— रामचंद्र प्रधान —
कृष्णनाथ जी को याद करते हुए विगत कई युगों का संघर्ष और संदेश आँखों के सामने से गुजरने लगता है। शायद इस कारण भी क्योंकि मैं स्वयं कमोबेश उन युगों का साक्षी और गवाह रहा हूॅं। कृष्णनाथ जी का जन्म दो राष्ट्रीय आन्दोलनों के मध्य काल (1935) में हुआ। नमक सत्याग्रह (सविनय अवज्ञा सहित 1930-1934) और भारत छोड़ो आन्दोलन (1942-1945) ने भारत की आत्मा को मात्र स्पर्श ही नहीं किया था बल्कि उसे पूर्ण जागृति की स्थिति में ला दिया था। भारत की राष्ट्रीय गौरवगाथा, त्याग तपस्या के पूरे जातीय इतिहास को तत्कालीन लोक स्मृति में लाकर उडे़ल दिया था।
कृष्णनाथ की जीवन जगत दृष्टि को समझने के लिए काशी और विशेषकर काशी विद्यापीठ के वातावरण को भी समझना होगा। असहयोग आन्दोलन (1920-1921) के दौर में बापू की पहल पर शिवप्रसाद गुप्त ने राष्ट्रीय शिक्षा को एक नया आयाम देने के लिए काशी विद्यापीठ की स्थापना की थी। उसके साथ काशी के कई रत्नों का नाम जुड़ा था। उससे डाॅ. भगवानदास, आचार्य नरेन्द्रदेव, डाॅ. सम्पूर्णानन्द आदि संस्कृति पुरुषों का लम्बा संबंध बना रहा। वे लोग अपने जीवन, विचार और कर्म में साम्यता लाकर अपने शिष्यों और आम आदमी को संस्कारित करते थे।
कृष्णनाथ के पिता विश्वनाथ शर्मा भी प्रारंभ से ही काशी विद्यापीठ से जुड़े थे। उधर काशी में ही 1916 में पण्डित मदन मोहन मालवीय ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना कर शिक्षा के क्षेत्र मे एक नया आयाम जोड़ दिया था। उसी विश्वविद्यालय के उदघाटन में बापू का ऐतिहासिक भाषण हुआ था। उसकी गुंज-अनुगूंज इतिहास की घाटी में आज तक सुनायी पड़ती है। इतना ही नहीं, बापू के उसी भाषण से प्रभावित होकर विनोबा बंगाल की क्रान्ति और हिमालय की शान्ति का रास्ता छोड़कर बापू द्वारा अहमदाबाद में स्थापित सत्याग्रह आश्रम के रास्ते में मुड़ गए थे।
काशी विद्यापीठ के विश्वनाथ शर्मा के घर जयप्रकाश नारायण जैसे देश के दिग्गज नेताओं का आना-जाना होता रहता था। ऐसे ही पारिवारिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक वातावरण में कृष्णनाथ का काशी विद्यापीठ के प्रागंण में ही 1935 में जन्म हुआ था। उसी वातावरण में उनका लालन-पालन हुआ। इस संबंध में काशी के पास स्थित सारनाथ को भी याद रखना होगा। वहीं पर बुद्ध का प्रथम प्रवचन हुआ था जिसमें चार आर्यसत्यों की चर्चा बुद्ध ने की थी। कृष्णनाथ की आगे की जिंदगी में सारनाथ की विशेष भूमिका रही। उनके किशोर मन और संम्पूर्ण व्यक्तित्व का गठन और विकास हुआ।
उनके आगे के जीवन की चर्चा करते हुए उनके बाल सखा आचार्य बीरबल शास्त्री के पुत्र रमेश कुमार, जो दिल्ली प्रशासन में बड़े अफसर बनकर सेवानिवृत्त हुए थे, की चर्चा करना जरूरी होगा। तब वे मिन्टो रोड पर स्थित सरकारी आवास में रहा करते थे। अक्सर कृष्णनाथ जी के साथ में सप्रू हाउस से रमेश कुमार के आवास पर जाया करता था। दोनों बाल सखा थे। मिलने पर दोनों की चुहलबाजी, नोकझोंक देखने लायक होती थी। मैं उसका मूक गवाह बना रहता था।
