञान का प्रकाश चारों तरफ फैलाए जिससे कि हम और हमारा मुल्क तरक्की कर सके।” उपरोक्त उद्धरण से स्पष्ट होता है कि एक शब्द का प्रयोग, एक ही साथ दो संज्ञाओं के लिए वे कर रहे हैं। इससे क्या भ्रांति उत्पन्न होना अनिवार्य नहीं है?
और एक प्रसंग में सर सैयद अहमद खां ने पूरी ताकत के साथ कहा कि हिंदुस्तान हम दोनों का, हिंदुओं और मुसलमानों का ‘वतन’ है। एक ही हवा हम लोग सूँघते हैं, एक ही गंगा और जमुना का पवित्र पानी पीते हैं और इस जमीन से जो कुछ उत्पन्न होता है उसका उपभोग करते हैं। हम लोग मिलकर जीवन बिताते हैं और मौत का भी सामना करते हैं। अर्से से हिंदुस्तान में रहने के बाद हमारे जिस्म का रंग भी एक जैसा हो गया है। हमारे चेहरे-मोहरे भी समान हैं। हम मुसलमान और हिंदुओं ने एक-दूसरे के सामाजिक रस्मों-रिवाज का आदान-प्रदान किया है। हम लोग एक-दूसरे के साथ इतने घुल-मिल गए है कि हमने मिलकर एक नयी जबान, यानी उर्दू को जन्म दिया है जो हमारी और हिंदुओं की जबान है। (‘मुस्लिम पालिटिक्स इन मार्डन इंडिया’ : मुशीर हक, पृ. 29-30 और 31 तथा सर सैयद अहमद खां, सफरनामा-ए-पंजाब)।
दूसरे एक प्रसिद्ध शायर ‘हाली’ (अल्ताफ हुसैन) की विचार-यात्रा की भी यही कहानी है। इनके विचारों में भी ‘कौम’ शब्द ने बड़ा विचारसंभ्रम पैदा किया। ‘कौम’ शब्द का प्रयोग राष्ट्र और संप्रदाय दोनों अर्थों में उन्होंने भी किया था। अतः उनके विचारों से संदिग्धता उत्पन्न होना अनिवार्य था। प्रारंभ में उनकी दृष्टि में ‘कौम’ शब्द के माने राष्ट्र था, जैसा कि सर सैयद अहमद खां अकसर कहते थे। हाली कहते थे कि एक ‘वतन’ में यानी राष्ट्र में कई कौमें हो सकती हैं, मगर इन ‘कौमों’ को एक कौम बनाना पड़ेगा, समान हिंदुस्तानी कौम के रूप में मिलकर काम करना होगा। इस तरह एकसाथ ‘कौम’ शब्द का दो अलग अर्थों में इस्तेमाल करते हुए हाली भी दिखाई देते हैं। जब तक हम हर हिंदुस्तानी को, चाहे वह मुसलमान हो, हिंदू हो, बौद्ध हो या ब्रह्मोसमाजी हो, प्रिय नहीं समझेंगे, तब तक हम सही माने में देशभक्त कहलाने के हकदार नहीं हैं। ऐसी हाली साहब की राय थी। हाली ने कहा कि कौम एक दरख्त की तरह है। उसका परिवार पत्तों की तरह है। जब तक इस दरख्त का मूल मर नहीं जाता है, तब तक उसकी शाखाएं उसके पत्ते हरे-भरे रहेंगे। दरख्त के मूल से उनका आशय जमीन, भूमि से है– यानी मुल्क– जिसकी रक्षा केवल एकता के जरिए ही की जी सकती है। (‘मुस्लिम पालिटिक्स इन मार्डन इंडिया 1857-1946’ : मुशीर हक, पृ. 34-35)।
लेकिन समय के साथ सर सैयद अहमद खां की तरह हाली के विचारों में भी परिवर्तन हो गया और उन्होंने एक-राष्ट्रीयता के आदर्श को, हिंदुस्तानी कौम की कल्पना को तिलांजलि दे दी।