स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये 37वीं किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

ब नील मजदूरों की शिकायते सुनने के लिए गांधीजी चंपारण पहुंचे तो उनको उपद्रवी तत्त्व समझकर उनके ऊपर पुलिस अधीक्षक द्वारा नोटिस जारी कर दिया गया। उन्हें चंपारण छोड़कर जाने के लिए कहा गया था। नोटिस स्वीकार करते हुए गांधीजी ने उसी नोटिस के पीछे लिखा कि जब तक मेरी जांच पूरी नहीं हो जाती, मेरे चंपारण छोड़ने का कोई सवाल नहीं है। दूसरे दिन उनके ऊपर समन जारी होकर उनके खिलाफ पुलिस आदेश की अवज्ञा का मुकदमा प्रारंभ हो गया। जाप्ता फौजदारी की धारा 144 को भंग करने का आरोप उन पर लगाया गया। सरकारी वकील केस को मुल्तवी रखना चाहता था, लेकिन गांधीजी बीच में पड़ गए और उन्होंने कहा कि केस स्थगित करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि मैं चंपारण छोड़कर जाने से इनकार करने के अपने अपराध को स्वीकार करता हूं।

उसके बाद गांधीजी ने एक छोटा-सा बयान दिया जिसमें उन्होंने संक्षेप में सत्याग्रह के सिद्धांत का निरूपण किया। उन्होंने कहा कि एक कानूनपसंद नागरिक के नाते मेरा यह कर्तव्य बनता है कि मैं सभी सरकारी आदेशों का पालन करूं। लेकिन साथ ही साथ सार्वजनिक कार्यकर्ता के नाते मेरा यह भी कर्तव्य हो जाता है कि मैं अपने और इन श्रमिकों के आत्मसम्मान के खिलाफ कोई काम न करूं। इसलिए मैं आपके आदेश की अवज्ञा करते हुए यह कहना चाहता हूं कि इसके लिए जो दंड मुझे आप द्वारा दिया जाएगा, उसको मैं बिना हिचक चुपचाप भोगूंगा।

अभियुक्त के इस बयान से मजिस्ट्रेट तथा सरकारी वकील दोनों भौचक्के रह गए और उन्होंने अपना फैसला स्थगित कर दिया। इसी बीच सरकार ने केस वापस ले लिया। बाद में सरकार की ओर से एक मिलीजुली कमेटी बनाई गई, गांधीजी को उसका सदस्य बनाया गया तथा इस कमेटी की रपटों के आधार पर जो कार्यवाही की गई, उसके चलते चंपारण के किसानों और नील मजदूरों की शिकायतें काफी हद तक दूर हुईं।

खेड़ा में समस्या कुछ अलग थी। वहां अकाल की स्थिति को लेकर लगान देने में किसान अपने आपको असमर्थ पा रहे थे। गांधीजी ने सत्याग्रह की तैयारी की और किसान सत्याग्रहियों से यह लिखवाना प्रारंभ किया कि हम स्वेच्छा से लगान नहीं देंगे। सरकार हमारे खिलाफ जो कानूनी कार्रवाई करना चाहे बेशक कर ले। हमारी जमीनें भी अगर कुर्क कर ली जाएंगी तो भी हम लगान नहीं देंगे और आत्मसम्मान को गिरवी रखकर कोई समझौता नहीं करेंगे। हम ग्रामीणों में से जो काश्तकार अपनी आर्थिक स्थिति कुछ अच्छी होने के कारण लगान देने की स्थिति में हैं, वे भी गरीब किसानों के प्रति हमदर्दी दिखाने के लिए लगान नहीं देंगे। यह एक अनोखा संघर्ष था। इस संघर्ष के दौरान गांधीजी ने जब देखा कि किसान थक गए हैं, ज्यादा दिन तक संघर्ष नहीं चला पाएंगे तो उन्होंने सम्माननीय ढंग से इस सत्याग्रह को समाप्त करना चाहा। इलाके के तहसीलदार ने उनके पास संदेशा भेजा कि अगर संपन्न किसान अपना लगान अदा कर दें तो गरीब किसानों का लगान स्थगित कर दिया जाएगा। गांधीजी ने तहसीलदार से लिखित आश्वासन मांगा, जो उनको दे दिया गया। उसके बाद गांधीजी ने अपना सत्याग्रह वापस ले लिया।