कृष्णनाथ की शिक्षा-दीक्षा विद्यापीठ के साथ-साथ हिन्दू विश्वविद्यालय में हुई। इन सबकी कृष्णनाथ के मानस पटल पर अमिट छाप पड़ी। उनके आगे के जीवन कार्य, पुरुषार्थ को समझने के लिए इन सारी बातों को ध्यान में रखना होगा।
कृष्णनाथ जी के संग चलने पर मुझे समाजवादी आन्दोलन से जुड़े अनेक चिंतकों एवं लेखकों से मिलने, जुड़ने का मौका मिलता रहा। उनमें से कुछ नाम आज भी मेरे मानस पटल पर अंकित हैं। उनमें साही, रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा, लक्ष्मीकान्त वर्मा, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना आदि प्रमुख थे। समाजवादी आन्दोलन के इतिहास में इन लोगों के योगदान को कौन भुला सकता है! लेकिन इन सभी लोगों से मेरा आदरपूर्ण दूरी का ही रिश्ता था। जबकि कृष्णनाथ के साथ-साथ मेरा कमलेश और परिमल दास और कुसुम दास से आत्मीयता का संबंध बना।
वास्तव में तब मैं गांव-गिरांव से सीधे उठकर दिल्ली जैसे महानगर में आ गया था। उम्र भी कम ही थी। महानगर का अकेलापन मुझे काटने दौड़ता था। इस प्रकार कृष्णनाथ, कमलेश, परिमल दास और कुसुम दास की मेरे जीवन में विशेष भूमिका रही। कृष्णनाथ का संग-साथ मानवीय कमजोरियों और प्रवृत्तियों से उपर उठने की प्रेरणा देता था। इस तरह उनका मेरे जीवन में दूरगामी प्रभाव रहा। कमलेश कवि थे और उनका साथ सर्जनात्मक दुनिया की तरफ खींचे लिए जाता था। परिमल दास विद्वान प्राध्यापक और सफल वक्ता थे, वे महिलाओं के साथ चुहलबाजी करने में माहिर थे। भोजपुरी भी बोलते थे। कुसुम दास प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी अर्जुन सिंह भदौरिया उर्फ कमांडर साहब और सरला भदौरिया की पुत्री हैं। इनकी शिक्षा-दीक्षा राजस्थान के वनस्थली विद्यालय में हुई थी। वे एक सुन्दर एवं सुसंस्कृत महिला हैं। वे कृष्णनाथ जी को बहुत आदर भाव से देखती थीं।
कमलेश और मैं कभी कमांडर सहाब के सांसद वाले फ्लैट में साथ-साथ रहते थे। लगता था मानो अपने ही घर में हैं। कमांडर साहब ने भारत छोड़ो आन्दोलन के दौर में लाल सेना बनाकर अंग्रेजी फौज का सामना किया था। उसका विस्तृत वर्णन उनकी आत्मकथा ‘नींव के पत्थर’ में उपलब्ध है। इन सभी सज्जनों के चलते मैं दिल्ली में टिक गया, वरना उसके अकेलेपन से घर भाग गया होता।
विद्वत समाज में आम धारणा है कि किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के गठन में कुल-जीन्स के साथ साथ पालन-पोषण, समाजीकरण की प्रक्रिया की विशेष भूमिका होती है। मन लेकिन इसके साथ एक बड़ा सैद्धान्तिक प्रश्न जुड़ा है। कुल परंपरा और भरण-पोषण और समाजीकरण की प्रक्रिया एक होने पर भी भिन्न भिन्न लोगों का आगे का जीवन बिल्कुल अलग अलग क्यों हो जाता है? ऐसा क्यों होता है? विद्यापीठ में पले-बड़े सभी बच्चे कृष्णनाथ की तरह उच्च प्ररेणा पथ पर क्यों नहीं चल पडे़? इसको समझने के लिए हमें भगवदगीता का सहारा लेना होगा।
