आज हमारे देश में राजे-रजवाड़े खत्म हो चुके हैं, जमींदारी प्रथा को कानूनन समाप्त कर दिया गया है और बहुत सारे उद्योगों का, जैसे बैंकों, बीमा कंपनियों, इस्पात, कोयला, सीमेंट, रसायनिक खादें, इंजीनियरी आदि का राष्ट्रीयकरण किया जा चुका है। लेकिन तो भी यह स्वीकारना पड़ेगा कि इन सारे सतही परिवर्तनों के बावजूद मुल्क समाजवाद के सिद्धांत से हजारों मील दूर है। आज भी समाज में भीषण दरिद्रता और आर्थिक असमानता मौजूद है। आर्थिक समानता तथा समाजवाद का सपना साकार होने की बजाय पिछड़ता ही चला गया है। इसके लिए दोषी मुख्यतः हमारे राजनीतिज्ञ ही हैं क्योंकि वे जिस वर्ग से आते हैं उसमें चरित्र और आदर्श का अभाव है। सभी स्वार्थ साधना में लिप्त हैं। वे अपने भूतपूर्व बड़े नेताओं के पदचिह्नों पर चल रहे हैं। इसकी देखा-देखी राजनीतिज्ञों की पीढ़ी कर रही है। अर्थात् जहाँ समाज के प्रति जवाबदेही की भावना नहीं हैं, वहाँ समाजवाद कैसे आ सकता है? भ्रष्टाचार में से अच्छाई कैसे निकल सकती हैं?
राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रारंभिक काल में उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संवैधानिक तौर-तरीकों के रास्ते के बारे में हमने पढ़ा। महात्मा गांधी के नेतृत्व में संवैधानिक दायरे से बाहर जाकर, लेकिन अहिंसा और शांति की मर्यादा का त्याग न करते हुए इन तौर-तरीकों में तीव्रता लाई गई। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अन्यायपूर्ण नियमों, कानूनों का उल्लंघन करना और उसके लिए स्वेच्छा से देह दंड भोगना गांधीजी का तरीका था। यह सत्य है कि कांग्रेस ने दार्शनिक तौर पर नहीं, बल्कि उपयुक्त साधन और सिद्धांत के तौर पर असहयोग और सिविल नाफरमानी का रास्ता अपनाया था। परंतु यह भी उतना ही सत्य है कि सत्तासुख मिलते ही किसी भी कांग्रेस के प्रमुख नेता का अहिंसा-दर्शन पर विश्वास नहीं रहा। यह इससे सिद्ध होता है कि सत्ता हाथ में आते ही कांग्रेस ने न केवल कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए बल्कि राजनीतिक आंदोलनों को कुचलने के लिए भी ताकत का इस्तेमाल किया। कुछ राज्यों के भारत में एकीकरण के लिए भी सेना का इस्तेमाल हमारे नेताओं ने किया। जैसे कश्मीर, हैदराबाद, जूनागढ़ और गोवा को भारत में मिलाने के लिए सेना का प्रयोग बिना हिचक, बिना संकोच किया गया। इसमें न व्यवहारवादी वल्लभ भाई का विरोध रहा, न आदर्शवादी जवाहरलाल का और न गांधीजी को कहना पड़ा कि कांग्रेस ने जिस अहिंसा को अपना हथियार बनाया था, वह वीरों की अहिंसा नहीं थी बल्कि उसे केवल दाँव-पेच तक ही सीमित कर दिया गया था। आज स्वतंत्र भारत में अहिंसात्मक आंदोलन जो एक मखौल बन गया है, वह सभी को मालूम है, हिंसा के प्रति न किसी को घृणा है, न अपने सिद्धांतों के लिए कोई देहदंड भोगने के लिए तैयार है। सत्याग्रह एक रस्म अदायगी मात्र रह गया है। सवेरे जेल जाओ, शाम को छूटकर घर लौट आओ और समाचारपत्रों में नाम छपाओ मुफ्त में। बस, प्रत्येक आंदोलन आज इसी लीक पर चल रहा है। लोगों का मन प्रतिदिन हिंसा की ओर अभिमुख होता चला जा रहा है। आज असम और पंजाब में जो उपद्रव मचा है और जहाँ-तहाँ जो सांप्रदायिक दंगों की घटनाएँ हो रही हैं वे इस बात का परिचायक हैं कि गांधीजी के बाद मुल्क उनके आदर्श से संपूर्णतया च्युत हो गया, भटक गया। इसके अतिरिक्त हुआ यह भी कि जवाहरलाल ही नहीं, सरदार और राजाजी भी सत्ता प्राप्त होते ही विकेंद्रीकरण अर्थव्यवस्था के सिद्धांत को त्याग कर बड़े औद्योगीकरण के तो समर्थक बन गए थे।
