आर्यों के आगमन या प्रस्थान के विषय में आधुनिक जेनेटिक विज्ञान क्या कहता है

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— रितु कौशिक —

विवाद का विषय यह है कि या तो भारत के बाहर से आर्यों का आगमन हुआ या फिर आर्य भारत से पुरी दुनिया में फैल गए थे। कई दशकों से इन्हीं दो बिन्दुओं पर विवाद चलता आ रहा है। आइए, सबसे पहले दूसरी संभावना पर गौर करें। दूसरी संभावना के अनुसार बड़ी संख्या में संस्कृत या मूल संस्कृत बोलने वाले हिंदुस्तानी पश्चिम की ओर गए और वे तथा उनके वंशज ईरान से लेकर मध्य एशिया, पश्चिम एशिया, पूर्वी यूरोप और पश्चिमी यूरोप तक के विराट क्षेत्र में फैल गए और इस तरह उन्होंने इस पूरे रास्ते में इंडो-यूरोपीयन भाषाओं के विभिन्न रूपों को जन्म दिया। यदि सचमुच ऐसा होता तो इस पूरे रास्ते में आदिम भारतीयों की आनुवांशिक निशानी (जेनेटिक सिगनेचर) का अच्छा-खासा प्रमाण मिलता। यदि हड़प्पा सभ्यता के पहले या बाद में हिंदुस्तान से कोई भी निष्क्रमण हुआ होता जिसकी वजह से इंडो-यूरोपीयन भाषाओं का प्रसार हुआ तो हमें मध्य एशिया से लेकर पश्चिम यूरोप तक सारे रास्ते में उनके पैरों के निशान जरूर दिखाई देते। आनुवांशिकी वैज्ञानिकों ने हड़प्पा सभ्यता से पहले के आदिम भारतीयों के जेनेटिक कोड को चिह्नित करने में सफलता प्राप्त की है और इसी जेनेटिक कोड के आधार पर वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि इस पूरे रास्ते में आदिम भारतीय जेनेटिक संरचनाओं का कोई भी पदचिह्न नहीं मिला है।

अब पहली संभावना पर विचार करने से पहले हमें एक सवाल का उत्तर देना चाहिए कि अगर इंडो-यूरोपीयन भाषाएं यूरोप और एशिया के बड़े हिस्से में फैली हुई हैं तो क्या इस भौगोलिक क्षेत्र में कोई विशेष आनुवांशिकी समानताएं भी दिखती है? हां दिखनी चाहिए, और दिखी भी हैं। ऐसी समानता है वाई क्रोमोसोम हेप्लो समूह R1a और उसका सबक्लेड  R1a-M417,जिसका बिखराव स्कैंडिनेविया से लेकर दक्षिण एशिया तक पाया जाता है जिसके दायरे में लगभग सारी की सारी इंडो-यूरोपीयन भाषा बोलनेवाली दुनिया आ जाती है। वैदिक साहित्य और अवेस्ता में भी हिंदुकुश पहाड़ियों का वर्णन है जो कि आर्यों के भारत में आगमन की ओर संकेत करता है।

भाषा विज्ञान के अलावा आनुवांशिकी विज्ञान के आधार पर भी हम यह कह सकते हैं कि संस्कृत, ग्रीक या ईरानी भाषा बोलनेवाले लोगों के पूर्वज एक ही थे। आनुवांशिकी वैज्ञानिकों के अनुसार ईसा पूर्व 3800 के आसपास सबक्लेड R1a-M417 दो समूह  R1a-Z93 और R1a-Z282 में विभाजित हुआ था। आज R1a-Z282 यूरोप में दिखाई देता है जबकि R1a-Z93 मध्य और दक्षिण एशिया में दिखाई देता है और उससे हिंदुस्तान की लगभग  सारी R1a वंशावलियों की जानकारी मिल जाती है। सबक्लेड के विभाजन का यह अर्थ है कि ईसा पूर्व 3800 में एक ही जगह से ये लोग दो अलग-अलग दिशाओं में यानी यूरोप और एशिया में फैल गये और उन्होंने वहाँ के स्थानीय लोगों से संबंध स्थापित किए थे। वाई क्रोमोसोम पर अपनी विशेषज्ञता के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. पीटर ए अंडरहिल द्वारा मुख्य रूप से लिखित और 2014 में द फाइलोजेनेटिक एंड ज्योग्राफिक स्ट्रक्चर ऑफ वाई क्रोमोसोम हैप्लो ग्रुप R1a’ शीर्षक से प्रकाशित एक अध्ययन कहता है कि यूरोप के 96 प्रतिशत से भी ज्यादा लोग R1a-M417 के सबक्लेड  R1a-Z282 से संबंध रखते हैं जबकि मध्य और दक्षिण एशिया की वंशावलियों में से 98.4% R1a-M417 के सबक्लेड  R1a-Z93 से संबंध रखते हैं। इतनी जानकारी जुटा लेने के बाद वैज्ञानिकों के लिए इतिहास के अँधेरे में छुपे हुए रहस्यों से पर्दा उठाना आसान हो गया। अब सिर्फ हमें इस तथ्य का पता लगाना था कि वे लोग जो R1a-M417 और उसके सबक्लेड  R1a-Z93 से संबंधित थे, उनका उद्गम कहाँ से हुआ था?