अर्जुन ने पूछा कि जीवन पर्यन्त प्रयास करने पर भी अगर कोई साधक पूर्णता नहीं प्राप्त कर सकता तो क्या उसका प्रयास व्यर्थ गया? इसके प्रत्युत्तर में कृष्ण ने सारे विश्व के साधकों को एक बड़ा आश्वासन दिया है। वर्तमान जीवन में साधना के जिस बिन्दु पर साधक पहुँचता है, अगले जीवन में उसे साधना का उससे आगे का रास्ता तय करने का मौका मिलता है। इसलिए वर्तमान जीवन में की गयी कोई भी साधना व्यर्थ नहीं जाती। कौन जाने पूर्व जीवन में कृष्णनाथ साधना के किस बिन्दु तक पहुंच चुके थे। इसलिए उसी वातावरण में पले-बढे़ सभी के सभी बच्चे कृष्णनाथ क्यों नहीं हुए, उसे इसी रूप में समझा जा सकता है।
इन्हीं उच्च संस्कारों के चलते कृष्णनाथ अपनी अकादमिक शिक्षा समाप्त होने पर सहजभाव से समाजवादी आन्दोलन से जुड़ गए। उनके व्यक्तित्व की एक विशेषता यह थी कि वे कोई भी काम आधे-अधूरे मन से नहीं करते थे। दुचित्ता होकर कोई काम करना उनके स्वभाव में था ही नहीं। एकचित्त होकर वे समाजवादी आन्दोलन मे पिल पड़े। उस कालखण्ड में मामा बालेश्वर दयाल के साहचर्य में वे पलामू से झाबुआ तक के घने जंगलों में आदिवासियों के साथ एकरूप होकर काम करते रहे। उस काल में वे त्याग-तपस्या तितिक्षा के अन्तिम शिखर पर जाते हैं। लेकिन उनके स्वभाव की एक और विशेषता थी कि वे किसी काम के अन्तिम शिखर पर पहुँच कर वहां पर घर नहीं बनाते थे। न उससे उपजी सत्ता सामर्थ्य का उपयोेग, उपभोग करना चाहते थे। वे उसके पार चले जाते थे।
उपनिषद् में दो पक्षियों की चर्चा की गयी है एक भोक्ता और दूसरा साक्षी। इशोपनिषद् में इसे ही त्याग से भोग करने की बात कही गयी है। मृत्युलोक में ‘शरीर धारण करने पर किसी न किसी रूप में भोक्ता तो बनना ही पड़ता है।’ भोग में त्याग यानी त्याग के साथ भोग की भावभूमि पर खड़ा होना परम पुरुषार्थ का काम है।
कृष्णनाथ आगे चलकर काशी विद्यापीठ में अध्यापन का कार्य करने लगे, पारिवारिक जिम्मेदारी भी उठाने लगे। हिन्दी आन्दोलन में शरीक भी होने लगे। लेकिन त्याग और भोग को जोड़नेवाली कड़ी यानी अनासक्ति से वे कभी नहीं विचलित हुए। कृष्णनाथ का वह सहज स्वभाव बन गया था। डाॅ. लोहिया कहा करते थे कि दुनिया में मात्र तीन चीजें प्राप्त करने लायक है- परमात्मा, सत्ता और औरत। मैंने कृष्णनाथ को स्थूल ईश्वर सेे साक्षात्कार के लिए प्रयास करते कभी नहीं देखा। वे आस्तिक-नास्तिक के विभेद को नहीं मानते थे। वे दोनों से पार चले जाने में विश्वास करते थे। भगवान बुद्ध की यह मूल स्थापना थी। मेरी अपनी समझ में कृष्णनाथ भी इसी भावभूमि पर खडे़ रहे। सत्ता सुन्दरी से विरक्त रहे। पता नहीं काया सुन्दरी ने उन्हें आकर्षित किया कि नहीं, यह तो वही जानते होंगे। दूर से तो अनासक्त अन्यमनस्क ही दिखते थे।
