स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : 45वीं किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

स्वतंत्रता आंदोलन की आर्थिक नीति

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई। उस समय कांग्रेस का नेतृत्व अभिजात वर्ग के हाथों में था, अतः कांग्रेस की आर्थिक नीतियों पर उसके नेतृत्व और उसके हितों का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। यह बात उसके अधिवेशन में पारित प्रस्तावों से स्पष्ट होती है।

कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में जो प्रस्ताव पारित हुए थे उनमें एक प्रस्ताव फौजी खर्च (सुरक्षा सेनाओं का खर्च) घटाने के बारे में था। बाद के कांग्रेस अधिवेशनों में पास हुए कई प्रस्तावों मे भी सुरक्षा सेनाओं पर खर्च घटाने का सूत्र एक मुख्य सूत्र के रूप में पाया जाता है। प्रथम अधिवेशन में यह भी सुझाव दिया गया था कि यदि यह अनावश्यक तथा अत्यधिक खर्च घटाया नहीं जा सकता है तो कम से कम उसको पूरा करने के लिए निम्न तरीके अपनाए जाएं

  1. विदेश से आनेवाले माल पर सीमा शुल्क बढ़ा दिया जाए।                                                 
  2. जिन सरकारी और गैरसरकारी वर्गों पर लाइसेंस टैक्स नहीं लगता है, उन पर यह लाइसेंस टैक्स लागू किया जाए, और                                              
  1. कर-निर्धारण का न्यूनतम आधार पर्याप्त मात्रा में ऊंचा रखा जाए।

कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में (जिसके अध्यक्ष दादाभाई नौरोजी थे) एक प्रस्ताव के द्वारा यह कहा गया है कि कांग्रेस को इस बात पर गहरी चिंता है कि मुल्क में प्रचण्ड संख्या में गरीबी बढ़ती चली जा रही है। अतः कांग्रेस ने गरीबों के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त करते हुए यह कहा कि  “भारत में प्रातिनिधिक संस्थाओं की स्थापना गरीबी के निराकरण की ओर एक कारगर कदम होगा।

एक अन्य प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि कौंसिल के सदस्यों को यात्रा-भत्ते के अलावा तनख्वाह या अन्य मानदेय न दिए जाएं। सभी प्रतिनिधि जानते थे कि कौंसिल के सदस्य संपन्न परिवारों से आएंगे जिनके आमदनी के अपने स्वतंत्र स्रोत रहेंगे।

1887 में एक प्रस्ताव द्वारा यह राय व्यक्त की गयी थी कि आज जो एक बार हजार रुपए वार्षिक आय के नीचे इनकम टैक्स लगता है उससे कर-वसूली में कई दिक्कतें पेश आती हैं अतः एक हजार की वार्षिक आय तक कोई इनकम टैक्स न लगाया जाए।

1888 में एक प्रस्ताव द्वारा यांत्रिक शिक्षा के प्रसार की आवश्यकता पर जोर दिया गया तथा राज्य द्वारा देसी कारखानेदारों को प्रोत्साहन दिये जाने पर बल दिया गया। 1889 में भारत की औद्योगिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए एक कमीशन बनाने की मांग की गयी और यह भी कहा गया कि सरकार को चाहिए कि वह स्वदेशी उद्योगों की तरह से सहायता करे। इसी अधिवेशन में पारित एक अन्य प्रस्ताव में यह भी सुझाव दिया गया कि बंगाल प्रांत में जो स्थायी लगान व्यवस्था (परमानेंट सेटलमेंट) अस्तित्व में है, उसको मद्रास, बंबई आदि प्रांतों में लागू करने की दृष्टि से विचार किया जाए। इस अधिवेशन की यह भी खुसूसियत थी कि इसने नमक पर लगाए गए कर पर विचार करने के पश्चात् इसमें वृद्धि करने के सरकारी निर्णय का विरोध किया। विरोध का कारण यह बताया गया कि इस वृद्धि का बोझ हिंदुस्तान के सबसे गरीब आदमी पर पड़ेगा। हिंदुस्तान जैसे गर्म देश में नमक साधारण जनता की आवश्यकता है, अतः इस पर टैक्स बढ़ाना सर्वथा अनुचित होगा।

राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रथम पांच अधिवेशनों के अर्थनीति संबंधी प्रस्तावों का यदि विश्लेषण किया जाए तो निम्न बातें स्पष्ट होती हैं :

