‘हिंदुत्व’ के जनक सावरकर कभी नहीं बता पाए इस शब्द का अर्थ

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— योगेन्द्र यादव —

हिंदुत्व नाम की राजनीतिक परियोजना को हमेशा एक बुनियादी अंतर्विरोध का सामना करना पड़ता है : कथनी में यह कि ‘हम सबके हैं, सब हमारे हैं’ और करनी में यह कि बस ‘एक ही हमारा अपना है, बाकी सब पराये हैं’। अगर आप भारत की संपूर्ण सभ्यतागत विरासत पर दावा जताना चाहते हैं तो आपको इसके लायक नैतिक और सांस्कृतिक वैधता हासिल होनी चाहिए। इस जरूरत के नाते हिंदुत्व का अपने आधार में उदार होना जरूरी है। लेकिन हिंदुत्व की राजनीतिक मजबूरी उसे संकीर्णता की तरफ धकेलती है ताकि बस उस एक का ही राजनीतिक समुदाय बनाया जा सके जिसे हिंदू कहा जाता है और जो भारत में बहुसंख्यक है।

क्या इस कठिनाई से बच निकलने का कोई रास्ता है, सिवाय उस पाखंड और स्वेच्छाचार के, जो भारतीय जनता पार्टी और उसके साथी संगठनों की इन दिनों पहचान बनी हुई है? पिछले महीने बड़ी बारीकी और तटस्थता के साथ लिखी हुई विनायक दामोदर सावरकर की एक परिपूर्ण बौद्धिक जीवनी प्रकाशित हुई है और यह जीवनी समझाने की कोशिश करती है कि हिंदुत्व नाम की विचारधारा के साथ हमें पूरी गंभीरता के साथ संवाद करने की जरूरत है।

इस क्रम में किताब हिंदुत्व की विचारधारा में निहित सैद्धांतिक उलझाव, ऐतिहासिक भ्रांति, उपनिवेशवाद के मसले पर राजनीतिक दुविधा और हिंसा के बर्ताव की नैतिक स्वीकृति का खुलासा करती चलती है.।

बुनियाद में ही अंतर्विरोध है …

आइए, जरा बुनियादी अंतर्विरोध को समझ लें।
हर राष्ट्रवाद की तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (और इसके पहले की हिंदू महासभा) का राष्ट्रवाद भी भारत के उपनिवेश बनने के पहले के सभ्यतागत वैभव पर दावा जताता और इस क्रम में भारत को राष्ट्ररूप में सनातन से कायम मानता है। ऐसे में, यह बौद्धिक परियोजना स्पष्ट ही दो बड़ी कठिनाइयों में फॅंस जाती है।

अगर आप भारत की परिभाषा करते हुए ये मानते हैं कि ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत भूमि पर कब्जे से पहले की तमाम संस्कृतियां, समुदाय और धार्मिक पहचान के लोग इसमें (भारत में) शामिल हैं तो फिर ऐसे राष्ट्र को अनेक प्रकार की संस्कृतियों, समुदायों और धार्मिक पहचानों से बना हुआ मानना पड़ेगा। हिंदुत्व के अतिरिक्त ऐसे राष्ट्र (भारत) में सिर्फ सिख, जैन और बौद्ध ही नहीं बल्कि मुसलमान और ईसाइयों को भी शामिल मानना पड़ेगा क्योंकि ये लोग उपनिवेशवाद की शुरुआत के सदियों पहले से भारत में रहते चले आ रहे हैं।
दूसरी बड़ी समस्या भारत के आदि समुदायों से जुड़ी है जो हिंदू-धर्म के उद्भव के पहले से भारत में मौजूद हैं। क्या इन आदि समुदायों का ही भारत नाम के राष्ट्र पर पहला दावा नहीं बनता?

जाहिर है फिर समस्या बड़ी गंभीर है : अगर शुद्ध और सनातन भारत-राष्ट्र के कायम होने की लकीर बहुत पीछे के वक्तों में खींची जाती है तो इसमें मुसलमानों और ईसाइयों को शामिल मानना होगा। अगर लकीर बहुत बाद के वक्तों में खींची जाती है तो फिर भारत नाम के ऐसे राष्ट्र से हिंदुत्व को भी बाहर रखना होगा। इन दोनों ही स्थितियों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठनों की राजनीतिक परियोजना की हार सुनिश्चित है। तो फिर कोई इन दो फंदों में फॅंसे बगैर भारतीय राष्ट्रीयता को हिंदुओं की राष्ट्रीयता का समानार्थक कैसे बताये भला?