समाजवादी आन्दोलन संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के दौर में कर्मठ, उर्जावान होने के साथ ही बहुत सर्जनात्मक तथा नवाचार का आन्दोलन था। मुझे याद है कि हमलोग जब नारे लगाते थे कि ’संसोपा ने बांधी गांठ, पिछडे़ पावें सौ में साठ’ तो हमें लगता था कि हम सब एक नयी समाज क्रान्ति के वाहक है। अंग्रेजी हटाओ, जाति तोड़ो, सर्वजाति धर्म सहभोज आदि इसके अनेक आयाम थे। राजनारायण जी इन सभी कार्यक्रमों के महायज्ञ के ‘ब्रह्मा’, होता, उदगाता और अध्यर्यु थे। इन सारे कार्यक्रमों में कृष्णनाथ जी के साथ सम्मिलित होने का मुझे अनेक बार मौका मिला था।
महा परिवर्तन के उस आन्दोलनों में अधिकांश लोग सवर्ण थे। आज भी राजनारायण जी की एक बात कानों में गूंजती रहती है। ’संतति और सम्पति का मोह छोड़ो।’ तब हम लोगों को क्या पता था कि समाजवादी आन्दोलन से उपजी ऊर्जा इसके नए नेतागण के लिए अपनी संतति के लिए सम्पति, सत्ता बटोरने का जरिया बन जाएगी। जाति तोड़ो आन्दोलन, जाति जोड़ो आन्दोलन में बदल जाएगा। आगे चलकर परिस्थितिवश कृष्णनाथ जी की तरह के अनेक लोग उस आन्दोलन के प्रति उदासीन हो गए। क्योंकि उसका मूल स्वर और उद्देश्य गायब हो रहा था।
लेकिन एक पुरानी बात मुझे अभी भी याद है। 1969 में दो हफ्ते के करीब हजारीबाग रोड के किसी बंगले में कृष्णनाथ जी के साथ रहने का, वार्तालाप करने मौका मिला था। उनकी नींबू वाली चाय का जायका उठाने का भी। उसी कालखण्ड में कृष्णनाथ जी ने विदेश नीति पर भी अंग्रेजी में किताब लिखी थी। हजारीबाग रोड में समाजवादी आन्दोलन के नये नीतिनिर्धारण के लिए चुनिन्दा समाजवादियों की बैठक बुलायी गयी थी। कृष्णनाथ जी ने अर्थनीति पर पर्चा पढ़ा था। और मैंने विदेश नीति पर। उस बैठक में समाजवादी आन्दोलन का समस्त नेतृत्व उपस्थित था। मधु लिमये, जार्ज फर्नांडीज, कर्पूरी ठाकुर, रामानंन्द तिवारी, गोपाल गौड़ा, एस.एम. जोशी, किशन पटनायक, राजनारायण आदि लोग उपस्थित थे। अच्छी बहस चलती थी। अन्य नेताओं के साथ कृष्णनाथ जी उसमें बहुत सक्रिय थे। उस दौर में कृष्णनाथ जी सप्रू हाउस में अनेक वर्षों तक आते रहे। वे अपना बहुत सारा लेखन कार्य सप्रू हाउस में करते थे। कमलेश, परिमल दास, कृष्णनाथ और मैं साथ-साथ बैठकर चाय की चुस्की लेते थे। कभी-कभार वैदिक जी भी उसमें सम्मिलित होते थे। हमलोग अनेक मुद्दों पर चर्चा करते थे। उस दौर में मैंने इन तीनों विद्वतजनों से अनेक बातें सीखीं। मुझे याद है कि कृष्णनाथ जी से मैंने पूछा था कि जिंदगी से क्या सीखा? उन दिनों वे विपश्यना शिविर से लौटे कर आए थे। उन्होंने कहा ‘जो है सो है’, ‘जो हो सो हो’। मैंने तुरन्त जोड़ा, ’जो था सो था’।
