भारत छोड़ो’ का प्रस्ताव 8 अगस्त की रात पारित हुआ और उसके कुछ घंटों के बाद ही सरकार द्वारा भारत सुरक्षा नजरबंदी कानून के तहत नेताओं की धरपकड़ शुरू हो गयी। कांग्रेस वर्किंग कमेटी के लगभग सभी सदस्य और आमंत्रित नेता गिरफ्तार कर लिये गए। नेताओं की नजरबंदी का स्थल अज्ञात रखा गया। महात्मा गांधी और उनके आश्रमवासियों को पूना के नजदीक आगा ख़ां महल में नजरबंद रखा गया जबकि वर्किंग कमेटी के सदस्यों, नेहरू, सरदार पटेल आदि को पूना से 70-75 मील दूर अहमदनगर के पुराने किले में।
9 अगस्त की प्रातः समाजवादी नेता अच्युत पटवर्धन के भाई के घर पर बंबई में एक बैठक हुई। आगे क्या करना है, इस पर आपस में विचार-विमर्श हुआ। यह तय किया गया कि स्वेच्छा से अंग्रेजों की जेलों में चुपचाप चले जाने के बजाय हमें भूमिगत रहकर आंदोलन करना चाहिए। यह निर्णय सर्वसम्मति से हुआ। चूंकि श्री अच्युत पटवर्धन समाजवादियों के एक बड़े नेता थे, एक जमाने में कांग्रेस वर्किंग कमेटी के भी सदस्य थे और गांधीवादी विचारधारा वाले कांग्रेसियों के साथ भी चूंकि उनके अच्छे रिश्ते थे, भूमिगत आंदोलन संगठित करने का भार स्वाभाविक ढंग से उन्हीं पर सौंपा गया। दूसरे समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया भी उस दिन गिरफ्तारी से बच गए थे।
अच्युत पटवर्धन और राममनोहर लोहिया ने धरपकड़ से बचे गांधीवादी नेताओं से बातचीत कर अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का भूमिगत कार्यालय स्थापित किया। गांधीवादी नेताओं में श्रीमती सुचेता कृपलानी, रंगराव दिवाकर और बंगाल के आनंद चौधरी आदि प्रमुख थे। भूमिगत आंदोलन की एक तेजस्वी तारिका के रूप में उस समय एक और महिला चमकी थीं जिनका नाम है अरुणा आसफ अली। श्रीमती आसफ अली दिल्ली के कांग्रेसी नेता आसफ अली साहब की पत्नी हैं। इससे पहले राजनीति में उनका बहुत सक्रिय रोल नहीं था, हालांकि राजनीतिक विचार प्रवाह से वे अच्छी तरह अवगत थीं। गवालिया टैंक मैदान की अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का प्रस्ताव, इस ऐतिहासिक सभा का रोमांचकारी वातावरण तथा गांधीजी का ‘भारत छोड़ो’ और ‘करो या मरो’ का नारा अरुणाजी को इतना आकर्षक लगा कि उन्होंने पूरी ताकत के साथ इस भूमिगत आंदोलन में अपने आप को झोंक दिया।
गवालिया टैंक के मैदान पर, जहाँ ए.आई.सी.सी. का अधिवेशन हुआ था, वहीं 9 अगस्त को प्रातः झंडारोहण का कार्यक्रम अरुणाजी के हाथों संपन्न कराने का प्रयास हुआ। अत्यधिक भीड़ और मूसलाधार वर्षा के बीच पुलिस ने बड़े पैमाने पर अश्रुगैस और लाठी आदि का प्रयोग किया। 9 अगस्त की गिरफ्तारी की खबर सारे देश में फैलते ही सिर्फ बंबई में ही नहीं जगह-जगह जनता ने स्वतःस्फूर्त ढंग से अंग्रेजों का प्रतिकार शुरू कर दिया। जनता द्वारा 9 अगस्त के बाद जो कुछ किया गया, उसमें निम्नलिखित कार्य उल्लेखनीय है:
1. जहाँ-तहाँ और विशेषकर बिहार, उत्तरप्रदेश, बंगाल, महाराष्ट्र आदि में जनता ने जबरदस्त जुलूस निकाल कर सरकारी कचहरियों पर हमला किया। उन पर से सरकारी झंडे उतार कर तिरंगा फहरा दिया। कचहरियों पर कब्जा करने के प्रयास में कई लोग शहीद हो गए। जिन इलाकों में सारी जनता विद्रोह करने के लिए खड़ी हो गयी थी वहाँ हिंसा, हत्या, और अन्य अवांछनीय घटनाएं अत्यंत स्वल्प अनुपात में हुईं।
2. जैसे ही भूमिगत आंदोलन संगठित होने लगा, नौजवानों के दस्ते रेल की पटरियों को उखाड़ कर, रेलवे स्टेशन आदि जलाकर यातायात के साधनों को अस्त-व्यस्त करने में लग गए।
3. उस समय का माहौल कुछ ऐसा था कि किशोरलाल मशरूवाला जैसे निष्ठावान गांधीवादियों ने भी टेलीफोन और टेलीग्राफ के तार काटना, रेल की फिश प्लेट्स निकालना, बिजली के कनेक्शन काट देना जैसे विध्वंसात्मक कार्य किये। आंध्र से भी कांग्रेस कमेटी के नाम एक परिपत्र जारी हुआ था जिसमें इस तरह के कार्यक्रमों को स्वीकार किया गया था।
4. भूमिगत अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की ओर से भी विध्वंसात्मक कार्रवाई के द्वारा अंग्रेजी हुकूमत को जाम करने का नारा दिया गया था। डॉ. राममनोहर लोहिया तथा अच्युत पटवर्धन ने आंदोलन के कार्यक्रम की व्यापकता और सीमाओं को अभिव्यक्त करने के लिए एक नारा जारी किया-“न हत्या न चोट”। यानी कोई भी आदमी अंग्रेज या उसके एजेण्ट की न हत्या करे और न उसको किसी तरह की शारीरिक चोट पहुँचाए। उनका कहना था कि अंग्रेजी प्रशासन का आवश्यक ढाँचा तहस-नहस कर देने से अहिंसा के सिद्धांतों की मर्यादा नहीं टूटती।
5. अगस्त क्रांति के दौरान प्रचार और प्रतिकार के नए-नए तरीके आविष्कृत किए गए। इनमें से एक अत्यंत आकर्षक प्रयोग था भूमिगत रेडियो का। इस कल्पना के जनक थे डॉ. राममनोहर लोहिया। इसको साकार और कार्यान्वित करने में जिन लोगों की प्रमुख भूमिका थी उनमें उषा मेहता का नाम उल्लेखनीय है। साधनों के अभाव में यह भूमिगत आकाशवाणी केंद्र बहुत अधिक दिन चल नहीं पाया। लेकिन अपने अल्पकालीन अस्तित्व के दौरान बंबई की जनता को इसने काफी प्रभावित किया।
अंग्रेजी हुकूमत के द्वारा 1942 की घटनाओं के बारे में एक पुस्तिका जारी की गयी थी जिसमें अगस्त के उपद्रवों के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार साबित करने का प्रयास किया गया था। इस पुस्तिका में कहा गया है कि 9 अगस्त को सिर्फ बंबई, अहमदाबाद और पूना में उपद्रव हुए लेकिन बाकी देश उस दिन शांत रहा। 10 अगस्त को दिल्ली और उत्तरप्रदेश के कुछ नगरों में उपद्रव शुरू हो गए। पुस्तिका के लेखक का कहना है कि 11 अगस्त के बाद स्थिति तेजी से बिगड़ने लगी। (पृ.22) उस दिन और उसके बाद हड़ताल, सभाएं, जुलूस, प्रदर्शन आदि के अलावा हिंसा, आगजनी, हत्याएं और विध्वंस के कार्य कई जगह शुरू हो गए। भीड़ का लक्ष्य विशेषकर डाकघर और पुलिस की चौकियाँ, बिजली के खंभे, टेलीफोन के तार आदि थे। यह उपद्रव मद्रास, बिहार, बंबई, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश आदि सब जगह एकसाथ शुरू हो गए।