  1. प्रारंभ से ही स्वदेशी उद्योगों को प्रोत्साहन देने की मांग को कांग्रेस ने इसलिए आगे बढ़ाया क्योंकि भारत में जो नए कारखानेदारों और उद्योगपतियों का वर्ग (जिसे मार्क्स ने बूर्ज्वा कहा है) पैदा हो रहा था, उसके प्रति राष्ट्रीय कांग्रेस की पूरी सहानुभूति थी। इस वर्ग के हितों की रक्षा करने हेतु कार्यक्रम बनाना स्वाभाविक था क्योंकि इस वर्ग की भी कांग्रेस के कार्यक्रमों में पूरी हिस्सेदारी थी।       
  2. विदेशी माल पर सीमा शुल्क बढ़ाने का प्रस्ताव भी इसी वर्गचरित्र का परिचायक है।                                    
  3. इनकम टैक्स की सीमा एक हजार तक ले जाने की बात से भी इस वास्तविकता का पता चलता है कि कांग्रेस ऐसे शिक्षित मध्यमवर्गीय लोगों को राहत पहुंचाना चाहती थी जिनकी आमदनी एक हजार से कुछ कम थी। स्मरणीय है कि उन दिनों इनकम टैक्स की छूट की सीमा पांच सौ रुपए वार्षिक थी। इसीलिए यह मांग की गयी थी कि यह सीमा एक हजार रुपए तक कर दी जाए। हजार रुपए उन दिनों गरीबी की सीमा रेखा नहीं थी।

आज इनकम टैक्स फर छूट की सीमा पन्द्रह हजार वार्षिक है लेकिन लगभग सौ साल पहले जो दामों का स्तर था और जो प्रति व्यक्ति आय थी, उसको दृष्टिगत रखते हुए एक हजार की सीमा मध्यम वर्ग के लिए काफी लाभदायक थी, यह स्वीकारना पड़ेगा।

उपरोक्त प्रस्तावों से कांग्रेस के वर्गस्वरूप पर अच्छी रोशनी पड़ती है। हां, यह बात सत्य है कि दादाभाई नौरोजी की प्रेरणा से भारत की गरीबी पर एक साधारण प्रस्ताव जरूर पास हुआ था तथा नमक कर में वृद्धि के खिलाफ भी कांग्रेस ने अपनी राय दर्ज की थी।

लेकिन स्थायी लगान प्रबन्ध को अन्य प्रांतों में लागू करने का सुझाव निःसंदेह असरकारक था। कांग्रेस की व्यापक राष्ट्रीय स्वरूप और आकांक्षा की झलक सिर्फ गरीबी संबंधी और नमक कर विरोधी प्रस्तावों से मिलती है। लेकिन इसके अतिरिक्त साधारण जनता की समस्याओं के प्रति कांग्रेस के नेतृत्व वर्ग में इक्के-दुक्के अपवादों को छोड़कर किसी तरह की न चेतना थी, न निचले वर्ग के प्रति गहरी सहानुभूति।

कांग्रेस के प्रस्तावों और अध्यक्षीय भाषणों का अध्ययन करने पर इस बात का तीव्र अहसास होता है कि कांग्रेस का नेतृत्व वर्ग ब्रिटेन की लिबरल पार्टी की विचारधारा से काफी प्रभावित था। सिर्फ दादाभाई नौरोजी, महादेव गोविंद रानाडे और रमेशचंद्र दत्त जैसे इने-गिने लोग अपवाद थे जिन्होंने एडम स्मिथ के खुले व्यापार विचार को जान-बूझकर ठुकरा दिया था। इन लोगों का मानना था कि खुले व्यापार की पद्धति औद्योगिक क्रांति में अगुवाई करनेवाले इंग्लैण्ड जैसे महान देशों के लिए तो हितकर हो सकती है, लेकिन हिंदुस्तान जैसे गुलाम देश में इसको ज्यों का त्यों लागू करना खतरे से खाली नहीं है क्योंकि यहां पर विदेशी हुकूमत द्वारा देसी उद्योगों को जान-बूझकर समाप्त किया जा रहा है। जिस तरह जर्मनी में फ्रैडरिक लिस्ट नाम के अर्थशास्त्री का कहना था कि औद्योगिक दृष्टि से पिछड़े हुए राष्ट्रों में राज्य का यह कर्तव्य है कि वह केवल पुलिस राज के रूप में ही काम न करे, केवल कानून और व्यवस्था कायम रखना ही उसका एकमात्र उद्देश्य न हो, बल्कि उस राज्य और सरकार को एक नीति के तौर पर स्वदेशी उद्योगों को प्रोत्साहन देने का काम भी करना चाहिए। यहां भी उसी तरह दादाभाई नौरोजी, रानाडे आदि आर्थिक मामलों में प्रशासकीय हस्तक्षेप के पक्षधर थे। इन अर्थशास्त्रियों का कहना था कि जहां निजी पूंजी आवश्यक उद्योगों का निर्माण करने में असमर्थ हो, वहां ऐसे उद्योगों के निर्माण में सरकार को स्वयं पहल करनी चाहिए।

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