स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : 26वीं किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

1936-37 की भांति 1946 में भी हिंदू-मुसलमानों की समस्या का समाधान निकालने के जो प्रयास किए गए उनको कांग्रेसी नेतृत्व ने एक माने में तहस-नहस किया था। मुस्लिम लीग के साथ भारतीय एकता के हित में समझौता करने के लिए जो मनोभूमिका होनी चाहिए थी, वह 1916 के पश्चात् कांग्रेस ने कभी नहीं दिखाई। 1936 तक हिंदू समाज पर कांग्रेस का पूर्णतया प्रभाव जम चुका था हालांकि कांग्रेस हमेशा कहती थी कि वह केवल हिंदुओं का प्रतिनिधित्व नहीं करती है, किसी वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व नहीं करती है, बल्कि वह पूरे राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है। लेकिन व्यवहार में कांग्रेस को जो जन-समर्थन प्राप्त था वह समर्थन साधारणतः हिंदुओं तक ही सीमित था। 1937 के चुनावों में जहां मुसलमान चुनाव क्षेत्रों में मुस्लिम लीग को विशेष सफलता नहीं मिली थी, वहां यह भी याद रखना चाहिए कि कांग्रेस को भी मुसलमान चुनाव क्षेत्रों में बिलकुल ही समर्थन नहीं मिला था। मुश्किल से दो-तीन कांग्रेसी सदस्य जीतकर आए थे। लेकिन यह सही है कि उस समय पश्चिमोत्तर सीमावर्ती प्रांत में डॉ. खान साहब और बादशाह खान के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी को मुसलमानों का अच्छा समर्थन मिला था। लेकिन सांप्रदायिक तनाव और दंगों का वहां दौर चल जाने के कारण यह समर्थन भी बाद में कम होने लगा।

कांग्रेस पार्टी ने जब विभाजन की योजना कबूल की तो उसका स्पष्ट मतलब था कि पाकिस्तान बनने के बाद पश्चिमोत्तर सीमावर्ती राज्य को भी उसका एक हिस्सा बनना पड़ेगा। जब कांग्रेस ने सीमावर्ती प्रांत के बारे में अपनी स्वीकृति दी कि रायशुमारी द्वारा फैसला किया जाए तो मन ही मन वह अच्छी तरह समझती थी कि वह सीमावर्ती राज्य की बलि चढ़ा रही है, डॉ. खान साहब और बादशाह खान को जिन्ना साहब के हवाले कर रही है।

कांग्रेस पार्टी को 1937 के चुनावों के बाद पता चला कि मुसलमानों का उन्हें ज्यादा समर्थन हासिल नहीं है। मगर मुस्लिम लीग की दुर्बलता का उन्होंने गलत अर्थ निकाला। न उन्होंने यूनियनिस्ट पार्टी, कृषक प्रजा पार्टी आदि दलों से स्थायी समझौता किया, न मुस्लिम लीग की सत्ता में साझेदारी दी। इस बीच पाकिस्तान की मांग सामने आयी और मुस्लिम लीग मुस्लिम राष्ट्रवाद के नाम पर तीन-चार वर्षों के अंदर एक शक्तिशाली संस्था बन गयी। 1945 में केंद्रीय विधानसभा के चुनाव हुए और 1946 में प्रांतीय असेंबलियों के। केंद्रीय चुनावों में मुस्लिम लीग का पलड़ा अत्यंत भारी रहा। विधानसभा चुनावों में भी सीमावर्ती प्रांत को छोड़कर अब मुस्लिम लीग अत्यंत प्रभावशाली हो गयी। ऐसी स्थिति में कांग्रेस पार्टी ने एक माने में मुस्लिम लीग को सत्ता में हिस्सेदारी देकर संयुक्त हिंदुस्तान के ढांचे को किसी तरह बनाए रखने की बजाए इस बात को श्रेयस्कर समझा कि मुस्लिम बहुसंख्यक इलाके हिंदुस्तान से काटकर अलग कर दिए जाएं और किसी तरह जिन्ना साहब और मुस्लिम लीग से पिंड छुड़ाया जाए।

इस विश्लेषण का, इस विवचेन का यही तात्पर्य है कि जहां पृथकतावादी प्रवृत्ति मुसलमानों में जोर मार रही थी, वहां हिन्दू भी एक केंद्रानुगामी ढांचे का निर्माण करना चाहते थे जिसमें उनका किसी के साथ समानता के आधार पर साझेदारी करने की जरूरत न पड़े। अपनी इच्छा के अनुसार, अपने मन के मुताबिक राजनीति, आर्थिक नीति, सामाजिक नीति कार्यान्वित करने की पूरी छूट वे चाहते थे। विभाजन के बाद उनको टोकनेवाली, उनके ऊपर रोक लगानेवाली, उनसे हिस्सेदारी मांगनेवाली कोई भी शक्ति भारत में नहीं रहेगी, ऐसा वे सोचते थे।