सावरकर की हिंदुत्व की अवधारणा इस चुनौती का एक मौलिक समाधान प्रस्तुत करती है। तमाम विधाओं (कविता, नाटक, इतिहास, वाद-विवाद), भाषाओं (मराठी, अंग्रेजी), स्थानों (लंदन, अंडमान, महाराष्ट्र) और राजनीतिक काल-खंडों (गांधी-पूर्व, गांधीकालीन और गांधी के बाद) से जुड़ा उनका समस्त रचना-कर्म दरअसल सिलसिलेवार बहुविध इतिहास-लेखन का प्रयास है— इतिहास भारत राष्ट्र का, इतिहास मराठाओं का और इतिहास स्वयं (विनायक दामोदर सावरकर) का। इन तमाम बातों के पीछे उनका एकसूत्री एजेंडा है- हिंदुत्व की राजनीतिक दावेदारी की रक्षा करना।

यही विचार-सूत्र विनायक चतुर्वेदी की रचना ‘हिंदुत्व एंड वायलेंसः वी.डी. सावरकर एंड दि पॉलिटिक्स ऑफ हिस्ट्री’ में शुरू से अंत तक मौजूद है। क्या आपने इस संयोग पर गौर किया कि किताब के नायक और किताब के लेखक के नाम में समानता है? हां, किताब के लेखक (विनायक चतुर्वेदी) का नाम सावरकर के नाम पर रखा गया (लेकिन इस बात से ये अनुमान न लगा लीजिएगा कि वे आरएसएस परिवार के हैं), और नाम रखा पिता दत्तात्रेय सदाशिव परचुरे ने, जो पेशे से चिकित्सक (शिशु-रोग विशेषज्ञ) थे।

परचुरे का नाम महात्मा गांधी की हत्या के मामले में आरोपित उन नौ लोगों में शामिल था जिनपर मुकदमा चला। मामलों में जैसे-तैसे चकमा देकर जो लोग सजा से बच निकले उनमें एक दत्तात्रेय सदाशिव परचुरे भी थे। किताब के लेखक ने बड़े रोचक अंदाज में बयान किया है कि बालिग होने और डॉक्टर परचुरे के निधन के बाद, कैसे उन्हें सावरकर से अपने नाम के जुड़ाव के बारे में पता चला।

किताब के लेखक और किताब के मुख्य किरदार के बीच का यह असहज सा रिश्ता किताब को एक वैचारिक रंगत देता है। विनायक चतुर्वेदी ने जीवनी लिखी है ना कि कोई चरितकथा (हेजियोग्राफी) और इस मायने में उनकी किताब विक्रम संपत की दो खंडों में पर्याप्त श्रद्धा-भाव से लिखी हुई उस किताब के एकदम उलट है जो समाचारों में अपने पांडित्य के लिए नहीं बल्कि ‘नकल’ होने के कारण चर्चा का विषय बनी।

साथ ही, यह भी कहना होगा कि किताब में विनायक चतुर्वेदी का तरीका सावरकर की निंदा करने और इसी बहाने उन्हें झटपट खारिज कर देने का नहीं है। सावरकर के मामले में ज्यादातर सेकुलर इतिहासकार और टिप्पणीकार यही करते हैं। सावरकर पर फैसला सुनाने को लेकर वे सावधान हैं, एक हद तक चिंतित भी। वे अपने विषय की कठोर जांच नहीं करते। सावरकर के विचारों में निहित अंतर्विरोध कहीं खुलकर सामने ना आ जाएं- इसे लेकर वे कुछ ज्यादा ही सतर्क हैं। फिर भी अपने प्रखर पांडित्य और सावरकर की रचनाओं की गहरी जांच-परीक्षा के कारण वे ऐसे सूत्र तलाश पाने में सफल हुए हैं जिन्हें एकसाथ मिलाकर एक तर्क की शक्ल दी जा सके।

चूंकि किताब का जोर सावरकर के विचारों पर है, इसलिए ये बात बिल्कुल समझी जा सकती है कि सावरकर के बारे में प्रचलित ज्यादातर विवादों के बारे में लेखक (विनायक चतुर्वेदी) अपनी तरफ से कुछ जोड़ना-घटाना नहीं चाहता। हालांकि ये विवाद अक्सर समाचारों में उछलते रहते हैं, जैसे यह कि सावरकर वीर थे या ‘माफीवीर’? क्या सावरकर का छद्म-नाम से अपना जीवनचरित लिखना निर्लज्ज आत्मप्रचारक नमूना था? क्या वे महात्मा गांधी की हत्या से प्रत्यक्ष तौर पर जुड़े थे ?

