बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशनों में हर साल स्थायी लगान व्यवस्था, कृषि, शिक्षा का विस्तार, सैनिक और गैर-सैनिक खर्च में कटौती आदि के बारे में प्रस्ताव पारित होते रहे। हिंदुस्तान के ऊपर और दक्षिण के पहाड़ी क्षेत्रों में रहनेवाले लोगों के बारे में भी कांग्रेस ने 1893 में अपने लाहौर अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित किया था जिसमें वन्य कानूनों के तहत गरीब वर्ग के सताए जाने की चर्चा, लकड़ी आदि इकट्ठा करने के कुछ परंपरागत अधिकार थे। ब्रिटिश प्रशासन ने उनको छीनने और रैयत को तंग करने के दुष्ट प्रयत्न किए थे। वन्य कानूनों के अन्तर्गत जुल्म खत्म करने के बारे में लाहौर प्रस्ताव में सरकार से अनुरोध किया गया था।
वन्य कानूनों का मुख्य उद्देश्य अधिक से अधिक आमदनी प्राप्त करना नहीं, बल्कि जंगलों और वनों की रक्षा करके रैयत के लिए और मवेशियों के लिए उनके इस्तेमाल की सुविधाएं उपलब्ध कराना था। लेकिन छोटे अधिकारी मुख्य उद्देश्य को नजरअंदाज करके रैयत को सताने का काम करते हैं।
हिंदुस्तान में एक अर्से से बेगार या बँधुआ मजदूरों की प्रणाली चली आ रही है। गरीबों और पिछड़े वर्गों के लोगों को प्रतिष्ठित और धनी लोगों द्वारा हमेशा सताया जाता रहा है और शोषित को इन वर्गों के लिए बेगार करनी पड़ती है। लाहौर अधिवेशन में (जिसके सभापति फिर दादाभाई नौरोजी थे) सरकार से माँग की गयी कि प्रस्तावों को, जो सिर्फ कागज पर रह गए हैं, अमल में लाया जाए। स्वतंत्रता के 35 साल बाद, और संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकार के बावजूद, आज भी इस मुल्क में जहाँ-तहाँ बँधुआ मजदूरी की प्रथा बरकरार है। इसको समाप्त करने में अब तक न सरकार सफल रही है, न जन संगठनों ने इतनी लोकशक्ति का सर्जन किया है कि इस प्रथा को हमेशा के लिए मिटा दिया जाए।
लाहौर के बाद अगले वर्ष के मद्रास अधिवेशन ने देसी पूँजीवाद के हित में एक महत्त्वपूर्ण कदम उठाया। भारत में तैयार होनेवाले कपड़े पर उत्पादन शुल्क लगाने को औद्योगिक नीति की दृष्टि से खतरनाक ठहराया गया। कांग्रेस ने यह स्पष्ट रूप से कहा कि हमारा यह गहरा विश्वास है कि यह काम सिर्फ लंकाशायर के अंग्रेज पूँजीपतियों के हित में किया गया है। उन्होंने इस बात पर अफसोस प्रकट किया कि सेक्रेटरी ऑफ स्टेट ने भारतीय कपड़ा उद्योग के हितों का जरा भी खयाल न रखते हुए भारतीय हितों को लंकाशायर के कपड़ा उद्योग के हाथों बेच दिया है। प्रस्ताव में यह माँग की गयी है कि कम से कम सरकार अपने अधिकारों का इस्तेमाल करके कुछ कपड़े की किस्म को उत्पाद शुल्क से मुक्त करे।
1894 के मद्रास अधिवेशन की यह भी विशेषता रही कि हिंदुस्तान की वित्तीय स्थिति के बारे में जाँच करने के लिए ब्रिटेन के संसद सदस्यों की जो प्रवर समिति बनाई जा रही थी, उसका उल्लेख करते हुए इसमें यह माँग की गयी कि इस समिति का जाँच-क्षेत्र विस्तृत कर दिया जाए और हिंदुस्तान के लोगों में वर्तमान वित्तीय बोझ को ढोने की क्षमता है या नहीं, इस बुनियादी बात की भी जाँच-पड़ताल की जाए।
अतीत के समान इस अधिवेशन में भी भारत की गरीबी के बारे में प्रस्ताव पास किया गया। भुखमरी से होनेवाली लाखों लोगों की मृत्यु पर हार्दिक शोक प्रकट किया गया। लेकिन इस प्रस्ताव में इस गरीबी को दूर करने के लिए एक भी ठोस सुझाव नहीं दिया गया। जनरल बूथ के द्वारा जो एकमात्र सुझाव दिया गया था, उसका क्या हश्र हुआ, यह हम पहले ही देख चुके हैं।
1895 के पूना अधिवेशन में एक प्रस्ताव में यह कहा गया था कि रेल की आमदनी का सबसे बड़ा अंश तीसरे दर्जे के यात्रियों से प्राप्त होता है। अतः सरकार इन यात्रियों की शिकायतों पर गौर करे और उनके निराकरण के लिए तत्काल उपाय करे।
