गत दस जुलाई को स्मृति-शेष हो चुके डॉ. पी.एन.सिंह भी हिन्दी के अन्य शीर्षस्थ आलोचकों की तरह कभी कविताएँ भी लिखा करते थे। यद्यपि उनकी लिखी अधिकांश कविताएँ स्वयं उनकी उदासीनता के चलते अब उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन सन 2012 में कोलकाता के प्रतिश्रुति प्रकाशन ने उनकी कुल बाईस हिन्दी कविताओं का संग्रह ‘निष्प्रभ आईना’ नाम से छापा था। उनकी चुनी हुई चार कविताएँ साभार यहाँ प्रस्तुत हैं-
1. छँटता अँधियारा
कुछ लोग जीते हैं स्वार्थों की खातिर
कुछ लोग परेशान हैं विचारों के लिए
मगर कुछ ऐसे भी हैं
जो लहूलुहान हैं आदर्शों की खातिर
स्वार्थ के पास नासमझी है, पशुता है
यह इकहरा है झगड़ालू है
ललकारता रहता है सदा सतर्क
विचार तो कस्बाई है, निष्क्रिय है
चिपका रह जाता है कुर्सी की गद्दी में
या पलटता रह जाता है पोथी के पन्ने
आदर्श है चीखता, कराहता चारों ओर
उसके पास उजड़ा घर, दुत्कार या सत्कार
और अन्त में शहादत के सिवाय कुछ भी नहीं
विचार देता है उसे नपुंसक सहानुभूति मात्र
असहाय देखता रहता है दिन-रात
उसे लात खाते स्वार्थी गिरोहों के बीच
स्वार्थी को स्वार्थी दिखती है दुनिया
बिकने वालों को दुनिया लगती है बिकाऊ
छोटे को सब कुछ छोटा ही दिखता है
जिस दिल में जितनी ही जगह कम है
दिमाग में है उतना ही खौफनाक अन्धकार
ॲंधेरा केवल सूरज का डूबना ही नहीं
रात का हावी होना भी है
हर शिव और सुन्दर के लिए अनास्था भी
इसीलिए मैं कहता हूँ
सच का सूरज कभी डूबता नहीं
और रात नहीं होती है हावी
क्योंकि मुझे दिखते हैं हर सुबह
छँटता अँधियारा, गाते पंछी और उगता सूरज।
(07.08.1986)
2. दक्षिण का मेघ
जब तुम उलटते सरकते रहोगे फाइलें
ठीकेदार सड़कों पर गिट्टियाँ फिंकवाता रहेगा ….
छोटे-बड़े साहबों की वर्दियाँ नहीं
उनकी नीयत बदलनी होगी
शायद तुम्हें नहीं मालूम
धीरे-धीरे आदत पड़ जाएगी
बूट लगने लगेंगे अच्छे
इंसान की तड़फड़ाहट लगेगी अराजकता
तुम तब भी सुखी रहोगे
तुम्हारे दुख का नहीं होगा कोई कारण
ऐ हुक्मरानो! आँखें खोलो
देखो अवाम की नासमझी
कर न बैठे कोई करिश्मा
इसी ने बुलाया था नेपोलियन और हिटलर को
स्थिति के मुताबिक
यह बना लेगा गोडसों को गाँधी
अनसुनी कर देगा मोलाईस और नेरूदा को
इसलिए समय रहते आँखें खोलो
देखो चिढ़ा अवाम
ठेल न दे सब कुछ अंधी सुरंग में
मेरी नासमझी है
तुमको कुछ भी सुनाना
सत्ता के देवता को दीदा कहाँ
बाहरी होती है गद्दी
संवेदनशून्य होना नियति है
जब सत्तासीन रहना ही इरादा हो
तुम स्वयं गिरफ्त में हो अपनी स्थिति की
नहीं है तुम्हारे पास राजनीतिक संकल्प
फरेबी अंदाज से
करते हो विकल्पों की तलाश
बढ़ती गयी है लोगों की खीझ
गहराता गया है लोगों का दुख
दक्षिण का मेघ घना
काला और डरावना है अब।
(24.08.1986)
3. चाय की दुकान पर
चाय की दुकान पर
राजनीति बतियाती क्लर्कों, ठेकेदारों की भीड़
चाय की चुस्की के साथ गरम होता माहौल
गरजता आत्मविश्वास
चीखता उनका राजनीतिक विवेक –
अब इस देश को
मिलिटरी शासन की जरूरत है
मैं अवाक चुपचाप सुनता रहा
जल रहा है कश्मीर, पंजाब
मिजोरम, नगालैंड का पूछना ही क्या
उमड़ रहे हैं क्षेत्रीयता के तंग बादल
बढ़ रहा है भाषाई उन्माद
चीनी शरारत, जजिया की पागल कुटिलता
जयवर्धने का हत्यारापन
बड़े साहब की मौज-मस्ती
क्या अब सैनिक शासन ही
बचा सकता है देश को!
