इस मुश्किल दौर में राह दिखाती एक किताब

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— हिमांशु जोशी —

स किताब के हर विषय पर लेखक के साथ बैठ घंटों चर्चा करने का मन होगा कि कैसे वर्तमान समय में मुक्ति के रास्ते पर चला जाए, लेकिन अफसोस आज प्रोफेसर लालबहादुर वर्मा हमारे बीच नहीं हैं। उन्होंने जिस समाज की कल्पना की थी उस पर उनके बिना चलना बहुत मुश्किल होगा। आइंस्टीन, धर्मवीर भारती, बहुत सी किताबों, ग्रंथों का हवाला देते हुए प्रोफेसर की यह किताब मुक्ति का मार्ग खोजती है।

किताब का आवरण चित्र बहुत बेहतरीन डिजाइन किया गया है, उसे देखकर आप महसूस कर सकते हैं कि हमें आजादी किस कीमत पर मिलती है। यहां पर आपको आजादी की परिभाषा भी पढ़ने के लिए मिल जाएगी। पीछे के आवरण का लिखा पढ़ कोरोना काल में खोए महत्त्वपूर्ण लोग याद आते हैं, जिनमें से एक किताब के लेखक प्रोफेसर लालबहादुर वर्मा भी थे।

लालबहादुर वर्मा (10 जनवरी 1938 – 16 मई 2021)

‘क्रम’ से किताब के बारे में यह जानकारी मिलती है कि इसे भूमिका सहित बीस हिस्सों में बांटा गया है। एक पुत्री के द्वारा अपने पिता को याद करते पढ़ना पाठकों को किताब से भावनात्मक रूप से जोड़ देता है।

किताब की भूमिका ‘कश्मीरनामा’, ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ के लेखक अशोक कुमार पाण्डेय ने लिखी है। भूमिका में अशोक जी स्पष्ट कर देते हैं किताब में ऐसा क्या है जो आजादी को लेकर नयी समझ बनाने के लिए हमें पढ़ना चाहिए, किताब बनने की भावुक कर देनेवाली कहानी भी वह पाठकों के साथ साझा करते हैं।

अशोक कुमार पाण्डेय

किताब का पहला अध्याय ‘आजादी का मतलब है’। इसे पढ़ते हुए शुरुआत से ही पाठकों को किताब की भाषा बेहद आसान लगेगी और अंत तक किताब की भाषा ऐसी ही है।

पहले अध्याय की शुरुआत में पाठकों को दो ऐसी पंक्तियां पढ़ने को मिलती हैं जिन्होंने दो राष्ट्रों की तस्वीर बदल दी, ‘मनुष्य प्रकृतया स्वतंत्र है पर हर कहीं बंधनों में जकड़ा हुआ है’ फ्रांस। ‘स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे’ भारत।

इसी अध्याय की पंक्ति ‘आज का मनुष्य जितना मुक्तिकामी है उतना पहले कभी नहीं था पर यथार्थ यह है कि मनुष्य आज जितना दास है उतना पहले कभी नहीं था’ पाठकों को भीतर तक झकझोर देती है।

दूसरा अध्याय ‘दासता यानी गुलामी’ इस बात से शुरू होता है कि दासता आज भी एक सूक्ष्म और व्यापक समस्या है, जैसे मजदूर अपनी पत्नी को दास समझता है। लेखक ने विश्व भर से दासता का इतिहास बताने के लिए बहुत सी कविताओं और उपन्यासों का उदाहरण दिया है।

‘मजदूरों की अपेक्षा दास महंगे पड़ते हैं’ पंक्ति मजदूरों के जन्म का कारण स्पष्ट कर देती है। लेखक ने इसके आगे अमरीका में दासता का इतिहास तो भारत में दासता का वर्तमान लिखा है।इस अध्याय से आप समझ जाएंगे कि आज देश में धर्म और रोजगार के नाम पर जो कुछ भी किया जा रहा है, वह लोकतंत्र के बिल्कुल खिलाफ है।

तीसरे अध्याय ‘राज्यसत्ता से मुक्ति’ की शुरुआत में लेखक ने राज्य और ईश्वर के बीच अद्भुत तुलना की है। पृष्ठ 37 में फ्रांसीसी क्रांति के बारे में पढ़ते हुए आपको भारतीय राजनीति के कई वर्तमान चेहरे याद आने लगेंगे।

‘राज्य की सत्ता जिनके हाथ में होती है, उनका ही हित प्राथमिक और निर्णायक होता है’ पंक्ति बड़ी महत्त्वपूर्ण है। कई विचारकों के विचार पढ़ने के साथ आपको यहां पर इतिहास में राज्य के खिलाफ हुए आंदोलनों के बारे में पढ़ने के लिए भी मिलेगा। अध्याय चार ‘पितृसत्ता से आजादी’ की शुरुआत लेखक ने सालों से पितृसत्ता स्थापित करने के लिए हो रहे प्रयासों के उदाहरण देने से की है। ‘थेरीगाथा’ में पितृसत्ता से मुक्ति की खोज के लिए भिक्षुणियों की लिखी कविताएं बड़ी प्रभावित करनेवाली हैं।

