— अरविन्द कुमार —
आज से करीब 6 साल पहले विश्वप्रसिद्ध चित्रकार सैयद हैदर रज़ा इस दुनिया से फानी हो गए थे लेकिन 9 जुलाई को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के सीडी देशमुख सभागार में वो शाम को थोड़ी देर के लिए मानो जिंदा हो गए थे।
जब हॉल से मैं बाहर निकला तो एक बुजुर्ग साहब ने कहा- “महमूद फारूकी ने अपनी आवाज़ से रज़ा साहब को जिंदा कर दिया।”
इससे पहले मैंने किसी शख्स को स्टेज पर जिंदा होते हुए नहीं देखा था। यह दरअसल महमूद फारूकी की दास्तानगोई का कमाल था और तब लगा कि वाकई किसी को अपनी आवाज से जिंदा किया जा सकता है। उस शाम फारूकी साहब ने यही किया। यूँ तो बरसों से हम रज़ा साहब के बारे में सुनते रहे, उनको देखा भी, उनपर यशोधरा डालमिया की जीवनी पढ़ी भी और उसपर लिखा भी, लेकिन फारूकी साहब ने अपने फ़न से जो कमाल किया वह अल्फाजों से मुमकिन नहीं था।
फारूकी की दास्तानगोई की सबसे बड़ी खासियत यह है कि उन्होंने सब कुछ फिल्म की तरह पेश किया। उसे आप केवल आवाजों से बनी एक फिल्म भी कह सकते हैं क्योंकि उनके अल्फाजों ने विजुअल एफेक्ट पैदा किया।
फारूकी ने अपने अनोखे अंदाज में उदास लहजे में बताया कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या का असर इतना हुआ कि विश्वप्रसिद्ध चित्रकार सैयद हैदर रज़ा विभाजन के बाद पाकिस्तान नहीं गए जबकि उनकी पत्नी और परिवार के लोग वहां बस गए।
यह किस्सा मशहूर दास्तानगो फारूकी ने रज़ा जन्मशती के अवसर पर अपने शो में सुनाया। उन्होंने अपनी दिलकश आवाज और खूबसूरत अंदाज के जरिये पद्मविभूषण से सम्मानित पेंटर सैयद हैदर रज़ा को थोड़ी देर के लिए पुनर्जीवित कर दिया।
पिछले 17 साल से देश भर में घूम-घूम कर दास्तानगोई के हजारों शो कर फारूकी ने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में रज़ा साहब के संघर्षमय जीवन की कहानी सुनाते हुए अपनी कथा शैली से ऐसा समां बांधा कि मानो रज़ा साहब मंच पर खड़े हो गए हों।
मंटो से लेकर भारत पाक विभाजन पर अपनी दास्तानगोई से दर्शकों का दिल जीतनेवाले फारूकी ने एक बार रज़ा साहब की पूरी जीवन यात्रा को शब्दों में पिरोकर लोगों का दिल फिर से जीत लिया।
दून स्कूल और सेंट स्टीफन्स कालेज से इतिहास के छात्र रहे फारूकी ने शो शुरू करने से पहले बताया कि 17 साल पहले उन्होंने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में दास्तानगोई का सफर शुरू किया था। इस तरह उन्होंने इस विलुप्त कला को न केवल जिंदा किया बल्कि एक मुकाम पर पहुंचाया।
उर्दू के दिवंगत तनक़ीद शमशुर्रहमान फारूकी के भतीजे महमूद फारूकी ने रज़ा साहब के जन्म और बचपन से लेकर मुंबई में जीवन संघर्ष और फिर पेरिस में उनके बसने और अंतरराष्ट्रीय स्तर का चित्रकार बनने की कथा को हिंदी, उर्दू, फ्रेंच भाषा में पिरोकर ऐसा पेश किया कि लोग मंत्रमुग्ध हो गए।
उन्होंने वेद व पुराणों के श्लोकों और उर्दू के महान शायरों की शायरी का जिक्र करते हुए रज़ा साहब को एक सेकुलर और गंगा जमुनी संस्कृति में रचा-बसा बताया। नर्मदा नदी से रज़ा साहब के लगाव का भी विशेष जिक्र किया।
महमूद फारूकी ने बताया कि विभाजन और गांधीजी की हत्या का रज़ा साहब के जीवन पर गहरा असर पड़ा। उनकी पत्नी पाकिस्तान चली गयीं। उनकी चार भी बहनें भी पाकिस्तान चली गयीं पर वे गांधीजी के कारण भारत छोड़कर पाकिस्तान नहीं गए। पारंपरिक लखनवी लिबास में मंच पर विराजमान फारूकी ने बलराज साहनी, राजेन्द्र सिंह बेदी, कैफ़ी आज़मी, सरदार जाफरी, हुसेन, गायतोंडे, अकबर पदमसी, सूज़ा आदि के साथ रज़ा की सोहबत का भी जिक्र किया और बताया कि किस तरह उनके जीवन पर मार्क्स और फ्रायड का भी असर पड़ा।
फारूकी ने बताया कि 1947 में उनकी अम्मीजान का इंतकाल हो गया और अगले साल अब्बाजान का। इस तरह रज़ा साहब तनहा हो गए और विभाजन तथा गांधीजी की हत्या ने उन्हें और अकेला कर दिया पर वे पाकिस्तान नहीं गए।
रज़ा साहब को भारत की मिट्टी अधिक प्यारी लगी। उसकी सोंधी खुशबू और नर्मदा की धार ने उन्हें कैद कर लिया और वे 2010 में अपने मुल्क लौट आए। एक सच्चा नेशनलिस्ट सेक्युलर और मानवीयता से लबरेज पेंटर 23 जुलाई को इस दुनिया से चल बसा, एक सपना लिये और हिन्दू मुस्लिम दोस्ती का पैगाम लिये।
रज़ा फाउंडेशन के प्रबंध न्यासी अशोक वाजपेयी ने बताया कि रज़ा के चित्रों की प्रदर्शनी दिल्ली और मुंबई में लगाई गयी और वडोदरा में भी लग रही है। अगले वर्ष पेरिस में 22 फरवरी को भी एक प्रदर्शनी लगेगी।
उन्होंने बताया कि रज़ा साहब की एक जीवनी अंग्रेजी में यशोधरा डालमिया ने लिखी। इसका हिंदी अनुवाद भी आ चुका है और अब इसका बांग्ला तथा मराठी अनुवाद भी आ रहा है।
रज़ा साहब की स्मृति में स्थापित रज़ा फाउंडेशन ने कुछ साल से देश में संस्कृति का एक नया माहौल पैदा किया है और कई दुर्लभ किताबें प्रकाशित की हैं तथा करीब ढाई-तीन सौ युवा लेखकों को मंच तथा अवसर दिए।