28 जून। ‘बढ़ते राष्ट्रीय संकट में नागरिक समाज की भूमिका’ पर आयोजित कर्नाटक राज्य सम्मेलन का उदघाटन करते हुए न्यायमूर्ति एच.नागमोहन दास ने कहा कि देश में सत्तापक्ष और नागरिक समाज में परस्पर विश्वास का कम होना एक चिंताजनक परिवर्तन है। इसके फलस्वरूप सरकार नागरिकों की अभिव्यक्ति की आजादी को देशद्रोह समझने की गलती कर रही है और जनसाधारण हर सरकारी फैसले को शक की निगाह से देख रहे हैं।
नागरिक संवाद की शुरुआत सभी प्रतिनिधियों द्वारा महात्मा गांधी की प्रतिमा के समक्ष एक मौन प्रदर्शन के जरिए मानवाधिकार रक्षक नागरिक समाज की सक्रिय प्रतीक तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ्तारी के विरोध से की गयी। बेंगलुरु के गांधी भवन के जेपी सभागार में जन-आंदोलन महामैत्री, सिटीजेंस फ़ॉर डेमोक्रेसी, जनसंग्राम परिषद और साम्प्रदायिक सद्भावना समाज के संयुक्त तत्वावधान में 25-26 जून को सम्पन्न इस संवाद में कर्नाटक के 45 जनसंगठनों ने अंतिम सत्र में ‘बेंगलुरू आवाहन’ स्वीकारा और एक संघर्ष संचालन समिति की घोषणा की, जिससे विविध नागरिक संगठनों की तरफ से देश की हर दिशा में नागरिक संवादों का आयोजन किया जा सके।
यह याद रखना होगा कि देश की राजधानी में पिछले साल खेती के कारपोरेटीकरण के खिलाफ एक साल तक चले किसानों के अहिंसक प्रतिरोध के दबाव में केंद्र सरकार ने तीन विवादास्पद कानूनों को वापस लेने का उचित निर्णय लिया। लेकिन अब वैसे ही तीन किसान विरोधी कानून कर्नाटक में लागू करने की घोषणा से समूचे ग्रामीण कर्नाटक में बेचैनी का माहौल है।
सिटीजंस फॉर डेमोक्रेसी के राष्ट्रीय अध्यक्ष एस. आर. हिरेमठ ने अपने बीज-वक्तव्य में 1975 के आपातकाल को प्रधानमंत्री की कुर्सी बचाने की गैरकानूनी कोशिश के रूप में देखते हुए 2022 में की जा रही कोशिशों को ‘नागरिकों की महत्ता’ को नकारने की आत्मघाती चेष्टा बताया। यह भी कहा कि साम्प्रदायिक तानाशाही को बेपरदा करने के लिए नागरिक संगठनों की सक्रिय एकता एकमात्र उपाय है। 1975 की इमरजेंसी का मुकाबला करने में जयप्रकाश जैसा करिश्माई लोकनायक देश का मार्गदर्शक रहा। आज यह भूमिका नागरिक संगठनों को आगे बढ़कर निभानी होगी।
सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील और मानव अधिकार आंदोलन में 1970 के दशक से लगातार जुटे एन.डी.पंचोली ने न्यायपालिका की गिरती प्रतिष्ठा के लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार करार देते हुए न्यायव्यवस्था की मजबूती के लिए न्यायाधीशों और वकील समुदाय से संविधान और नागरिक आजादी की रक्षा का दायित्व पूरा करने की अपील की। इस सिलसिले में तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ्तारी के विरोध को जरूरी बताया।
दो दिवसीय जन-संवाद में क्रमश: कृषि संकट, संविधान की उपेक्षा, भारत के मूल आधारों पर प्रहार, बहुजन समाज का आगे बढ़ता न्याय अभियान, नागरिक एकता को साम्प्रदायिक ताकतों की चुनौती, देश की दुर्दशा को दूर करने में किसानों, श्रमिकों, महिलाओं, दलितों और लोकसंगठनों की भूमिका पर गम्भीर चर्चा के सत्र रखे गए। वक्ताओं में एस.आर. दारापुरी (उत्तर प्रदेश), अशोक दावाले (दिल्ली), दत्ता देसाई (महाराष्ट्र), आनंद कुमार (गोवा), यशोधम्मा (कर्नाटक), ए. नारायण (कर्नाटक), व राजा पटेरिया (मध्य प्रदेश) सम्मिलित थे। माइकेल फर्नांडीस (हिंद मजदूर किसान पंचायत), टी.आर. चंद्रशेखर (वैज्ञानिक), बदगलपुरा नागेन्द्र (कर्नाटक रैयत संघ), सुगत श्रीनिवासराजू (वरिष्ठ पत्रकार), मोहमद यूसुफ कन्नी (जमात ए इस्लाम हिंद), राघवेंद्र कुश्तगी (जनसंग्राम परिषद) और नंदिनी जयराम (जन आंदोलन महामैत्री) ने सत्रों की अध्यक्षता की।
सम्मेलन के आयोजन में किसान संगठनों, श्रमिक संगठनों, महिला संगठनों और रचनात्मक कार्य से जुड़ी संस्थाओं की केंद्रीय भूमिका रही। इसमें कांग्रेस, सी.पी.आई., सी.पी.एम., फारवर्ड ब्लाक, एस.यू.सी.आई., डी.एस.एस., कर्नाटक राष्ट्र समिति पार्टी, सी.पी .आई. (मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट), आर.पी. आई. और स्वराज इंडिया की सौम्य उपस्थिति भी रही। लेकिन रंगकर्मियों, लेखकों, वकीलों, शिक्षकों, विद्यार्थियों, बैंक कर्मचारियों और पत्रकारों के साथ हिंदू (शूद्र शक्ति, दलित महिला ऊकूटा), ईसाई (कंफेडरेशन ऑफ़ इंडियन क्रिश्चियंस) और मुस्लिम सामुदायिक संगठनों (कुरैशी कमेटी, मुस्लिम महिला समिति) के साथ सार्थक सहयोग उल्लेखनीय आयाम रहा।