लेकिन इसी बीच कांग्रेस में एक नया नेतृत्व उभर आया। जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए थे और उन्होंने स्वराज्य के उद्देश्य की कक्षाएं विस्तृत करने का प्रयास किया। संपूर्ण स्वराज्य का नया प्रस्ताव कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पास हुआ। समाजवाद का नारा कांग्रेस मंच से उन्होंने दिया। चूंकि उनके ऊपर धर्मनिरपेक्षता तथा समाजवादी विचारों का प्रभाव था, आर्थिक प्रश्नों को वे विशेष महत्त्व देते थे। उनकी राय में हिंदू-मुसलमानों का कोई खास अलग सवाल नहीं था। वे मानते थे कि यह मसला कुछ धर्मपरस्त और स्वार्थी तत्त्वों द्वारा उठाया गया है। भविष्य में आर्थिक और सामाजिक कार्यक्रमों के आधार पर हिंदू-मुसलमान श्रमिक जनता एक हो जाएगी, यह उनकी मान्यता थी। और यह भी कि महत्त्वपूर्ण समस्या सांप्रदायिक (कम्युनल) नहीं, बल्कि आर्थिक है। हिंदू-मुसलमान प्रश्न के बारे में वस्तुनिष्ठ दृष्टि से उन्होंने कभी विचार नहीं किया।
कांग्रेस द्वारा एक प्रगतिशील आर्थिक कार्यक्रम स्वीकारना और जमींदारी-उन्मूलन के लिए जवाहरलाल नेहरू ने विशेष प्रयास किया, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन सांप्रदायिक प्रश्न की गंभीरता कांग्रेस अध्यक्ष के नाते उन्होंने अच्छी तरह नहीं समझी। वे उसका सही मूल्यांकन नहीं कर सके। केवल सैद्धांतिक दृष्टि से मुसलमानों के सही हित का वे विश्लेषण करते थे। जिन्ना साहब के बारे में उनकी राय अच्छी नहीं थी। जिन्ना को वे एक प्रतिक्रियावादी और मध्ययुगीन विचारधारा का व्यक्ति समझते थे। सर स्ट्रेफोर्ड क्रिप्स को 1938 में लिखे एक पत्र में उन्होंने लिखा था, “जिन्ना साहब एक अनाड़ी व्यक्ति हैं। एक विधिविद् के नाते उनमें कुछ योग्यता जरूर है, लेकिन आधुनिक दुनिया और आधुनिक विचारधारा को समझने की उनमें बिल्कुल शक्ति नहीं है।” इस पत्र में ही नहीं, बल्कि समय-समय पर अगले सात-आठ वर्ष जवाहरलाल यही कहते रहे थे।
9 अगस्त 1942 से लगभग तीन साल तक अहमदनगर किले में नेहरूजी बंद रहे थे। उन दिनों वे अपनी डायरी लिखा करते थे। उनमें उनके विचार संकलित हैं। उनकी इन संकलित कृतियों का 13वां खण्ड अभी हाल में ही प्रकाशित हुआ है। इसके अध्ययन से पता चलता है कि जब भी वह हिंदू-मुसलमान समस्या पर या जिन्ना साहब के भाषणों पर सोचते थे तो एक चिड़चिड़े ढंग से ही सोचते थे। एक जगह तो उन्होंने स्पष्ट ही कहा है : “पाकिस्तान की मांग को कबूल कर या उनकी अन्य मांगों को कबूल कर हमें इस प्रश्न को इस तरह हल करना चाहिए कि जिससे हमेशा के लिए जिन्ना की दखलंदाजी भारतीय राजनीति और प्रशासन में खत्म हो जाए तथा हमलोग इनके उलझन वाले दिमाग और अहं से पूर्णतया मुक्त हो जाएं।”
जवाहरलाल के मन से निकले इन विचारों से पता चलता है स्वतंत्र भारत में वे किसी भी दूसरे देश के साथ न साझेदारी चाहते थे, न उनके साथ समानता या बराबरी का व्यवहार करना चाहते थे। स्पष्ट बात है कि यदि जिन्ना और नेहरू एकसाथ एक सरकार में होते तो किसी भी हालत में जिन्ना साहब दूसरे दर्जे का स्थान लेकर या जवाहरलाल के अधीनस्थ बनकर नहीं रहते। जिन्ना के साथ मिलकर काम करने की नेहरू की जरा भी इच्छा नहीं थी। हां, लेकिन जवाहरलाल हमेशा अपनी इस मनोदशा पर समाजवाद और प्रगतिशील विचारधारा का मुल्लमा चढ़ाते रहते थे। इसके पीछे भी एक दूसरे किस्म का अहं छिपा हुआ था। जिन्ना का अहं भी कम नहीं था। एक माने में जिन्ना साहब का अहं और कांग्रेसी नेतृत्व यानी जवाहरलाल नेहरू के अहं का टकराव हुआ और पाकिस्तान के लिए जिस ‘अवास्तविक’ और ‘अव्यावहारिक’ जैसी संज्ञाओं का जवाहरलाल प्रयोग करते थे, वही पाकिस्तान देखते-देखते कुछ ही वर्षों के अंदर साकार हो गया।