एक-राष्ट्रीयत्व का प्रयोग हिंदुस्तान में असफल हुआ तो उसका दोष सिर्फ मुसलमानों के मत्थे मढ़ना या अंग्रेजों को सर्वथा दोषी ठहराना मेरी राय में मुनासिब नहीं होगा। बहुसंख्या के नाते हिंदू और हिंदू नेताओं को, चाहे वे कांग्रेस के ही नेता क्यों न हों, अपने दायित्व को निभाना चाहिए था। हिंदू समाज के अपने अंदरूनी दोषों के कारण, जाति व्यवस्था के कारण ही मुल्क दुर्बल बना है, वरिष्ठ जातियों के अहं के कारण ही हिंदू-मुसलमान, अगड़े-पिछड़े, दलित और सवर्ण आदि समस्याओं का समाधान नहीं निकल पाता है।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि हिंदुस्तान के विभाजन के कारण काफी गहरे रहे हैं और उसकी जड़ें दूर के इतिहास तक पहुंचती है। अगर हिंदू समाज में, हिंदू समुदाय में उदारता की भावना होती, समानता का व्यवहार करने की मनोवृत्ति होती, दूसरों को पचाने की क्षमता होती तो निःसंदेह पाकिस्तान का निर्माण नहीं होता। ऐसी बात नहीं है कि अन्य देशों में मुसलमान अल्पसंख्यक नहीं हैं। चीन में भी मुस्लिम अल्पसंख्या में हैं। लेकिन कभी भी अलगाववादी और पृथकतावादी प्रवृत्ति वहां अपना वर्चस्व कायम नहीं कर सकी। मुसलमान बहुसंख्या वाले इलाके चीनी गणराज्य का ही अविभाज्य अंग हैं। वहां न अलग राज्य बनाने की मांग मुसलमान करते हैं, न ऐसी मांग उनके द्वारा किए जाने पर वह कभी साकार हो सकती है। उसी तरह यूरोप में यूगोस्लाविया, अलबानिया आदि मुल्कों में भी मुसलमान आबादी नगण्य नहीं है। अलबानिया में तो लगभग आधी आबादी मुसलमान है। फिर भी वहां अलग मुस्लिम राज्य बनने की बात नहीं उठाई जा रही है।

इसलिए जहां मुसलमानों के पृथकतावाद की हम चर्चा करते हैं, वहां हिंदुओं के अनुदार सामाजिक व्यवहार की चर्चा करना भी मेरी दृष्टि से आवश्यक होगा। दार्शनिक विचारों के क्षेत्र में हिंदू समाज काफी उदारता दिखाता है, लेकिन जहां सामाजिक आचरण और व्यवहार का सवाल उत्पन्न होता है, हिंदुओं का रुख हमेशा अनुदारता का होता है। जैसे डॉ. आम्बेडकर ने कहा कि हिंदुओं में जैसे आदर और सम्मान की सीढ़ी है, उसी तरह अनादर और तिरस्कार की भी एक सीढ़ी है जिसके चलते हिंदू दूसरे मजहब के लोगों के साथ या अपने समाज में समानता का व्यवहार कभी नहीं कर सकते।

कई मुस्लिम नेताओं ने हिंदुओं के बारे में यह शिकायत की है कि जहां हिंदू एक-राष्ट्रीयता की बात करते हैं, वहां हिंदू समाज से धर्म-परिवर्तन करके इतिहासकाल में जो मुस्लिम या ईसाई बने हैं, उनको उन्होंने म्लेच्छ समझ कर उनके और अपने बीच एक दुर्लंघ्य दीवार कायम की है, एक दूरी बनाकर रखी है। इस दूरी की वजह से मुसलमान और हिंदू, ईसाई और हिंदू एक-दूसरे के साथ घुलमिल नहीं पाए हैं। जब धर्म-परिवर्तन के बाद कोई भी व्यक्ति हिंदू समाज से बिल्कुल कट जाता है तो उसके लिए इसके सिवाय और क्या रास्ता रह जाता है कि वह सभी क्षेत्रों में हिंदू समाज से अपने आपको पृथक और कटा हुआ साबित करे?

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