हजारीप्रसाद द्विवेदी की कविता

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पेंटिंग : प्रयाग शुक्ल
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ( 19 अगस्त 1907 – 19 मई 1979 )

मार्ग बहुत सुंदर है।

गाड़ियां, घोड़े, पदातिक सभी के उपयुक्त।

सुना है उसको पकड़कर चल सके कोई,

पहुंचता लक्ष्य तक निर्भ्रान्त।

           जानता हूँ, मानता हूँ

           लक्ष्य तक निर्भ्रान्त जाना चाहता हूँ।

           सड़क पक्की और छायादार यह है।

किन्तु मैं मजबूर हूँ।

कंकड़ों में, कण्टकों में

दूर जंगल में-

भटकना है बदा।

नहीं तो जी नहीं सकता।

           इस तरफ कोई न चलता यान,

           है कोई न देता ध्यान।

           मैं भटकता बढ़ रहा हूँ

           लक्ष्य से अनजान।

सोचता हूँ क्या यही है लक्ष्य जीवन का

जीते जाव,

पीते जाव

अपने क्षोभ को ही।

         दूरवाले समझते हैं आदमी यह प्राणवन्त महान्

         कंकड़ों पर चल रहा है,

         कण्टकों को दल रहा है,

         किन्तु मैं हूँ जानता इस रास्ते की मार

         और मैं हूँ जानता पक्की सड़क के

               नहीं पाने का भयंकर घाव।

सोचता हूँ रौंदकर क्या एक

बन सकता न सुंदर मार्ग?

जिसे जीने की ललकवाले

करें उपयोग!

 

(9 फरवरी 1966)

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