उनकी ज्ञान यात्रा के साथ-साथ देश-विदेश की यात्रा भी चलती रहती थी। विदेश यात्रा कर उन्होंने ’पृथ्वी की परिक्रमा’ नामक पुस्तक लिखी थी। काका साहब कालेलकर, राहुल सांकृत्यायन जैसे मुट्ठी भर विशिष्ट जनोें को छोड़ दें तो कृष्णनाथ की तरह हिमालय के कोने-कोने को छान डालनेवाला कोई बिरला व्यक्ति ही मिलेगा। हिमालय के हर क्षेत्र पर कृष्णनाथ ने यात्रा संस्मरण लिखा। वे कभी लद्दाख में ‘राग विराग’ की बात करते हैं, तो कभी ‘स्पीति में बारिश’ की। उनके यात्रा विवरण की विशेषता यह थी कि उसमें बाह्य यात्रा के साथ-साथ उनकी अन्तर्यात्रा का अता पता भी मिलता है। कब किस भावभूमि पर खडे़ हैं, किस मनःस्थिति में किस दृश्य का अवलोकन कर रहे हैं, उसी दौर में उनके अंतर्मन में क्या घटित हो रहा है, उन सारी बातों की जानकारी उनकी पुस्तकों से मिलती है।
लेकिन उनकी ज्ञान यात्रा कभी रुकी नहीं। सारनाथ के तिब्बती उच्च विद्या संस्थान से जुड़े। जगन्नाथ उपाध्याय तथा परम पावन सुदुंग रिंपोचे के संग-साथ से वे बुद्ध धर्म की तरफ मुडे़। क्रमशः वे उस रंग में रॅंगते गए। हिमालय के बौद्ध संगठनों से भी जुडे़ लेकिन जगन्नाथ उपाध्याय की तरह वे औपचारिक रूप से कभी बौद्ध मतावलम्बी नहीं बने। लेकिन तिब्बत की आज़ादी का प्रश्न हो, या हिमालय में बसे बौद्ध समूहों की समस्याएं हों, वे उनसे जुडे़ रहे।
काशी में रहते हुए वे कृष्णमूर्ति प्रतिष्ठान और उनके द्वारा संचालित विद्यालयों के प्रति आकर्षित हुए। अन्तिम वर्षों में वे कृष्णमूर्ति प्रतिष्ठान के बंगलोर के पास स्थित विद्यालय में रहने लगे। उनकी किसी पत्रिका को भी देखते थे। कभी कभार ’वार्ता’ भी करने लगे। लेकिन काशी, सारनाथ और हिमालय का साथ कभी नहीं छोड़ा। बीच-बीच में उनसे मुलाकात होती रहती थी – कभी आनन्द कुमार के घर पर तो कभी रमेश कुमार के निवास स्थान पर। बातचीत में कहते कि ‘शरीर साथ नहीं दे रहा है’। शरीर और आत्मा विभेद को वेे पूरी वरह समझ चुके थे। अन्तिम वार्ता देने के क्रम में कॉफी पीते समय उन्होंने अपने ‘बेगाने शरीर’ को त्याग दिया। ऐसी मौत तो विरले योगियों को ही प्राप्त होती है। अपनी काया को बेदाग, निर्मल, जस का तस रख दिया।
अन्त में मेरे मन में एक बात ध्यान में आती है। कृष्णनाथ को किन बातों के लिए याद किया जाता रहेगा? इस क्रम में तीन बातें मेरे ध्यान में आती है। एक, त्याग, तपस्या तथा तितिक्षा की कुल परम्परा को उन्होंने अन्तिम शिखर पर पहुँचाया। इतना ही नही, आवश्यकतावश एक गृहस्थ के रूप में पारिवारिक जिम्मेदारियों को भी संभाला। उस क्रम में अगली पीढ़ी को उस उच्च कुल परंपरा कोे और आगे ऊंचाई पर ले जाने लायक योग्य बनाया। आनन्द कुमार और रंजना जैसे यशस्वी, तेजस्वी उत्तराधिकारी वृहद समाज को देकर अपने कुल की उच्च नैतिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक परंपरा को और आगे बढ़ाया। लेकिन वह भी अनासक्त भाव से। उनको किसी बंधन में नहीं रखा। यहाँ तक कि काशी और गंगा का बेटा होने पर भी शरीर छोड़ने पर उसे मोक्षभूमि काशी में लाने का कोई आग्रह नहीं किया। उसी काशी को जिसके बारे में तुलसीदास ने लिखा-