हमने यह भी देखा कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन और सामाजिक सुधार आंदोलन की दोनों धाराएँ प्रारंभ में एकसाथ आगे बढ़ीं। लेकिन इस बीच कुछ जीर्ण मताभिमानी लोगों ने मुल्क के आत्मसम्मान को जगाने के नाम पर सामाजिक सुधारों के कार्य को उस समय हाथ में लेने का विरोध करना प्रारंभ कर दिया था। हालांकि भारत ने धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को अपने संविधान में बुनियादी तौर पर स्वीकार किया है, लेकिन सच्चाई यह है कि हमारे सामाजिक जीवन में विवेक-बुद्धि का ह्रास ही हुआ है। साधारण जनता ही नहीं बल्कि शिक्षितों के बीच भी धर्मान्धता, तरह-तरह की भ्रांतियाँ, अंधविश्वास, गैर-वैज्ञानिक दृष्टिकोण और विभूतिपूजा आदि के प्रति आकर्षण बढ़ता चला जा रहा है। जब धर्मनिरपेक्ष भारत की यह स्थिति है तो इस्लाम के नाम पर जिस राज्य का निर्माण हुआ उस पाकिस्तान की स्थिति क्या होगी? जिन्ना साहब अपने व्यक्तिगत जीवन में बिल्कुल धर्मान्ध नहीं थे, बल्कि इस्लाम का उपयोग एक दाँव के रूप में उन्होंने किया था।
जिन्ना की मृत्यु के बाद पाकिस्तान की गतिविधियों पर सरसरी तौर पर यह भी यदि हम लोग नजर डालें तो पता चलता है कि पाकिस्तान किस दिशा में आगे बढ़ रहा है। अपनी एकाधिकारशाही को बनाए रखने के लिए पाकिस्तान के फौजी तानाशाह धार्मिकता जानबूझ कर उभार रहे हैं। जनरल जिया ने तो इसमें हद ही कर दी है। अब वहाँ पीनल कोड, क्रिमिनल प्रोसीजर कोड आदि में परिवर्तन कर ‘मुस्तफा-ए-निजाम’ स्थापित किया जा रहा है, यानी कुरान और शरीयत का शासन। इसीलिए जब पाकिस्तानी गायिका नूरजहाँ ने अपनी हिंदुस्तान यात्रा के दौरान, ‘संगीत मेरे लिए खुदा है’ कहा तो पाकिस्तानी अखबारों ने बावेला मचा दिया। कराची से एक वारदात की खबर आयी थी कि एक बस ड्राइवर को किसी स्कूल शिक्षिका के साथ मुहब्बत हो गयी थी। दोनों ने शादी कर ली। लेकिन बावेला इस बात पर मचा कि उनकी शादी के छह महीने बाद ही उनके बच्चा कैसे हो गया? इस पर उन दोनों को शरीयत कोर्ट में घसीटा गया और मियां को पत्थर मार-मार कर मौत के घाट उतार देने और बीवी को सौ कोड़े लगाने की सजा दी गयी।
ऐसा नहीं समझना चाहिए कि इस तरह की घटनाएँ सिर्फ पाकिस्तान में ही हो रही हैं। वहाँ ऐसा सरकारी छत्रछाया में होता है तो भारत में ‘लोकाश्रय’ में। यहाँ भी जहाँ-तहाँ सती होने की घटनाएँ घटती हैं। नरबलि चढ़ाई जाती है। यानी धर्म के नाम पर इस तरह के घृणित जुल्म और सितम क्या पाकिस्तान, क्या बांग्लादेश और क्या भारत, सब जगह हो रहे हैं।
अंततोगत्वा इस विश्लेषण का एक ही तात्पर्य निकला है कि स्वतंत्रता आंदोलन के राष्ट्रीय एकता, सामाजिक-आर्थिक समानता, धर्मनिरपेक्षता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और विवेक-बुद्धि पर आधारित जीवन-प्रणाली, सच्चाई, ईमानदारी आदि मूल्यों की प्रतिष्ठा आज तक नहीं हो पायी है। अतः इन उदात्त मूल्यों की प्रतिष्ठापन के लिए वर्तमान नौजवान पीढ़ी और आनेवाली पीढ़ियों को भी अखण्ड संघर्ष करना कुर्बानी और बलिदान देना पड़ेगा।
समस्त दुनिया में एक ओर पश्चिम की सभ्यता और दूसरी ओर अन्य सारी पुरानी सभ्यताओं (हिंदू, इस्लामी, चीनी आदि) के बीच चार-पाँच सौ साल से टकराव सा चल रहा है। आज संपूर्ण विश्व पर पश्चिमी सभ्यता का राजनैतिक वर्चस्व तो लगभग समाप्त हो गया है। परंतु अन्य क्षेत्रों में, विशेषतः विवेक के क्षेत्र में पश्चिमी सभ्यता की चुनौती आज भी बरकरार है। पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति ने सारी पुरानी सभ्यताओं और संस्कृतियों को हिलाकर रख दिया है। अतः अतीत की ओर जाने से, समस्याओं से भागने से राहत नहीं मिलने वाली है। जब तक पश्चिमी सभ्यता की अच्छाइयों और हिंदू-मुस्लिम-चीनी-बाइजेंटीन सभ्यताओं की अच्छाइयों का नए ढंग से समन्वय नहीं होगा, इनके घर्षण और संघर्ष से जब तक नयी विश्व सभ्यता का निर्माण नहीं होगा, तब तक कटुता, क्लेश और पीड़ा का सिलसिला समाप्त नहीं होनेवाला है। मेरी यह मान्यता है कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन ने जिन विभूतियों को जन्म दिया, उनके त्यागी और तपस्वी जीवन से प्रेरणा लेकर आनेवाली पीढ़ियों को पहल करनी होगी। यही समय का तकाजा भी है।