डॉ. पीटर ए अंडरहिल के रिसर्च से पता चला कि वाई क्रोमोजोम हैप्लो समूह R1a-M417 और उसके सब क्लेड R1a-Z93 का सबसे पुराना साक्ष्य यूक्रेन में मिला है जो ईसा पूर्व 5000 और ईसा पूर्व 3500 के बीच का है। समारा, रूस में भी इसी कालावधि में R1a-M417 और उसके सब क्लेड  R1a-Z93 के साक्ष्य मिले हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इंडो-यूरोपीयन भाषा बोलनेवाले और खुद को आर्य कहनेवाले लोग यूक्रेन, समारा, रूस से यूरोप और एशिया के विभिन्न हिस्सों और भारत में फैल गए थे। इसीलिए भारत में वाई क्रोमोजोम हैप्लो समूह R1a-M417 और उसके सबक्लेड  R1a –Z93  के साक्ष्य हजारों सालों के बाद से दिखते हैं। रिसर्च में पाया गया है कि भारत में इस सबक्लेड की उपस्थिति ईसा पूर्व 2000 से लेकर ईसा पूर्व 1500 तक दिखती है, इससे पहले नहीं।

यही वह समय है जिसके बारे में पुरातत्त्वविद बताते हैं कि आर्य ईसापूर्व 2000 से लेकर ईसापूर्व 1500 के बीच मध्य एशिया व स्टेपी से चलकर यहाँ आकर बस गए थे। हाल ही में जून 2018 में अनुवांशिकीविद वघिश नरसिम्हा ने राखीगढ़ी में मिले हड़प्पा काल के मानवीय जीवाश्म से प्राप्त प्राचीन डीएनए का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला है कि हड़प्पा के निवासियों में स्टेपी से आए लोगों की वंशावली के अवशेष मौजूद नहीं हैं। इससे यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि इस स्टेपी के इंडो आर्यन भाषा बोलनेवाले लोगों का भारतीय महाद्वीप में आगमन हुआ था और यह आगमन हड़प्पा सभ्यता के बिल्कुल अंतिम चरण में यानी ईसा पूर्व 2000 के आसपास ही हुआ था। आज आनुवांशिकी विज्ञान, पुरातत्त्व विज्ञान और भाषा विज्ञान आर्यों के भारत आगमन के विषय में एक ही सत्य पर पहुंचे हैं। उसके बावजूद हमारे देश के कुछ लोग जो विज्ञान और इतिहास दोनों से अनभिज्ञ हैं, इस सत्य को झुठलाने में लगे हुए हैं। 

आर्यों का भारत आगमन

जैसा कि उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि भारत में इंडो-यूरोपियन भाषा बोलनेवाले लोग स्टेपी  के क्षेत्रों से आए थे। स्टेपी से भारत में जो आगमन हुआ वह ईसा पूर्व 2100 के बाद हुआ था। वे बैक्ट्रिया मर्जिनिया यानी आज के अफगानिस्तान से होते हुए हिंदुकुश पर्वत श्रृंखला के रास्ते होते हुए भारत में आए थे। ये आगमन मुख्यतः पुरुषों का ही हुआ था जो अपनी भाषा का प्रसार करते हुए दुनिया के बड़े इलाके में अपनी आनुवांशिक पहचान छोड़ते हुए यूरोप और दक्षिण एशिया में फैल गए थे।

अब यह जानना भी जरूरी है कि स्टेपी के ये लोग थे कौन? स्टेपी घास और झाड़ियों के मैदानों का एक विशाल क्षेत्र है जो मध्य यूरोप से चीन तक 8000 किलोमीटर से ज्यादा के विस्तार में फैला हुआ है। यह क्षेत्र समूचे इतिहास के दौरान विरले ही कभी आबाद रहा था। लगभग 50 हजार से 35 हजार वर्ष पहले अफ्रीका से आए लोगों द्वारा यूरेशिया के ज्यादातर हिस्सों को आबाद किया गया था। लेकिन ये सभी लोग भौगोलिक बाधाओं की वजह से एक दूसरे से अलग-थलग पड़ गए थे, इसीलिए आनुवांशिक तौर पर एक दूसरे से भिन्न रूप में विकसित हुए थे।

ईसा पूर्व 5000 के आसपास कॉकेसस क्षेत्र यानी कैस्पियन सागर और काला सागर (ब्लैक सी) के बीच का वह क्षेत्र है जो पश्चिम एशिया को स्टेपी से जोड़ता है, से स्टेपी की तरफ लोगों का प्रवाह होने लगा और उन्होंने स्टेपी में नई बसावटें बसानी शुरू कर दीं। कॉकेसस तथा स्टेपी के शिकारी संग्रहकर्ताओं की आबादी के मिश्रण से जिस आबादी का जन्म हुआ उन्हें यमनाया के नाम से जाना जाता है। वास्तव में यमनाया ही स्टेपी के वे चरवाहे थे जो   इंडो-यूरोपीयन भाषाएं बोलते थे और वाई क्रोमोजोम हैल्पो समूह R1a-M417 की वंशावली को धारण करते थे।