किताब की खूबी यह है कि इसमें इतिहास की किसी आम किताब की तरह तिथि और नाम नहीं दिए गए हैं जो आपको इससे दूर भगाएं, इतिहास को वर्तमान से जिस तरह किताब में जोड़ा गया है वो इसे पढ़ते समय पाठकों की किताब के प्रति रुचि बनाए रखता है।

पृष्ठ 56 पर लेखक ने नारी को मानव समाज का अंतिम उपनिवेश कहा है, इस पृष्ठ पर नारी को लेकर लिखा गया उनका हर शब्द नारी स्वतंत्रता को लेकर एक नयी चर्चा शुरू कराने का माद्दा रखता है।

अध्याय पांच बड़ा रोचक बन पड़ा है, यहां लेखक ने गरीबी को जिस तरह समझाया है यह उनके जीवन भर के अनुभवों का निचोड़ लगता है। इस अध्याय से लेखक पाठकों को यह समझाने में कामयाब रहे हैं कि हमने गरीबी की जो परिभाषा समझी है वो परिभाषा ही गलत है। अध्याय छह में जिस राष्ट्रवाद के बारे में लेखक ने लिखा है ,रूस-यूक्रेन युद्ध उसी का नतीजा जान पड़ता है। अध्याय सात ‘युद्ध मुक्ति का साधन है या बंधन’ में युद्ध का कारण बड़ी ही सरल भाषा में लिख दिया गया है।

अध्याय आठ की पहली पंक्ति में पूंजीवाद की परिभाषा नए अंदाज से लिखी गयी है। किताब में लेखक ने हर बात की वजह कुछ इस तरह से समझाई है कि आप उनसे इनकार नहीं कर पाएंगे। इस अध्याय में चीन और सोवियत यूनियन में पूंजीवाद की जड़ें मजबूत होने की पूरी कहानी समझाई है। अध्याय नौ किताब के बेहतरीन अध्यायों में शामिल है। फ़ैज़ और ग़ालिब के कथन और उनके सहारे इंसान में संस्कृति को परिभाषित करना, ये सब आपको लेखक का प्रशंसक बना देगा।

सांस्कृतिक गरीबी बढ़ने पर यह पंक्ति कि ‘हमारे समाज को आज तक यह नहीं पता है कि सर्जन और आनन्द के लिए अवकाश जरूरी होता है’ सटीक बैठती है। अध्याय दस संयुक्त राष्ट्र संघ और अमरीका के पाखंड को खुलकर हमारे सामने रखता है। सम्पादक की तरफ से अंत में एक पन्ने का अपडेट जोड़ा है, जो जरूरी था। प्रदूषण की समस्या को मुक्ति से जोड़ना वर्तमान की जरूरत है और लेखक ने इस काम को पूरा किया है।

पृष्ठ 127 पर अध्याय 11 की महत्त्वपूर्ण बातें लिखी हैं, इन्हें पढ़ आपको आजकल सोशल मीडिया में धर्म को लेकर चल रही सभी पोस्टें याद आ जाएंगी। पाठक इन्हें समझ जाएं तो धर्म का फायदा उठानेवाले लोगों की दुकानें आज ही बंद हो जाएंगी। अध्याय 12 में एक श्लोक के हर शब्द को विस्तृत रूप देकर लेखक फिर अचंभित करते हैं।

अध्याय 12 ‘भय से मुक्ति’ में हिटलर, भारत और अमरीका के बीच जो सम्बन्ध जोड़ा गया है, उसे समझने भर के लिए ही किताब खरीदी जा सकती है। इसी भय से मुक्ति में भारत का उज्ज्वल भविष्य भी छुपा हुआ है।

जाति, बोरियत, उपभोक्तावाद, अज्ञान, मृत्यु और मुक्ति से मुक्ति जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों के साथ समाज के लिए कई कल्याणकारी रास्तों को खोजती किताब समाप्ति की तरफ लिखी गयी है।

उपभोक्तावाद के लिए उदाहरण ‘गरीब पौष्टिक भोजन कर पाए या नहीं, वह मंजन और शैम्पू का इस्तेमाल करने की आदत में फंसता जा रहा है’ बेहतरीन है। किताब का अंत तब विचारों में डुबा देता है जब लेखक जीवन के सदुपयोग पर लिखते हैं, पाठक इसे पढ़ खुद को सवालों के घेरे में पाते हैं।

किताब : आजादी का मतलब क्या
लेखक : लालबहादुर वर्मा
संपादक : अशोक कुमार पाण्डेय
प्रकाशन : राजपाल प्रकाशन
मूल्य : 265 रुपए
लिंक- https://amzn.eu/d/eYEfuJ2

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