दिल्‍ली में ये भी हैं और वे भी हैं

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— राजकुमार जैन —

कोरोना के हमले से जान गंवाने या उसकी दहशत में जीने को बेबस दिल्‍ली के बाशिंदों की दास्‍तान का इजहार शब्‍दों से करना तो अब नामुमकिन लगता है। हर वक्‍त आशंका बनी रहती है कि कहीं से कोई गमी की खबर न आ जाए।

ऐसे माहौल में, जब जनता को डॉक्‍टरों और सरकारी महकमों की ओर से लगातार हिदायत दी जा रही है कि घर से हरगिज बाहर न निकलें, आदमी अपने सबसे प्‍यारे इंसान से साफगोई और बेरुखी से दूरी बरतने के लिए मजबूर है।

लेकिन एक दूसरा मंजर भी दिल्‍ली में देखने को मिल रहा है। धन्‍य हैं बाबा नानकदेव की फौज के सिपाही। जब अपना सगा किनाराकशी कर रहा है, ये जिस शिद्दत और दानवीरता से व बेखौफ होकर आज दिल्‍लीवालों की खिदमत कर रहे हैं वह बेजोड़ है। 84 के नरसंहार को झेलने के बावजूद कोरोना से घिरे हुए इंसानों को बिना, उनकी जात, मजहब पूछे, गुरुद्वारों में लंगर की बात को छोड़ो, घर-घर जाकर कोरोना बीमारों को लंगर पहुँचा रहे हैं। गुरुद्वारों द्वारा जरूरतमंदों को मुफ्त दवाई, जहाँ तक बन सके इलाज करवाने और यहाँ तक कि कहीं-कहीं ऑक्‍सीजन लंगर तक भी दे रहे हैं। गुरुद्वारा बाला साहिब और बंगला साहिब में केवल पचास रुपये में सी.टी. स्‍कैन, मुफ्त में डायलिसिस करने जैसे जो अनेक काम इस खौफनाक माहौल में कर रहे हैं उसको कैसे भुलाया जा सकता है। दिल्‍ली के मुसलमान भी अपने इंसानी फर्ज को निभाने में उसी शिद्दत से जी-जान से जुटे हैं।

पिछली कोरोना लहर में जब गरीब-गुरुबा, मजदूर, मजबूर होकर दिल्‍ली छोड़कर, घर वापिसी के लिए सड़कों पर सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलते हुए, पुलिस के डंडे खाते, खदेड़े जाने से पस्‍त थे तो मैंने मुसलमान अक्‍सीरियत वाले इलाकों में देखा कि रमजान के महीने में रोजे में खुद मामूली खाकर रोजा खोल कर अपनी हैसियत के मुताबिक गरीब लोगों में बांटकर अपनी फर्ज अदायगी की थी। आज भी उसी जज्‍बे से, बिना मजहब जाने, जुटे हुए हैं। रमजान के दिनों में अपने रिश्‍तेदारों, दोस्‍तों के साथ इफ़तार की दावतों पर दिल खोलकर जो पैसा खर्च करते थे वे अब जरूरतमंदों पर खर्च कर रहे हैं।

आज दिल्‍ली में, एक अदद आक्‍सीजन सिलिंडर पाने के लिए कोरोना के शिकार इंसानों के घर वाले मारे-मारे फिर रहे हैं। अस्‍पतालों ने कह दिया कि अगर आप अपने मरीज की जान बचाना चाहते हो तो आक्‍सीजन का इंतजाम करो वरना अपने मरीज को ले जाओ। ऐसी बेबसी के माहौल में लोग मुंहमांगी कीमत पर एक ऑक्‍सीजन सिलिन्‍डर पाने के लिए भाग-दौड़ कर रहे हैं।