अगले साल, यानी 1896 में कलकत्ता में राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन में मुल्क में व्याप्त दुर्भिक्ष की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया गया और कहा गया कि अकाल तथा कमी के दिनों में सबसे पहले गरीब लोग मौत के घाट उतरते हैं। अतः दुर्भिक्ष से निपटने के लिए सरकार को स्थायी और पक्का इंतजाम करना चाहिए। दूसरे, सरकारी खर्चों में कटौती करके करों का बोझ जहाँ घटाना चाहिए वहाँ देशी उद्योग और हस्त व्यवसायों को प्रोत्साहन देकर नए उद्योगों के निर्माण में भी सरकार को मदद करनी चाहिए। इस तरह पहली बार हस्तोद्योग की चर्चा कांग्रेस अधिवेशन में हुई।
कलकत्ता अधिवेशन के प्रस्ताव में राहत कार्यों के बारे में भी सुझाव दिया गया था। आश्चर्य की बात है कि इस प्रस्ताव में सिंचाई योजनाओं का उल्लेख तक नहीं है। इससे पता चलता है कि कांग्रेस का स्थापित नेतृत्व कृषि समस्याओं के बारे में गहरी जानकारी नहीं रखता था। अकाल के स्थायी इलाज के एक पहलू को तो उन्होंने सरकार के सामने रखा (उद्योगों को प्रोत्साहन दिया जाए), लेकिन सिंचाई के द्वारा कृषि की मानसून पर निर्भरता खत्म करने के बारे में, और कृषि उत्पादन बढ़ाने के बारे में, कोई सुझाव नहीं दिया गया। अर्थात् एक बात सही है कि कांग्रेस अधिवेशन में हर साल सरकार के द्वारा लगान बढ़ाने के जो प्रयास किए जाते थे, उनके खिलाफ विरोध दर्ज किया जाता था, काश्तकारों के हितों की रक्षा की बात होती थी।
1899 के लखनऊ अधिवेशन में कृषकों को कर्ज से राहत देने के बारे में कुछ प्रस्ताव रखे गए थे। काश्तकारों की कर्जे की जटिल समस्या को पहली बार कांग्रेस के प्रस्ताव में जगह मिली। लेकिन उसमें दिया गया सुझाव बहुत ही अपर्याप्त था।
शायद यह जानकर हमें अचरज हो कि 1898 में हिंदुस्तान के वायसराय के पद पर जब लॉर्ड कर्जन की नियुक्ति हुई तो कांग्रेस अधिवेशन की ओर से उन्हें एक शुभ संदेश भेजा गया था जिसमें हिंदुस्तान के लोगों के बारे में कर्जन ने जो शुभेच्छा व्यक्त की थी उसके लिए उनके प्रति कांग्रेस ने अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट की थी। अचरज इसलिए कि जिसके प्रति शुभेच्छा प्रकट की गयी थी अगले छह वर्षों के अंदर उसी कर्जन के बारे में भारतीय लोकमत की राय पूरी तरह बदल गयी। कर्जन के अनेक मौलिक गुणों के बावजूद हर हिंदुस्तानी कर्जन को प्रतिक्रियावादी तथा साम्राज्यवाद का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक और राष्ट्रीय स्वतंत्रता का दुश्मन मानने लगा।
उन प्रारंभिक वर्षों में कांग्रेस के अधिवेशनों में तकनीकी शिक्षा के बारे में लगातार प्रस्ताव पारित होते थे और अपर्याप्त तथा असंतोषजनक यांत्रिक शिक्षा के लिए सरकार को कोसा जाता था। 1899 के अधिवेशन में श्री जमशेदजी टाटा का इसलिए अभिनंदन किया गया कि उन्होंने एक बड़ी रकम वैज्ञानिक शिक्षा तथा वैज्ञानिक खोजशोध के लिए अनुदान के रूप में दान की थी। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री रमेशचंद्र दत्त की अध्यक्षता में हुए 1899 के अधिवेशन में आवाज उठायी गयी कि अकाल की समस्या के संदर्भ में भारतीय जनता की आर्थिक स्थिति की सर्वांगीण जाँच करने के लिए एक कमीशन नियुक्त किए जाए। इस अधिवेशन के द्वारा यह भी माँग की गयी कि हिंदुस्तान की सीमाओं के अंदर बड़ी संख्या में अंग्रेजी फौज की यूनिटें रखना आवश्यक नहीं है। रिजर्व फोर्स के नाते अंग्रेजी पलटनें यहाँ रह सकती हैं, लेकिन कम से कम 20 हजार अंग्रेजी सिपाहियों का खर्चा हिंदुस्तान के ऊपर नहीं, बल्कि ब्रिटेन के बजट पर डालना चाहिए।