चतुर्वेदी ने सावरकर की स्थितियों के प्रति सहानुभूति भरा नजरिया अपनाया है और उनकी दलील है कि सावरकर को आज के वक्त की राजनीति के चश्मे से ना देखा जाए। कुल 480 पन्नों की इस किताब में लेखक ने शुरू से लेकर आखिर तक अपना ध्यान सावरकर के राजनीतिक सिद्धांतों पर जमाये रखा है ना कि उनके राजनीतिक कर्मों पर।

सावरकार का समाधान…

तो फिर सावरकर ने हिंदुत्व के सैद्धांतिक अंतर्विरोधों का क्या समाधान निकाला? जीवन के प्रथम चरण में उन्हें कोई समाधान निकालने की जरूरत नहीं पड़ी।

सावरकर की पहली महत्त्वपूर्ण कृति जिसमें ‘1857 के सिपाही-विद्रोह’ की कथा भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के रूप में कही गई- समावेशी राष्ट्रवाद के चौखटे में ही लिखी गई है।‌ दरअसल, इस कृति में सावरकर ने लिखा है : ‘तो, अब हिंदू और मुसलमानों के बीच के मूल वैरभाव को अतीत की बात माना जा सकता है। उनके मौजूदा रिश्ते शासक और शासित, देशी और विदेशी के नहीं बल्कि भाई-भाई के हैं- दोनों के बीच सिर्फ धर्म का अंतर है। उनके नाम अलग-अलग हैं, लेकिन वे एक ही माता की संतान हैं, भारत इन दोनों की समान रूप से माता है, ये सगे भाई हैं।’

सावरकर ने यह तक लिखा कि हिंदुओं का मुसलमानों के प्रति घृणा-भाव पालना ‘अन्यायपूर्ण और मूर्खता’ है। लेकिन, अंडमान में कैद के बाद के वक्त में सावरकर के विचार बदल गये। उनकी किताब ‘एसेंशियल्स ऑफ हिंदुत्व’ (पहली बार सन् 1923 में प्रकाशित) ने हिंदू राष्ट्रवाद की एक अपवर्जनकारी विचारधारा की नींव डाली और इसी विचारधारा के साथ उन्होंने मृत्यु पर्यंत जीवन जीया।

हिंदू की परिभाषा क्या हो—इस समस्या का उन्होंने अपनी राजनीतिक परियोजना के हिसाब से समाधान सुझाया। हिंदू का अर्थ बस इतने तक सीमित नहीं कि जो हिंदू धर्म का अनुसरण करे वह हिंदू—ऐसा कहने का मतलब होगा धर्म की जो परिकल्पना पश्चिमी मुल्कों में प्रचलित है, उसकी नकल कर लेना और, ऐसी परिभाषा करने से सिख धर्म, जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म भी हिंदू-धर्म के विशाल वृत्त में शामिल होने से रह जाएंगे।

सो, सावरकर के अनुसार आप हिंदू हैं बशर्ते हिंदुस्तान आपकी मातृभूमि, पितृभूमि और पुण्यभूमि हो। मातृभूमि तो एक भौगोलिक संकल्पना है और भारत नाम के भू-क्षेत्र के भीतर जो कोई भी रहता है, वह इसके दायरे में शामिल माना जाएगा। लेकिन ऐसा करने का मतलब होगा हर नस्ल, धर्म और समुदाय के लोगों को हिंदू मान लेना। पितृभूमि कहने पर यह दायरा ऐसा विशाल नहीं रह जाता क्योंकि तब हिंदू शब्द के अर्थ के दायरे में वही लोग शामिल माने जा सकते हैं जो रक्त-संबंधों से आपस में जुड़े हों। लेकिन, फिर ऐसा करने के बावजूद हिंदू समुदाय के दायरे से वे लोग बाहर नहीं हो पाएंगे जिनके पुरखों ने इस्लाम अथवा ईसाई धर्म अपना लिया हो। इसलिए, सावरकर हिंदू होने की एक अंतिम शर्त रखते हैं कि हिंदू वह है जो : सिर्फ इसी भारत-भूमि (ना कि मक्का या यरुशलम) को अपनी पुण्यभूमि मानता हो।