पाकिस्तान के बारे में सबसे पहले अधिकृत प्रस्ताव मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में मार्च 1940 में पास हुआ। विश्व के इतिहास में अद्भुत बातें भी घटती हैं जिनमें से यह भी एक थी। यह प्रस्ताव पारित होने के दो वर्ष बाद लाहौर प्रस्ताव को सिद्धांततः क्रिप्स योजना में (1942) स्वीकार किया गया। फिर चार वर्ष बाद बंटवारे के सवाल पर गांधीजी ने जिन्ना से लंबी बातचीत शुरू की और महज सात वर्षों के पश्चात्, यानी अगस्त 1947 में भारत और पाकिस्तान नामक दो राज्यों के रूप में संयुक्त हिंदुस्तान का बंटवारा ‘संपन्न’हुआ।
जिन्ना चाहते थे कि अपना अलग राज्य बनाकर उसका सुल्तान बन जाएं। नेहरू-पटेल भी चाहते थे कि खंडित भारत ही सही, हमें राज करने को कुछ तो मिलेगा। यह दोनों पक्षों की महत्त्वाकांक्षा थी, दोनों में सहयोग और सह-अस्तित्व की भावना नहीं। जो बात 1928 में स्पष्ट दिखाई दी थी, 1936-37 में जो फिर स्पष्ट हुई, वही बात 1946 के कैबिनेट मिशन प्लान, त्रिमंत्री योजना के समय भी अभिव्यक्ति हुई। द्विराष्ट्रवाद का जहर केवल मुसलमानों में ही नहीं बल्कि कुछ हिंदू नेताओं में भी घर कर गया था। उदाहरण के लिए सावरकर साहब ने हिंदू महासभा के मंच से अपने अध्यक्षीय भाषण में 1937 में कहा था : “हिंदुस्तान को एक सूत्र में बंधा हुआ और एकरस राष्ट्र नहीं माना जा सकता है, बल्कि उसमें दो राष्ट्र हैं। मुख्यतः दो हैं, एक है हिंदू और दूसरा है मुसलमान।”
“इंग्लैण्ड में लेबर पार्टी की जीत के बाद लेबर पार्टी की सरकार ने 1946 में अपने तीन मंत्रियों को भारत भेजा था। इन मंत्रियों से कहा गया था कि विभिन्न भारतीय नेताओं से बात करके वे स्वतंत्र भारत के लिए एक संविधान के मौलिक तत्त्वों का ऐसा मोटा प्रारूप बनाएं जिसको हिंदुस्तान के प्रमुख दल, प्रमुख समुदाय कबूल कर लें। ये तीन मंत्री थे – पैथिक लारेंस, सर स्ट्रेफोर्ड क्रिप्स और अलैक्जेंडर। ये तीनों वहां काबिना स्तर के मंत्री थे। उन्होंने कांग्रेस, मुस्लिम लीग और अन्य दलों के नेताओं-प्रतिनिधियों से बातचीत करके एक योजना बनायी। मुस्लिम लीग की संपूर्ण स्वतंत्र और सार्वभौम पाकिस्तान की मांग यानी हिंदुस्तान के विभाजन की मांग को तो उन्होंने ठुकरा दिया, साथ ही साथ जिस संघ राज्य की प्रस्तावना 8 अगस्त 1942 के कांग्रेस के अधिवेशन में पारित की गई थी उसको भी उन्होंने त्याज्य ठहराया। उनका सुझाव यह था कि पश्चिमोत्तर भारत के मुस्लिम बहुसंख्यक प्रांतों को एकत्रित करके उनका एक गुट बनाया जाए और उस गुट को अपना विभागीय संविधान बनाने की छूट दी जाए। इसी प्रकार पूर्वोत्तर भारत के दो राज्यों का अलग गुट बन जाए, असम और बंगाल का, जिसमें मुसलमानों की अक्सरियत रहती। इन गुटों का संविधान बनने तथा उसके तहत प्रथम चुनाव होने के बाद किसी भी प्रांत या राज्य को अपने गुट से अलग होने की छूट का भी उसमें प्रावधान था। उसके पहले नहीं बल्कि बाद में।
असम में मुसलमान अल्पसंख्या में थे, फिर भी असम को बंगाल के साथ जोड़कर गुट बनाने की योजना से असम के हिंदुओं में भयंकर असंतोष उत्पन्न हुआ। इसको लेकर एक ओर कांग्रेस और दूसरी ओर मुस्लिम लीग तथा ब्रिटिश सरकार में भी तीव्र मतभेद हो गए। मुस्लिम लीग को पाकिस्तान की योजना छोड़ने के लिए तैयार करने की दृष्टि से एक माने में यह सब-फेडरेशन (उप संघराज्य) का लालच दिया गया था। उन्हें कहा गया कि पूरा बंगाल और असम लेकर संतुष्ट रहो। इस गुट में पूरा मुसलमानों का बहुमत रहेगा अतः औपचारिक ढंग से पाकिस्तान मत मांगो।
