केशव शरण और शंकरानन्द की कविताएं

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पेंटिंग- समीर चंदा
केशव शरण

— केशव शरण —

1. एक वे दिन एक ये दिन

एक वे दिन थे
जब माँगें मान ली जाती थीं
ज़रा-से हठ प्रदर्शन पर
यों उपद्रव पर
थोड़ी मार भी पड़ती थी
मगर हम
चिल्लाते ख़ूब थे

एक ये दिन हैं
कि माँगते मर जाओ
और कुछ उपद्रव कर दो तो
बड़ी मार झेलो
और चिल्लाओ
तनिक नहीं

हम इन दिनों से
कैसे आज़ादी पाएंगे?

पर कैसे भी
हम इन दिनों से
आज़ादी पाएंगे
और एक नया दिन लाएंगे
अपने बच्चों के लिए

2. मारे गयों की गणना

कोई गणना नहीं होती
कितने जानवर मारे गये
कितने पंछी
कितने कीट
कितनी तितलियाँ
कितनी मछलियाँ

इंसान की भी गणना
कम दिखायी जाती है

जो मारे जाते हैं
वे क़सूरवार नहीं होते हैं

जो मारते-मरते हैं
वे भी क़सूरवार नहीं होते हैं

क़सूरवार हैं वे
जो भगवानों में आने के लिए
आदमियों को मरवाते हैं

ऐसा ही होता है
उनका युद्ध भी
उनका एक समझौता है

जब मारे गये लोगों की दुनिया
बहुत तबाह हो जाती है
उनके स्वजनों
संग्रहालयों, राष्ट्रीय धरोहरों
और पुस्तकालयों समेत
तो वे शांति पर संधि करते हैं
और सद्भाव के मसीहा बनते हैं

मारे गये लोगों के लोग
निर्माण में लगते हैं
जिसमें शामिल हो जाते हैं
जानवर भी
पंछी भी
कीट भी
तितलियाँ भी
और मछलियाँ भी।

3. इसकी चिन्ता

यहाँ बैठिए तो
पूरे कपड़े पर
पीली-पीली बिंदियाँ
चिपक जाती हैं
जो उड़कर आती हैं
मधुमक्खियों के परों से
आते-जाते उधर
उनके मोम के घरों से
इधर निकट-सुदूर फूलों तक

ओह ! श्याम-लोहित मोम के घर
ऊँचे विशाल पीपल के पेड़ों पर
बया के घोंसलों की तरह लटकते
और उसी तरह मज़बूत
इधर कम भी हुए हैं
और लघुतर भी

अपने मधुमेह से वृहदतर
मुझे इसकी चिंता है

4. और भी अच्छा लगेगा

आज के अख़बार में पढ़कर
बहुत अच्छा लगा कि
महान ताक़तवर
युद्ध की समाप्ति चाहता है
संधि और शान्ति चाहता है
बहुत किया ध्वस्त
अंत में हुआ पस्त

कल के अख़बार में पढ़कर
और भी अच्छा लगेगा कि
महान धनवान
शोषण की समाप्ति चाहता है
समानता की व्याप्ति चाहता है
बहुत बटोरा अर्थ
बहुत किया अनर्थ
अंत में सब साबित हुआ व्यर्थ !

5. सुगम्य, सुरम्य हों रास्ते

ठंड कँटीली मार रही है
अँधेरी धुंधैली रात में
इसकी यंत्रणा से
बचे रहोगे तो
धूप जिला देगी
खिला देगी साथ में
तुम्हें और तुम्हारे दिन को

गुज़र गईं
कितनी शरद ऋतुएँ
बचे रहे हो बचे रहोगे
वसंत-विलास के वास्ते
सुगम्य, सुरम्य हों तुम्हारे
नववर्ष के रास्ते !

पेंटिंग : हम्माज़ुबिन
शंकरानंद

— शंकरानन्द —

1. आशंका के बाद

सड़क पर तेज रफ्तार और
धुएं की गंध के बीच
कोई जीता है इस आशंका में कि
कभी भी कोई पहिया
उसे कुचल सकता है

वह ये जगह छोड़ कर
कहीं जा नहीं सकता
कोई दूसरी जगह
उसके रहने लायक बची नहीं

इसलिए चुपचाप जीने की कोशिश में
सड़क किनारे रहते हुए
एक दिन खबर बन जाता है वह
जो कभी खबर जैसी जिंदगी भी
नहीं कर पाता हासिल

इसमें न चलाने वाले की गलती है
न पहिए की
न गाड़ी की
न अंधेरे की
गलती है तो उसकी
जो सड़क के किनारे फुटपाथ पर
तकिया लगाकर
आधा सोता है आधा जागता है

इतने एहतियात के बावजूद
दुर्घटना होती है और
खून के छींटे
पत्थर पर फैल जाते हैं देर रात

इस तरह एक गिनती कम होती है
उसके जाने से
इस तरह खाली होती है एक जगह

अगले दिन कोई दूसरा
वहां रहने चला आता है।

2. कुछ बनाना

इस पृथ्वी पर
सबसे कठिन है कुछ बनाना

मिट्टी का घर हो
या कागज की नाव
उसे बनाना
असल में घर और नाव बनाने
जितना ही कठिन काम है

बोलने वाले
कुछ भी कह देते हैं
लेकिन बोलने से
सिर्फ बात बनती है
एक चिड़िया का
घोंसला भी नहीं बनता
उसके लिए भी
तिनका जमा करना पड़ता है

जो बनाते हैं
वे अपना सब कुछ
दांव पर लगा देते हैं
उनकी नींद उड़ जाती है
जब तक वह पूरा नहीं हो जाता
लेकिन यह तकलीफ
और कोई नहीं समझ सकता

वह तो हरगिज नहीं
जो घर बनाने के लिए
माचिस की डिबिया की जगह
आग लगाने के लिए
तीली जमा करने के
फिराक में रहता है।

3. हुनर

चिलचिलाती धूप में
पानी की याद आती है
पेड़ की याद आती है
ओस और नमी की याद आती है

जो कुछ सुलगने से बचा सकता है
उसकी याद आती है
याद आती है जीभ
जीभ पर बर्फ
उसका गलना
घुलना
और कंठ तक ठंडा होना
याद आता है

ये तय है कि
अभी धूप है और
किसी भी चीज के होने की
संभावना नहीं

कुछ दूरी बाकी है
होने और नहीं होने के बीच
लेकिन याद
सफर को काटने का एक बहाना है

जो बहाने नहीं बनाते
उनके लिए
जीना मुश्किल हो जाता है

बर्फ भी है और धूप भी
जो चाहिए
बस उस तक पहुंचने का
हुनर चाहिए।

4. एक बात

चुप की उम्र
भाप जितनी होती है
वह कब उड़ जाती है
इसका पता नहीं चलता

बातों का क्या है
वह तो बस होती हैं
तो होती हैं

एक बात के होने भर से
सूने घर का खंडहर
आवाज की रोशनी में
चमक जाता है

जैसे रात के आसमान में
कौंधती है बिजली।

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