यह है न्यू इंडिया, जहॉं गैर-बराबरी दुनिया में सबसे ज्यादा है

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— रिचर्ड महापात्र —

क भारतीय व्यक्ति अगर महीने में 25 हजार रुपये कमाता है तो वह देश के शीर्ष दस फीसदी कमाने वालों में शामिल माना जाएगा। मौजूदा सरकारी आंकड़ों का इस्तेमाल कर इंस्टीट्यूट फॉर कॉम्पिटिटिवनेस ने हाल ही में ‘स्टेट ऑफ इनइक्वलिटी इन इंडिया’ रिपोर्ट में ऐसा कहा है।

ऐसा लगता है कि देश में असमानता की जड़ों की ओर उंगली न उठानी पड़े, इसलिए रिपोर्ट में यह चेतावनी भरी टिप्पणी की गयी है – ‘अगर 25 हजार जैसी राशि शीर्ष दस फीसदी कमाने वालों में शामिल है, तो सबसे नीचे यानी हाशिये पर रहनेवाले लोगों की स्थिति की कल्पना भी नहीं की जा सकती।’

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएसी) ने यह अध्ययन अपनी देखरेख में कराया है जो दिखाता है कि देश में सबसे अमीर और सबसे गरीब के बीच फासला कितना बड़ा है और यह बढ़ता ही जा रहा है।

सबसे ज्यादा कमानेवाले शीर्ष एक फीसदी लोगों की आय 2017-18 और 2019-20 के बीच 15 फीसदी बढ़ी, जबकि सबसे कम कमानेवाले दस फीसदी लोगों की आय में एक फीसदी की गिरावट दर्ज की गयी। निष्कर्ष के तौर पर इस रिपोर्ट का सार है – आर्थिक वृद्धि के लिए ट्रिकल-डाउन थ्योरी की नाकामी।

सवाल यह है कि अगर संपत्ति का रिसाव नीचे की ओर नहीं हो रहा तो उनका क्या होगा, जो इस पिरामिड में सबसे नीचे पाए जाते हैं। क्या वे कभी ऊपर चढ़ सकेंगे, यहॉं तक कि कभी 25 हजार महीना कमाने की महत्वाकांक्षा पाल सकेंगे, जिसे शीर्ष दस फीसदी कमाने वालों में गिना जाता है?

गरीब का बच्चा गरीब ही रहेगा?

पिछले साल विश्व असमानता रिपोर्ट ने पाया था कि – ‘भारत गरीब और सबसे ज्यादा असमानता वाले देशों के बीच खड़ा है जबकि यहॉं महत्त्वपूर्ण संख्या में सम्पन्न लोग भी हैं।’ इसमें भारत को दुनिया का सबसे ज्यादा असमानता वाला देश बताया गया था।

इस रिपोर्ट के प्रमुख लेखक लुकास चांसेल ने बातचीत में मुझसे कहा था कि भारत में आधी से ज्यादा आबादी ऐसे लोगों की है, जिनके पास गिनाने लायक किसी तरह की संपत्ति नहीं है। यह बिल्कुल वैसा होगा कि एक अरबपति का बच्चा ही संपत्ति अपने पास रखेगा, जो उसकी समृद्धि को आगे बढ़ाने के लिए महत्त्वपूर्ण पूंजी होगी।

उन लोगों के लिए, जिनके पास किसी तरह की संपत्ति नहीं है, उनके बच्चे भी गरीब बने रहेंगे और तरक्की नहीं कर पाएंगे। उन्होंने मुझसे कहा था- ‘भारत में लोग विरासत के माध्यम से पीढ़ियों तक धन जमा करते रहते हैं। यह स्नोबॉल प्रभाव की तरह है, जो एक के बाद दूसरे के हाथ में स्थानांतरित जाती है। यही वजह है कि अमीर वर्ग की संपत्ति तेजी से बढ़ती है। हालांकि इससे लोगों के बीच एक खाई भी पैदा होती है।’

25 सालों में एक रुपया तक जमा नहीं कर सका

1996 से मैं देश के दूरस्थ जिलों में से एक ओड़िशा के कोरापुट के रहनेवाले 57 साल के सुकरु ओझा की जिंदगी पर नजर रख रहा हूं। मैं उनसे 1996 में कोरापुट में आए भयंकर सूखे की रिपोर्टिंग के दौरान मिला था।

वह उन पचास फीसदी भारतीयों में शामिल हैं, जिनके पास किसी तरह की संपत्ति नहीं है। उन्हें अपने माता-पिता से कुछ नहीं मिला। यकीनन, उन्हें जीवन का संवैधानिक अधिकार भी विरासत में नहीं मिला है।

जब वह बच्चे थे, तभी भूख से बचने के लिए अपने गांव से शहर आ गए थे। किसी तरह उन्हें कस्बे जैसे जिला मुख्यालय में कुछ दिनों के लिए दिहाड़ी मजदूर का काम मिला। उसके बाद से यही सिलसिला चला आ रहा है।

पिछले 25 सालों में उनकी कुल कमाई शून्य से ज्यादा नहीं है। अगर महीने में ठीक से काम मिले तो वह दो हजार रुपये कमा पाते हैं। महामारी के पिछले दो साल में उन्होंने केवल चावल और अचार के टुकड़े पर गुजारा किया है और अब वह खाने-पीने की चीजों के दाम बढ़ने यानी महंगाई रूपी महामारी की चपेट में हैं।

19 मई को मेरी उनसे बात हुई तो वह बोले- ‘आज की तारीख में मैं एक किलो चावल भी नहीं खरीद सकता, जो मुझे पसंद है और जिससे मेरा पेट भर सके।’ अगर महंगाई के हिसाब से उनकी पूरी जिंदगी की आमदनी का विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि उस आदमी के पास एक रुपया तक नहीं है, कोई जमा-पूंजी नहीं, जिसे वह खर्च कर सके।

महामारी और लाॅकडाउन ने फिर से गरीबी के नरक में धकेला

मैंने उनसे पूछा- आपको उम्मीद है कि आगे कभी कुछ कमा सकोगे? क्या महीने में 25 हजार कमाने के बारे में सोचते हो? इस पर उनका कहना था- ‘मैं कभी इतना कमा पाने के बारे में सोच भी नहीं सकता। आगे कमाने के लिए मेरे पास कोई बुनियाद ही नहीं है। उम्र बढ़ने के साथ काम करने की मेरी क्षमता कम होती जा रही है, मेहनत करने के अलावा मैं और कर भी क्या सकता हूं।’

पिछले साल जब मेरी उनसे बात हुई तो उन्होंने बताया था कि महामारी और लाॅकडाउन ने फिर से उन्हें गरीबी के नरक में धकेल दिया है। उन्होंने कहा था कि मैं अपने हालात को बयां नहीं कर सकता। पिछले एक साल में खाद्य-महंगाई दर दोगुने से ज्यादा बढ़ चुकी है।

हाल ही में विश्व बैंक के एक अनुमान से पता चलता है कि खाद्य कीमतों में एक फीसदी की वृद्धि भी एक करोड़ लोगों को भयंकर गरीबी के दलदल में धकेल देगी। ये एक करोड़ लोग वही होंगे, जो आमदनी के पिरामिड में सबसे नीचे हैं।

इसका मतलब यही है कि वे अपने और अमीर के बीच की संपत्ति की खाई को कभी नहीं भर सकेंगे, क्योंकि जिन हालात में वे जी रहे हैं, वे पूरी तरह उनके खिलाफ हैं।

(डाउन टु अर्थ से साभार)

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