जन्म महि जानि ज्ञान खानि अघ हानि कर।
जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न।
उसी काशी को कृष्णनाथ जीवन पर्यन्त सेवते रहे लेकिन शरीर त्याग के लिए ऋषि अगस्त्य की तरह दक्षिण चले गए।
भुक्तावस्था में जाने पर ऐसा व्यक्ति हर जगह मुक्त है। क्या मगहर क्या काशी रे? ऐसे तो कावेरी भी भारत की सात पवित्र नदियों में समाहित है।
दो, कृष्णनाथ की हिमालय यात्रा और उसके विभिन्न क्षेत्रों पर लिखी गयी पुस्तकें हिमालय के कोने-कोने से लोगों को अवगत कराती रहेंगी।
तीन, स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश की यात्रा कैसी होनी चाहिए, उस मार्ग में आगे कैसे बढ़ा जाय, इसके लिए भी उनका जीवन एक अलग मापदण्ड रहेगा। समाजवादी आन्दोलन एवं हिन्दी आन्दोलन से लेकर बुद्ध और कृष्णमूर्ति विचार से जुड़ने का पूरा का पूरा इतिहास इसी बात का प्रमाण है। लेकिन उनका सूक्ष्म प्रवेश भी अपने तरह का अनूठा था। बाबा विनोबा ने उदघोषणा कर स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश किया था। कृष्णनाथ ने इस तरह की उदघोषणा कभी नहीं की। बाबा तो ज्ञान खण्ड से होते हुए ‘सच खण्ड‘ में पहुँच चुके थे। तभी तो वे कह सकते थे कि ‘बाबा बोगस, भूदान बोगस‘। यह कहे जाने पर कि बाबा आपका भूदान आन्दोलन असफल रहा तो बाबा कहते ‘भूदान आन्दोलन तुम्हारा होगा, मेरा क्या?’
कृष्णनाथ का सूक्ष्म प्रवेश अपने किस्म का था। स्थूल से शायद कभी पूर्ण विच्छेद नहीं हुआ। वे दोनों मनःस्थितियों को साथ-साथ लेकर चलते थे। बाबा की तरह कृष्णनाथ ने ‘क्षेत्र संन्यास’ कभी नहीं लिया। सारनाथ और हिमालय को कभी भूले नहीं। साधारण जन के लिए यह सुगम मार्ग रहेगा। संग में असंग कैसे साधा जाय, स्थूल में सूक्ष्म कैसे पिरोया जाय, इसे कृष्णनाथ की जिंदगी से सीखा जा सकता है। कृष्णनाथ को याद करते काल कवलित हुए अनेक गुरुजनों, मित्रों की याद आती रहती है। अकेलेपन के भाव में गाहे-बगाहे डूबता-उतराता रहता हूँ। उस मनःस्थिति में किसी शायर की ये पंक्तियाँ गुनगनाने का मन होता है-
अब यादें रफ़्तगां की भी हिम्मत नहीं रही
यारों ने बसा ली है, बड़ी दूर बस्तियाँ।
अन्त में कृष्णनाथ की पुण्य स्मृति को शत शत प्रणाम।
🙏रामचंद्र प्रधान जी ने विस्तार से लिखा हैl अच्छा आलेख हैl इस आलेख से
कृष्णनाथ जी के बारे में विस्तार से जानने को मिला l
वाग्देवी प्रकाशन से प्रकाशित कृष्णनाथ जी की पुस्तकों से उनके साहित्य का परिचय मिलता है l
पिछले दिनों गगन गिल की पुस्तक ‘इत्यादि’ पढ़ी थीl
इत्यादि’ एक ऐसी किताब है जिसमें समय-समय पर लिखे संस्मरणात्मक लेखों को श्रृंखलागत रूप दिया गया है। कृष्ण नाथ जी पर भी एक संस्मरण इसमें संकलित है l
https://samtamarg.in/2021/05/16/light-of-mystery-and-amazement/