करता रहा समझाने की नाकाम कोशिश
शायद पाला नहीं पड़ा है किसी सैनिक से अभी
उसके जूते के तलवे में होते हैं नोकदार काँटे
उनका धर्म है इंसानियत की छाती रौंदना
नहीं जानता है अन्तर गाँधी और गोडसे में
बिचारे भुट्टो को मारता है जिया के इशारे पर
करता है मुजीब का वध किसी अन्य की खातिर
पायलट, पिनोसे, ईदी अमीन सब सैनिक थे
तोड़े हैं इन्सानों के नेक अरमान
तुम्हें नहीं मालूम
गद्दी पर बैठने का सैनिक अंदाज
जब सुनाई देंगे बूटों के चाप सड़कों पर
जब लाल होंगी गालियाँ इंसानी खून से
जब हर विरोधी का सर मिलेगा चौराहों पर
जब नौजवानों की चीख अनसुनी की जाएगी।
(24.08.1986)
4. दुनिया बनाओ
दुखों का समुंदर संसार यह
ऑंसुओं से भरी हर ऑंख यहाँ
हर सपने बिखरे हुए हैं तार-तार
हर छाती है छलनी पड़ी दुखी यहाँ
किसकी समझाऊँ, किसे ढाढ़स दूँ
हर रीढ़ टेढ़ी हो जाती यहाँ
हर आस है टूटी बेजान यहाँ
किससे कहूँ कि जीवन है यज्ञ एक
कर्ज में दबे हैं मेरे मित्र एक
है बिलखती दौड़ती बेटी यहाँ
कर्ज का तकाजा है रोज-रोज
नौजवान-दामाद मृतप्राय वहाँ
किसी के लाले पड़े हैं रोटी के
किसी की इज्जत लुटती है यहाँ
कोई देवता पट सो जाता है
कोई फंदा लगा झूल जाता है
रोटी की लड़ाई तो सम्भव है
सदियों का है शोषण आधार बना
इज्जत का कमल तो मुरझाएगा
ढल रहा पीढ़ियों का पानी यहाँ
दिशाहीन इतिहास परिवर्तन
न्याय देने की सीढ़ी तक चढ़ता ही नहीं
उलट देता है मात्र संबंधों को
सबकी ऑंखों के आँसू सुखाता नहीं
इसीलिए मार्क्स की जरूरत है यहाँ
ताकि रिश्तों के शोषण समाप्त हों
बदल सकें हम दुनिया इस किस्म की
कि सभी अधरों के सुमन मुस्कराएं यहाँ
गर ऐसा न हो सका ऐ जाने-मन
कवि मरता सिसकता रहेगा यहाँ
भीगती ही रहेगी ये धरती सदा
लहू-लुहान होली से ही यहाँ
ऐसी दुनिया बनाओ कि कवि गा सके
तुम हॅंसो, हम हँसें, चैन की साँस लें
ऐसी दुनिया सजाओ कि मन नाचा करे
हो हर ओर सरगम की तानें यहाँ ।
(05.08.1986)
(चयन एवं प्रस्तुति- रामप्रकाश कुशवाहा)
1986 में ही श्रीलंका का तांडव प्रत्यक्षतः उकेरना पीएन की दूरदृष्टि का कमाल है। अंतिम कविता सकारात्मक प्रेरणा दे जाती है। आलोच्य शब्द यग्य सौंदर्यबोध को प्रश्नांकित करता है… दक्षिण की बुराई और उसके शब्द-संसाधन का उपयोग अंतरविरोधी है।
कवि और ऐसे हर संवेदनशील व्यक्तित्व की प्रश्नाकुलता स्वाभाविक है।…. पीएन सिंह जी को क्रांतिकारी सैल्यूट।।।