इस घटनाक्रम से हुकूमत ने यह अनुमान लगाया था कि किसी केंद्र के द्वारा आंदोलनकारियों को आदेश दिए जा रहे थे। सरकार का यह सिद्ध करने का प्रयास, कि इस प्रकार के गुप्त आदेश स्वयं गांधीजी की सम्मति से जारी किए गए थे, सर्वथा निराधार और निरर्थक था। हाँ, यदि यह आरोप सरकार भूमिगत नेताओं पर लगाती तो इसमें अवश्य सत्यता थी। इन विध्वंसकारी कार्रवाइयों का बहुत व्यापक असर हुआ, यह उक्त पुस्तिका में स्वीकार किया गया है। सरकार ने यह भी कहा है कि इसके पीछे कोई संगठित योजना थी क्योंकि विशेष तैयारी और तकनीकी जानकारी के अभाव में इस तरह का व्यापक विध्वंस संभव नहीं था।
परंतु इसमें सरकार एक चूक कर गयी। आंदोलन को व्यापक जनसमर्थन प्राप्त था और उसमें तकनीकी ज्ञान रखनेवाले भी पर्याप्त मात्रा में थे। इंजीनियरिंग, तकनीकी विशेषज्ञा या विज्ञान के छात्र सभी ने इसमें हिस्सा लिया था, इसलिए ये सब काम करने के लिए किसी लंबे षड्यंत्र की आवश्यकता नहीं थी। साधारण लोग चीजों को अनुभव से बहुत जल्दी सीख लेते हैं। ये सारा काम किराये के लोगों ने नहीं, अपितु राष्ट्रीय भावना से प्रेरित नौजवानों ने किया था।
1942 के आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी सम्मिलित नहीं थी। चूंकि उसकी प्रेरणा का स्रोत मास्को था और रूस उस समय मित्र राष्ट्रों का एक घटक बनकर जर्मनी के साथ मरण-मारण की लड़ाई में उलझा हुआ था, भारत के कम्युनिस्ट कहने लगे कि अब साम्राज्यवादी युद्ध लोकयुद्ध के रूप में परिवर्तित हो गया है, अतः इस लोकयुद्ध में अंग्रेजों से सहयोग करना, उनकी मदद करना हमारा कर्तव्य हो जाता है। भारतीय कम्युनिस्टों का उन दिनों भारत के ट्रेड यूनियन आंदोलन और कारखाना मजदूरों पर अच्छा प्रभाव था। रायवादी तो पहले से ही सहयोगवादी थे। उन्हें ट्रेड यूनियन कार्य के लिए माहवार 15-16 हजार रुपये सरकार से प्राप्त होते थे। इसका नतीजा यह हुआ कि अहमदाबाद की कपड़ा मिलों और जमशेदपुर स्थित इस्पात कारखाना, इन दोनों प्रमुख उद्योग केंद्रों को छोड़कर बाकी सब जगह कारखानों में उत्पादन बिना किसी प्रकार के व्यवधान से चलता रहा। अगर कम्युनिस्ट पार्टी भी इस आंदोलन में शरीक हो जाती तो सभी उद्योगों को ठप करने में सफलता मिल जाती और मुल्क के जनमानस में कम्युनिस्ट पार्टी को एक विशेष स्थान प्राप्त हो जाता।
कम्युनिस्टों ने यूगोस्लाविया, चीन और वियतनाम में राष्ट्रीय भावना के अनुकूल जो कार्य किए थे उस कारण उन देशों में साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के वे सबसे बड़े अगुआ बन सके थे, लेकिन चूंकि 1930-32 के गांधीजी के सामुदायिक सिविल नाफरमानी के आंदोलन से वे अलग रहे और अगस्त 42 के आंदोलन का भी उन्होंने सक्रिय ढंग से विरोध किया, इसलिए भारतीय जनमानस में उनके प्रति एक व्यापक तिरस्कार की भावना पैदा हो गयी। भारत में कम्युनिस्टों के संगठन और विचार का विस्तार न होने का प्रमुख कारण था उनकी अगस्त 42 की क्रांति के प्रति दुश्मनी। कम्युनिस्ट पार्टी और उसके कार्यकर्ता उस समय जनमानस से कितनी दूर चले गए थे, इसका सबूत उनके उस बयान से मिल जाता है जिसमें उन्होंने सुभाष बाबू, जयप्रकाश नारायण तथा अन्य समाजवादी नेताओं को फासिस्टों के एजेंट घोषित कर उनको फाँसी पर लटकाए जाने की माँग की थी।