आज मुझे अकि़ल्‍लीयत के इन देशभक्‍तों के त्‍याग की मिसाल देखने को मिल रही है। मेरे समाजवादी मित्र तुलसी शर्मा कोरोना संक्रमित होकर किसी तरह एनसीआर के एक अस्‍पताल में दाखिल हो गए, पर अस्‍पताल वालों ने साफ-साफ कह दिया कि या तो फौरन ऑक्‍सीजन का इंतजाम करो वरना कहीं और जाओ, हम इसमें अब कुछ नहीं कर सकते। पता लगने पर मैंने अपनी पूरी ताकत से आक्‍सीजन का इंतजाम करने की कोशिश की पर नाकाम रहा।

साथी प्रदीप को सुबह सुबह कहा कि किसी तरह एक खाली सिलिंडर का इंतजाम करो। प्रदीप सुबह 8 बजे से ऑक्‍सीजन की तलाश में जहां-जहां पर ऑक्‍सीजन मिलने की सूचना मिल रही थी वहां-वहां दौड़ते रहे। आखिर में पता चला कि गाजियाबाद में मिल रही है। भूखे-प्‍यासे वहां जाकर लाइन में लग गए। तीन बजे पुलिसवाले ने आकर कहा आक्‍सीजन खत्‍म हो गई, रात को 12 बजे शायद आक्‍सीजन पहुँचेगी। फोन पर मायूसी से पल-पल इन सूचनाओं को सुन रहा था।

फिर दिमाग में आया, हमारे दलित सोशलिस्‍ट साथी राकेश कुमार जो जामा मस्जिद विधानसभा के एक हलके से म्‍यूनिसिपल कौंसलर है, उनको इत्तला की, उन्‍होंने कहा आप फिक्र न करें। राकेश ने बताया कि उनके इलाके के कुछ मुसलमान भाई जो दस्‍तकार हैं, कबाड़ी हैं, वे दिल्‍ली के बाहर से अपनी जेब से पैसे खर्च करके आक्‍सीजन लाकर, मुफ्त में जरूरतमंदों की मदद कर रहे हैं। उनका कहना है कि जो जकात (अपनी नेक कमाई के एक हिस्‍से को दान में देने की परंपरा) हम ईद के दिन करते हैं उस फर्ज अदायगी को पहले ही करने की कोशिश कर रहे हैं।

साथी प्रदीप सिलिन्‍डर भरवाने गए। सिलिंडर भरने पर जब प्रदीप ने कहा, भाई-जान कितने रुपये देने हैं तो उन्‍होंने कहा, भाई कैसी बात करते हो, हमें एक दिन अल्‍लाह को जवाब देना है। बस अल्‍लाह से यही दुआ करता हूँ कि आपका मरीज ठीक हो जाए।

रात को चालीस किलोमीटर जाकर साथी राकेश ने जब अस्‍पताल में ऑक्‍सीजन सिलिंडर पहुँचा दिया तब जाकर चैन पड़ी।

कोरोना बीमारी में ‘प्‍लाज्मा’, बीमार रह चुका आदमी अपने खून से देता है। कभी-कभी बीमार आदमी के लिए यह बेहद जरूरी होता है। उसके दानदाताओं की फेहरिश्‍त में भी दिल्‍ली के मुसलमान अव्‍वल हैं। एक तरफ ये लोग हैं, दूसरी तरफ हिंदू-मुस्लिम नफरत फैलानेवाले भजन मंडली के पाखंडियों के संगी-साथी, ऐसे गमगीन माहौल में आपदा को अवसर मानकर लूटने में लगे हैं।

मेरे एक जानकार जो दिन-रात मुसलमानों को गद्दार बताते रहते हैं आजकल मास्‍क बनाने के धंधे में लगे हैं। चौगुनी कीमत पर होलसेल में मास्‍क बेच रहे हैं। मैंने जब उनसे कहा, आपके मास्‍क की कीमत ज्यादा नहीं है क्‍या? तो उन्‍होंने फरमाया अजी, यह तो व्‍यापार है। आज बाजार में थोड़ी तेजी है तो दो पैसे कमा लें, कल मंदा भी तो आ सकता है। उन्‍होंने आगे कहा, आपको नहीं पता, पहले ही ब्‍याज-बट्टे, किराये की आमदनी आधी रह गयी है। हमें भी तो अपने बच्‍चों की चिंता करनी है!

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