लेकिन फिर उन लोगों का क्या हो जो इस भारत-भूमि पर हिंदुओं के पहुंचने के पहले से रह रहे हैं? यह सावरकर के लिए एक गंभीर मसला है क्योंकि वे इस बात को मानकर चल रहे थे कि आर्य लोग वैदिक सभ्यता और संस्कृति को भारत लेकर आए और सावरकर इस बात को साबित करने के लिए जी-जान से जुटे हुए थे कि हिंदुओं की चमड़ी का रंग काला नहीं होता।

इस मसले पर सावरकर बड़ी बेबाकी से कहते हैं : हां, हिंदुओं ने मूल निवासियों को हिंसापूर्वक जीता लेकिन वे लोग हिंदू संस्कृति में शामिल कर लिये गये। कोई विद्रोह ना हुआ, कोई स्थायी वैरभाव ना रहा। वे सब अब हिंदू हैं। और, ऐसे ही वे लोग भी हिंदू हैं जो भारत के बाहर से आए और हिंदू संस्कृति में रच-बस गये। सावरकर ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ थे लेकिन उसे उपनिवेशवाद मानने के कारण नहीं बल्कि यूरोपीय मानने के कारण। हिंदी साम्राज्यवाद को लेकर उनके मन में बड़ा उत्साह-भाव था।

क्या इन बातों से किसी सुसंगत विचारधारा की झलक मिलती है? ना, ऐसा नहीं हो पाता। विनायक चतुर्वेदी की किताब बताती है कि सावरकर हिंदुत्व की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं दे पाये। इसकी जगह, उन्होंने इतिहास का दामन थामा जिसे वे परिपूर्ण इतिहास का नाम देते हैं और दिखाया कि हिंदुत्व क्या है। क्या वे भारत के इतिहास का जैसा महा-आख्यान रचते हैं वह तथ्यात्मक रूप से सही है?
सावरकर ने हिंदुओं के इतिहास की जो मनगढ़ंत और हवा-हवाई तस्वीर बनायी है, उससे शायद ही कोई गंभीर इतिहासकार सहमत हो पाये। जो इतिहासकार द्रविड़ जन तथा आदिवासी जन के अतीत के प्रति गंभीर हैं, उनके सहमत हो पाने का तो सवाल ही नहीं उठता।

क्या सावरकर की विचारधारा अपनी नैतिक श्रेष्ठता का दावा कर सकती है? ना, जबतक यह स्पष्ट नहीं हो जाता कि भारत के मूल निवासियों के साथ हिंसक बर्ताव के मामले में जो छूट सावरकर ने हिंदुओं को दी है वही छूट मुस्लिम आक्रांताओं और ब्रिटेन की उपनिवेशवादी सत्ता को उनकी विचार-परियोजना क्योंकर नहीं देती- हम ऐसा नहीं कह सकते। लेकिन, हिंदुत्व के भीतर जो भावनात्मक आकर्षण है, उसका ऐसी महीन बातों से क्या लेना-देना।

हिंदुत्व की राजनीति की बुनियादी चुनौती को छोड़ अन्य कोई ईमानदार बौद्धिक समाधान नहीं। आप बुनियादी अंतर्विरोधों की रूपरेखाएं कागज पर उकेर सकते हैं लेकिन आप उनका समाधान नहीं निकाल सकते, किसी एक की हित-साधना में आप भारत की समृद्ध सभ्यतागत विरासत पर बेशक कब्जा जमा सकते हैं लेकिन सिर्फ झूठ और फरेब का सहारा लेकर।

तो क्या विनायक दामोदर सावरकर की रची कथाएं और सिद्धांत अपवर्जन, द्वेष, घृणा, कट्टरता और हिंसा की राजनीतिक परियोजना को छिपाने का एक विचारधाराई आवरण मात्र है? विनायक चतुर्वेदी अपनी किताब में इस प्रश्न का कोई सीधा उत्तर नहीं देते लेकिन सावरकर की इस अत्यंत पठनीय बौद्धिक जीवनी में उन्होंने जो सामग्री प्रस्तुत की है, उससे इस प्रश्न का उत्तर ‘हां’ के अलावा कुछ और नहीं निकाला जा सकता।

(द प्रिंट से साभार)

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