इस तरह सत्याग्रह के छोटे-मोटे प्रयोगों के बाद गांधीजी में आत्मविश्वास बढ़ा। हिंदुस्तान के आतंकवादी आंदोलन को दबाने हेतु 1919 में जो रौलेट एक्ट असेबंली में पास किया जा रहा था उसके खिलाफ आंदोलन की पहल करने का निश्चय गांधीजी ने किया। विधानमंडलों के अंदर और बाहर इस दमनकारी नीति के खिलाफ बड़े पैमाने पर प्रोटेस्ट शुरू हुए। कुछ सदस्यों ने विधानमंडलों से इस्तीफा दे दिया। लेकिन सरकार के ऊपर जरा भी असर नहीं हुआ। रौलेट विधेयकों के विरुद्ध जनमत को प्रभावी ढंग से तैयार करने और इस बात को आजमाने के लिए कि संघर्ष के दौरान जनता मानसिक दृष्टि से त्याग और दंडभोग के लिए कहां तक तैयार हैं, गांधीजी ने देशव्यापी हड़ताल का नारा दिया। सत्याग्रह सभाओं की स्थापना होने लगी। हड़ताल की घोषणा का हिंदुस्तान की जनता ने बड़े पैमाने पर अभूतपूर्व स्वागत किया। देश के कोने-कोने में यह हड़ताल हुई।

लेकिन इस हड़ताल के दौरान पंजाब, बंबई और अहमदाबाद में कुछ अप्रिय और हिंसात्मक घटनाएं हो गईं। गांधीजी ने पंजाब जाना चाहा, लेकिन उन्हें रोक दिया गया। वे बंबई गए, अहमदाबाद गए। बंबई में सरकार ने भी भीड़ के साथ पाशविक व्यवहार किया था। अहमदाबाद में भी हिंसात्मक घटनाएं घटी थीं, लेकिन फिर भी शांति स्थापित करने में सरकारी अधिकारियों ने गांधीजी की मदद की। पंजाब के बारे में कई दिन तक कोई जानकारी नहीं मिल पाई। इन सारी अप्रिय घटनाओं को लेकर गांधीजी के मन में यह बात आई कि अभी तक सत्याग्रह के सिद्धांत का मर्म साधारण जनता नहीं समझ पायी है। भावावेश में आकर वह अपना संयम खो बैठती है, अतः जनता को शिक्षित करने के लिए कुछ समय रचनात्मक और शैक्षणिक कार्य करना पड़ेगा। इस दृष्टि से उन्होंने सत्याग्रह की अपनी योजना कुछ समय के लिए स्थगित कर दी।

इसके बाद खिलाफत, पंजाब में हुए अन्याय और स्वराज्य के त्रिसूत्र को लेकर गांधीजी ने व्यापक पैमाने पर अपना असहयोग आंदोलन चलाया। सरकारी खिताबों और पदवियों को त्यागना, विधानमंडलों के चुनावों में हिस्सा न लेना वकीलों और नागरिकों को अदालतों का बहिष्कार करने के लिए प्रवृत्त करना, सरकारी शिक्षा प्रणाली पर आधारित स्कूल और कालेजों को छोड़ देना आदि अनेकों कार्यक्रम उन्होंने असहयोग आंदोलन के दौरान चालू किए।

गांधीजी ने शिक्षित हिंदुस्तानियों के मन के तारों को इस तरह झंकृत कर दिया कि मोतीलाल नेहरू, सी.आर.दास, वल्लभभाई पटेल जैसे अनेक विख्यात अधिवक्ताओं ने अपनी वकालत को छोड़कर अपनी हजारों-हजार रुपयों की कमाई को तिलांजलि दे दी और अपने को इस आंदोलन में झोंक दिया। उसके लिए सश्रम कारावास तक को भी झेला। सैकड़ों विद्य़ार्थियों ने सरकारी शिक्षा प्रणाली के स्कूल-कालेजों का त्याग कर उनके लिए खोले गए राष्ट्रीय विद्यालयों और महाविद्यालयों में भर्ती होकर राष्ट्रीय शिक्षा पाना प्रारंभ किया। असंख्य शिक्षित नौजवानों ने नौकरी-धंधे और कमाई पर लात मारकर खादी, अस्पृश्यता निवारण आदि रचनात्मक कार्यों के साथ अपने आपको जोड़ लिया।

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