ईसापूर्व 3700 तक आते-आते कॉकेसस क्षेत्र में एक विशेष संस्कृति का उदय हुआ जिसे माइकोप संस्कृति के नाम से जाना गया। यमनाया पर इस माइकोप संस्कृति का जबरदस्त प्रभाव पड़ा था। उदाहरण के लिए कॉकेसस में लकड़ी और पत्थरों से तैयार की जानेवाली एक विशेष तरह की कब्र के निर्माण की प्रथा को भी यमनाया ने अपना लिया था।

अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि मूल इंडो-यूरोपीयन भाषा यमनाया की भाषा बनने से पहले कॉकेसस में बोली जाती थी। यमनाया ने माइकोप से तीन और महत्वपूर्ण चीजें अपनाई थीं जिसमें पहिया, गाड़ी और घोड़ा प्रमुख थे। गाड़ियों और घोड़ों की वजह से यमनाया मूल के लोगों ने अपने आसपास की संस्कृतियों के साथ व्यापार करके अपनी समृद्धि और प्रभाव का विकास किया था। गाड़ियां और घोड़े यमनाया के लिए इतने महत्त्वपूर्ण थे कि उन्हें उनके मालिकों के साथ दफनाया जाता था। आसपास के समुदायों तक के साथ व्यापार और अपने प्रसार की प्रक्रिया में यमनाया ने धातु शोधन की विद्या में भी महारथ हासिल कर ली थी जिससे उनकी शक्ति विस्तार में और भी बढ़ोत्तरी हुई थी। 

आर्यों की सांस्कृतिक पहचान

हिंदुस्तान आने से लगभग 1000 साल पहले के आसपास यमनाया जनगोष्ठी के लोग यूरोप में पहुंच चुके थे। अमेरिकी पुरातत्त्वविद मैरिजा गिंबुट्स, जिन्होंने यूरोप में पहुंचे आर्यों के जीवन का अध्ययन किया, उनके अनुसार बाहर से आए आर्यों द्वारा यहां के मूल निवासियों के ऊपर एक नई प्रशासनिक प्रणाली, भाषा और मजहब लागू किया गया था जिसको सैन्य ताकत के आधार पर अंजाम दिया गया था। गिंबुट्स ने बताया कि भूमध्यसागरीय क्षेत्रों, यानी यूरोप में मातृदेवी की उपासना पद्धति से पितृसत्तात्मक समाज की उपासना पद्धति में जो बदलाव हुआ वह आर्यों के आगमन के बाद, उनके प्रभाव से हुआ था और वह शांतिपूर्ण तरीके से नहीं बल्कि हिंसक तरीके से हुआ था।

गिंबुट्स के अनुसार इन नए आगंतुकों ने जिन संस्कृतियों की रचना की थी वो पुरुषकेंद्रिक संस्कृतियां थीं। पुरातात्त्विक साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि इन नवांगतुकों के कब्रों में पाए जानेवाले लोग ज्यादातर पुरुष ही थे जिनके शरीरों पर अक्सर घावों के निशान थे और बहुत सी कब्रों में कुल्हाड़ियाँ मौजूद थीं। डेविड राइट ने इस बात के आनुवांशिक साक्ष्य भी प्रस्तुत किए हैं कि यमनाया के विस्तार पुरुष केंद्रित थे। यमनाया विस्तार पूरी तरह से दोस्ताना नहीं था जैसा कि इस तथ्य से स्पष्ट है कि आज पश्चिमी यूरोप और हिंदुस्तान दोनों जगहों पर स्टेपी मूल के वाई क्रोमोजोम का अनुपात बाकी जीन समूहों के मुकाबले बहुत बड़ा है। स्टेपी से आई पुरुष क्रोमोजम वंशावली की प्रचुरता का अभिप्राय है कि यमनाया के राजनीतिक और सामाजिक शक्तियों से संपन्न पुरुष जहां भी गये वहां सहवास की होड़ में स्थानीय पुरुषों को पीछे छोड़ दिया और हर जगह अपनी आनुवंशिकी संरचनाओं का तेजी से विस्तार किया। जेनेटिक क्रोनोलॉजी फॉर द इंडियन सबकॉन्टिनेंट पॉयन्ट्स टू हैविली सेक्सबाएसड डिसपरसल्स के अनुसार कांस्य युग में मध्य एशिया से आई लोगों की बाढ़ जबरदस्त रूप से पुरुषकेंद्रित थी, जो पितृसत्तात्मक, पतिकेंद्रित और पितृवंशीय सामाजिक संरचना थी जो चरवाहा समाज की विशेषता मानी गयी है।

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