स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : 40वीं किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

नेताजी सुभाष ने अपनी पुस्तक द इण्डियन स्ट्रगल के संपूरक अंश में (जो 1943 में उन्होंने लिखा था) कहा है कि गांधीजी के सत्याग्रह के सिद्धांत से विदेशी हुकूमत को अवरुद्ध या ठप्प किया जा सकता था मगर बल प्रयोग के बिना उसे निकाल बाहर नहीं किया जा सकता था। नेताजी ने कहा कि यही कारण है कि आज (1942-43) हिंदुस्तान की क्रांति-उन्मुख जनता तोड़फोड़, सेबोटेज जैसे कई किस्म के बल-प्रयोग कर रही है। एक माने में यह नेताजी का कहना सही था। लेकिन जिन देशों ने अन्य तरीकों को अपनाया (जैसे आयरलैण्ड, अल्जीरिया या वियतनाम) क्या अंत में उनको भी समझौता नहीं करना पड़ा? वियतनाम के संघर्ष में देश के विभाजन को टालना वियतनामी राष्ट्रवाद के लिए संभव हो सका, मगर यह कार्य (भारत की तरह) आयरिश राष्ट्रवाद हथियारों के प्रयोग के बावजूद नहीं कर पाया। इन दोनों देशों में प्रोटेस्टेंट-रोमन कैथलिक तथा हिंदू-मुसलमान जैसे तीव्र विग्रही तत्त्व थे और ये ही विभाजन का कारण बने।

गांधीजी की कार्यप्रणाली में विनयशीलता और सौजन्य को अनन्य महत्त्व प्राप्त था। सत्याग्रही को, मत-परिवर्तन से भी अधिक हृदय-परिवर्तन को महत्त्व देना चाहिए ऐसी गांधीजी की धारणा थी। मतभेद होने पर भी उऩकी अभिव्यक्ति अत्यंत सौजन्यपूर्ण तरीके से ही होनी चाहिए, प्रत्यारोप नहीं लगाना चाहिए, प्रतिपक्षी के प्रति हमेशा आदर की भावना रखनी चाहिए, ऐसा गांधीजी के आचरण का सिदधांत था। गांधीजी ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर से लेकर अंग्रेजों तक सबसे विवाद किया। मगर मतभेदों की अभिव्यक्ति के समय सौम्यतम शब्दों का ही उन्होंने प्रयोग किया। सिर्फ सौम्य शब्दों के प्रयोग और मधुर व्यवहार मात्र से सिद्धांत के संघर्ष को टाला नहीं जा सकता, ऐसा तिलकजी कहते थे। डॉ. लोहिया ने भी ऐसा ही प्रतिपादित किया है।

तिलक-आगरकर के बीच तो अत्यंत व्यक्तिगत और निम्न स्तर पर विवाद होता था। समाजवादी–कम्युनिस्ट भी इसी तरह तीखे वाक्य प्रयोग के आदी रहे हैं। मगर गांधीजी ने इसके बारे में एक अत्यंत नया आदर्श प्रस्तुत किया था। स्वभावविशेष या स्वभावदोष के कारण हम लोग उनकी बात को ताक पर रख देते हैं। मगर गांधीजी की वाद-विवाद शैली उनके अहिंसात्मक प्रतिकार के सिद्धांत के अनुरूप थी। इसमें कोई शक नहीं है। गांधीजी के मधुर व्यवहार से कुछ हद तक वातावरण विषाक्त होने से बच जाता था, यह उनके विरोधियों को भी स्वीकारना पड़ता था। इसीलिए लाला लाजपतराय ने कहा था कि हिंदुस्तान के सार्वजनिक जीवन में गांधीजी जैसा शालीन और सौजन्यशील और कोई नहीं हुआ।

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