जहां गुटों की योजना पाकिस्तान की मांग करनेवाली मुस्लिम लीग के लिए एक दिलासा देनेवाली बात थी, वहां यह गुट की योजना सीमावर्ती राज्य, खुदाई खिदमतगारों तथा असम के हिंदुओं के मन में एक आशंका पैदा कर रही थी। उनके लिए यह एक खतरे की घंटी थी। असम प्रदेश कांग्रेस कमेटी इस योजना को मानने के लिए कतई तैयार नहीं थी। वे ऐसा मानते थे कि पूर्वोंत्तर गुट में उनको जबरदस्ती बंगाल के साथ जोड़कर उन्हें एक माने में भावी पाकिस्तान का अंग बनने के लिए मजबूर किया जा रहा है। इसलिए असम में कांग्रेसजनों की यह मांग थी कि गुट में रहने या न रहने का निर्णय करने की छूट गुट संविधान के तहत पहला चुनाव होने के बाद नहीं बल्कि प्रारंभ में उन्हें दी जाए ताकि वे पहले ही नकारात्मक निर्णय कर सकें। इतना ही नहीं, इस आशय का प्रस्ताव भी असम विधानसभा ने पास किया।
जुलाई 1946 में बंबई में आल इंडिया कांग्रेस कमेटी की जो बैठक हुई थी, उसमें उपरोक्त तीन मंत्रियों के संविधान के प्रारूप को अपने संशोधनों के साथ स्वीकार करने का निर्णय ए.आई.सी.सी. ने किया था।
इस पूरी योजना का सिद्धांततः विरोध समाजवादियों ने अवश्य किया, मगर फिर भी अखिल भारतीय कांग्रेस ने इस पर अपनी मोहर लगा दी। इसके तुरंत बाद जवाहरलाल नेहरू ने एक पत्रकार सम्मेलन में एक प्रश्न के उत्तर में कहा : “त्रिमंत्री योजना के अंतर्गत यह जो गुटों संबंधी प्रावधान है, उसके प्रति हम लोग प्रतिबद्ध नहीं हैं। इसको हमने कबूल नहीं किया है। जब हम लोग संविधान निर्मात्री परिषद में जाएंगे तो स्वतंत्र रूप से जाएंगे, हमारे ऊपर किसी तरह का प्रतिबंध या किसी तरह की रोक नहीं रहेगी। हर प्रांत को यह निर्णय करने का अधिकार होगा कि उसको गुट में जाना है या नहीं जाना है।”
इस वक्तव्य को लेकर मुस्लिम लीग में बड़ा प्रक्षोभ हुआ और उन्होंने ब्रिटिश सरकार से अनुरोध किया कि अब चूंकि कांग्रेस पार्टी ने ब्रिटिश सरकार की योजना का जो मूल आधार है, उसकी जो बुनियाद है उसी को ही नकारा है, इसलिए कांग्रेस पार्टी ने त्रिमंत्री योजना को स्वीकार कर लिया है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। अतः हमें हमारा पाकिस्तान मिलना चाहिए। त्रिमंत्री योजना में गुट वाले प्रावधान को लेकर महात्मा गांधी और इन तीनों मंत्रियों के बीच भी काफी विवाद हुआ। इसके दौरान महात्मा गांधी ने सुझाव दिया था कि गुट के संविधान के बारे में हमारा और केबिनेट मिशन का जो भाष्य है उसपर फैसला करने का काम फेडरल कोर्ट पर छोड़ दिया जाए। इस बात के लिए जिन्ना बिल्कुल तैयार नहीं थे। हिंदुस्तान की एकता को बनाए रखने की यह आखिरी कोशिश यानी कैबिनेट मिशन की यह योजना भी इस तरह असफल सिद्ध हो गई।
मौलाना अबुल कलाम आजाद ने इस बात को लेकर जवाहरलाल और कांग्रेसी नेताओं को दोष दिया है। दूसरे कई लेखकों ने जवाहरलाल के जुलाई, 1946 के पत्रकार सम्मेलन में दिए गए ‘गैर जिम्मेदाराना’ वक्तव्य की आलोचना की है और कहा है कि वक्तव्य द्वारा जान-बूझकर इस समझौते को ठुकराया। लेकिन ऐसा कहना और सोचना अर्ध सत्य है। जैसा कि पहले कहा गया है क्या असम कांग्रेस, क्या जवाहरलाल, क्या महात्मा गांधी, क्या सरदार पटेल सभी वास्तव में गुट योजना को तहेदिल से मानने के लिए तैयार नहीं थे। यह जन्म से ही मरा हुआ बच्चा था।