स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : 38वीं किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

गांधीजी के असहयोग आंदोलन से वातावरण इतना बदल गया कि पढ़े-लिखे लोग खादी की गठरियां लादकर खादी बेचने हेतु मोहल्ले-मोहल्ले, गांव-गांव घूमने लगे। इस काम में उन्हें लज्जा का अहसास नहीं होता था। यहां तक कि मोतीलाल नेहरू जैसे वरिष्ठ अधिवक्ता और समृद्ध व्यक्ति भी उस समय मोटी खादी पहनकर खादी बेचने हेतु पदयात्रा करते थे, जिसकी अंग्रेज समर्थक समाचार-पत्रों द्वारा खिल्ली उड़ाई गई थी। गांधीजी ने यंग इंडिया में लिखे अपने एक लेख में इन समाचार-पत्रों की भर्त्सना की और राष्ट्रीय कांग्रेस के कार्यकर्ताओं से कहा कि इनकी निंदा को प्रशंसा के रूप में लेकर उन्हें अपने रचनात्मक कार्यक्रम जारी रखने चाहिए।

असहयोग आंदोलन में मुल्क में पहली बार अभूतपूर्व चेतना जगी। अंग्रेजी प्रशासन का रौब टूट गया और जेल के बारे में जो भय लोगों में था, वह भी दूर हो गया। स्वराज्य के लिए कानून तोड़कर जेल जाना अब कलंक न रहकर प्रशंसा का कार्य हो गया। असहयोग आंदोलन के जनसागर में उत्साह की भारी लहरें उठने लगीं। लेकिन खिलाफत आंदोलन के दौरान मोपला विद्रोह जैसी घटनाएं भी घटीं और चौरी चौरा (गोरखपुर) में पुलिस चौकी को आग लगाने जैसे अनुचित और हिंसात्मक कांड भी हुए। इन सारी घटनाओं का गांधीजी पर प्रतिकूल असर हुआ और उन्होंने एकाएक सत्याग्रह आंदोलन स्थगित कर दिया। उनके जो  साथी जेल में थे, उनको इससे बड़ा धक्का पहुंचा और गांधीजी के इस कदम को वे समझ नहीं पाए। खिलाफत कमेटी के मुस्लिम नेता भी अत्यंत नाराज हुए।

लेकिन इसके पीछे गांधीजी का अपना तर्क था। वे ऐसा मानते थे कि बिना अनुशासन और आत्मसंयम के सत्याग्रह असफल है। न दुश्मन के मन पर उसका प्रभाव पड़ता है, न ही राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय लोकमत पर। इसलिए जब भी उन्होंने देखा कि जनता का अति उत्साह संयम के अभाव में जहां-तहां हिंसा में परिवर्तित हो रहा है तब वे सत्याग्रह को स्थगित कर जनता जनार्दन को रचनात्मक कार्यों की ओर लगाने में तनिक नहीं हिचकते थे। उनका यह विश्वास था कि तात्कालिक रूप में कार्यकर्ता और नेता अवश्य उनसे नाराज हो जाएंगे, लेकिन शक्ति-संग्रह करने का अंततः यही एकमात्र तरीका है।

जब आंदोलन स्थगित हो गया तो अंग्रेजों ने सोचा कि अब वे गांधीजी को गिरफ्तार कर सकते हैं। अब तक उनको गिरफ्तार करने में सरकार हिचक रही थी। उनकी गिरफ्तारी के बाद अहमदाबाद में उनके ऊपर केस चलाया गया और जिला जज ने राजद्रोह के आरोप में उन्हें सजा फरमाई। तिलक जी के समान आपको भी छह साल की सजा सुनाना अनुचित नहीं होगा। जज ने कहा। गांधीजी ने कहा कि आपने लोकमान्य तिलक को दी गई सजा की  याद दिलाकर मुझे गौरवान्वित किया है और मैं यह सजा खुशी से काटूंगा। लेकिन तिलकजी के मुकदमे और गांधीजी के मुकदमें में बड़ा अंतर था। गांधीजी के रास्ते में अधिक खुलापन था, सच्चाई थी। चतुराई या चालबाजी का अंश नहीं था।

धीरे-धीरे सत्याग्रह का तंत्र गांधीजी द्वारा परिष्कृत किया जा रहा था। आंदोलनों में उतार-चढ़ाव तो अक्सर होते ही हैं। निहत्थी गरीब जनता कितने साल संघर्ष कर सकती थी? जब थकने को आ जाती तो गांधीजी जनता को रचनात्मक कार्य की ओर मोड़ देते थे। अपनी रिहाई के बाद उन्होंने यही किया। 1926 में एक साल तक के लिए अपने आपको उन्होंने सभी अनावश्यक राजनीतिक कार्यों से मुक्त करके अस्पृश्यता निवारण, चरखा तथा राष्ट्रीय शिक्षा के कार्यक्रमों में लगा दिया। इससे साधारण जनता और ग्रामीणों के कांग्रेस संगठन के साथ जीवन्त संबंध बने रहते थे। कुछ नेताओं ने उनसे अपील भी की कि वे अपने वनवास को समाप्त कर देश को नेतृत्व प्रदान करें। इसपर गांधीजी ने कहा कि इन नेताओं की  निगाहों में जो व्यवहारशून्यता है, वह मेरी राय में सबसे अधिक व्यवहारपूर्णता है। इसी से शक्ति संचय होगा और समय आने पर ज्यों ही देश का वातावरण बदलेगा, मैं स्वयं सामने आ जाऊंगा। उस क्षण तक के लिए मैं अपनी शक्ति को संचित करके रख रहा हूं ताकि समय पर उसका सदुपयोग हो सके।

साइमन कमीशन की नियुक्ति के बाद कुछ ही समय के अंदर वाकई वातावरण बदल गया। पूरे देश में उत्साह की उमंग आ गयी। हिंदू-मुसलमान एकता के प्रयास दुबारा शुरू हो गए और जनता संघर्ष के बिगुल की आवाज की उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगी। 1929 के दिसंबर में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू की सदारत में पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित हुआ। ब्रिटिश साम्राज्य से अपना संबंध विच्छेद करने की घोषणा हुई। 26 जनवरी 1930 को पूरे देश ने स्वतंत्रता की शपथ ली और सिविल नाफरमानी का आंदोलन आरंभ कर दिया। गांधीजी द्वारा किए गए लोकशिक्षण, लोक संगठन और रचनात्मक कार्यक्रम व्यर्थ नहीं गए। लोगों में उत्साह के साथ एक नए किस्म का अनुशासन भी आया और सत्याग्रह के दौरान शांति और धैर्य से सभी प्रकार की यातना झेलने की नैतिक शक्ति उनमें उत्पन्न हुई।

1930 के सत्याग्रह का प्रारंभ दांडी मार्च और कानून तोड़ने से हुआ। शुरू में शिक्षित लोग गांधीजी के इस प्रतीकात्मक कार्य की खिल्ली उड़ाते थे। अंग्रेजों में भी यह किसी के ध्यान में नहीं आया कि यह कितना अर्थपूर्ण था और इससे भविष्य में लोगों को कितनी प्रेरणा मिलनेवाली थी। लेकिन नमक सत्याग्रह के सही महत्त्व को इंग्लैण्ड में बैठा चर्चिल अच्छी तरह समझ रहा था। हृदयंगम कर रहा था।

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