अनुच्छेद 370 हटाने के तीन साल : हमने क्या खोया क्या पाया?

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— डॉ सुरेश खैरनार —

कश्मीर पर बल द्वारा नहीं, केवल पुण्य द्वारा विजय की जा सकती है। यहाँ के निवासी केवल परलोक से भयभीत होते हैं, न कि शस्त्रधारियों से! – (पंडित कल्हण की राजतरंगिणी से)

भारत के प्रथम इतिहास लेखन करनेवाले कश्मीरी पंडित कल्हण की राजतरंगिणी के शुरुआती उद्धरण का मतलब! भारत की आजादी के पचहत्तर साल हफ्ते भर बाद पूरे हो रहे हैं, और इन पचहत्तर सालों के दौरान कश्मीर की नदियों में से कितना पानी बह गया है? यह बात मुझे एक कश्मीरी नेता ने पिछली मुलाकात में कही कि खैरनार साहब, भारत ने कश्मीर को कब्जे में तो कर लिया लेकिन कश्मिरियों के दिल नहीं जीते। यह बड़े अफसोस की बात है! और खुद निरुत्तर होकर चुप हो गया!

5 अगस्त 2019 को वर्तमान बीजेपी की सरकार ने, बिल्कुल नोटबंदी की तरह ही बहुत गोपनीय ढंग से, जुलाई के अंतिम सप्ताह से ही अतिरिक्त पचास हजार से अधिक सैनिकों को कश्मीर में उतारा। हालांकि पहले से ही सेना मौजूद थी, वह अलग से! 370 हटाने के बाद, कश्मीर के  मित्रों के फोन बड़ी मुश्किल से ही लगते थे! क्योंकि इंटरनेट सेवा बंद होने का अनुभव, अब कश्मीरियों के लिए कोई नई बात नहीं है। समय-समय पर वहाँ अचानक दूरसंचार सेवा तथा अखबार बंद करने के अनुभवों से वे अभ्यस्त हो गए हैं। हालांकि कम-अधिक प्रमाण में संपूर्ण भारत में भी यही हाल है! जैसे कल दिल्ली के  ‘यंग इंडियाअखबार को बंद कर दिया वैसे ही कश्मीर के सबसे पुराने अखबार कश्मीर टाइम्स को तीन साल से बंद कर दिया है!

हमारे सर्वोच्च न्यायालय को न ही कश्मीर टाइम्स का केस देखने की फुरसत है और न ही 80 के आसपास अनुच्छेद 370 से संबंधित याचिकाओं को देखने की। एक तरफ चिल्ला-चिल्ला कर कहा जाता है किकश्मीर हमारा अभिन्न अंग है! और इस अभिन्न अंग के साथ ही सौतेला व्यवहार किया जाना कहाँ तक उचित है? कम से कम हमारे देश की न्यायिक व्यवस्था को तो दखल देना चाहिए! प्रेस कौन्सिल आफ इंडिया, मानवाधिकार आयोग, ऐसे जितनी भी संस्थान हैं सबके सब चुप्पी साधे हुए हैं!

किसी कौम की अभिव्यक्ति के सभी दरवाजे बंद हो जाने से ही आतंकवाद पनपता है! क्योंकि किसी भी बात की एक हद होती है! मैं हर तरह के आतंकवाद के खिलाफ हूँ, सिर्फ भारत में ही नहीं संपूर्ण विश्व में अपनी क्षमता के अनुसार तीस साल से अधिक समय से काम कर रहा हूँ! और इसीलिए कश्मीर को लेकर चालीस साल से भी अधिक समय से कोशिश कर रहा हूँ! जिसमें विस्थापित पंडित हों, या कश्मीर के अन्य कौम के लोग, सबके साथ संवाद करता रहता हूँ। और इसी कड़ी में 5 अगस्त 2019 को 370 हटाए जाने के बाद, कश्मीर जाकर हालात देख आने के लिए एक महीने के भीतर ही मैंने अपनी कोशिश शुरू की थी!

24 – 25 सितंबर 2019 को कश्मीर के हालात का जायजा लेने के लिए जाने की कोशिश की। लेकिन दिल्ली एअरपोर्ट से वापस भेज दिया गया। मेरे एक दिन पहले राहुल गांधी को भी वापस भेज दिया गया था। ऐसा मुझे वापस भेजने वाली एजेंसी ने कहा। फिर दिसंबर में बीकानेर किसी कार्यक्रम के लिए बुलावा आया तो दोबारा दिल्ली जाकर कोशिश की लेकिन वही आलम! फिर आया कोरोना! इस तरह तीन साल होने को आए। तो एक जून 2022 को कोलकाता से, हमारी तीस साल पुरानी मित्र, मनीषा बैनर्जी के साथ कोलकाता जम्मू तवी एक्सप्रेस से, पचास घंटों का सफर तय करने के बाद तीन जून को, जम्मू दोपहर दो बजे पहुंचे। रेलवे स्टेशन से शेयर सुमो गाड़ी से, श्रीनगर रात के दस बजे पहुंचे! तो रास्ता चौड़ा बनाने का काम शुरू होने के कारण बीच-बीच में जाम की वजह से, तीन सौ किलोमीटर का फासला तय करने में सात घंटे से ज्यादा समय लगा! चार जून से सात जून, चार दिन श्रीनगर, बडगाम, और पंडितों के बारे में जहाँ पता चला वहाँ-वहाँ गए। और मुख्यतः मंदिर कैसे हालात में हैं वह भी देखने के लिए जगह-जगह गए।

चरारे शरीफ गए। 1995 में मस्तगूल नाम के आतंकवादी के खिलाफ कार्रवाई करने के साथ-साथ, पुराने चरारे शरीफ को आग लग जाने के कारण, वह जल चुका है। अब नया बनाया गया है। हुश्रु नामक जगह पर एक मंदिर है। उसी तरह बडगाम तथा अन्य चार मंदिरों की खबर मिली तो उन्हें भी देखने चले गए।

खानसराय नामक जगह पर करीब चालीस सिख परिवार चार सौ साल से रह रहे हैं। और वहाँ एक बहुत ही सुंदर गुरुद्वारा भी है! कुल चालीस से पचास हजार की संख्या में सिख पूरे कश्मीर में रह रहे हैं।

हम तीन जून को जम्मू स्टेशन से जिस सुमो गाड़ी से आए थे उसमें हमारे अलावा एक पच्चीस साल का सिख विद्यार्थी, गुरदासपुर के इंजीनियरिंग कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद, अपने घर त्राल, जिला अनंतनाग वापस जा रहा था। रास्ते में उसके साथ बातचीत में पता चला कि उसके पिता की मृत्यु हो गयी है और घर में अकेली माँ है जो सेब और अन्य फसलों की देखभाल करती है। और त्राल में, और भी सिख परिवार सैकड़ों सालों से रह रहे हैं। किसी के फलों के बगीचे हैं तो किसी के श्रीनगर में होटल, दुकानें हैं।

सिख धर्म के बारे में संघ के दीर्घकाल तक प्रमुख रहे माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर गुरुजी अक्सर कहते थे कि इस धर्म की स्थापना हिंदू धर्म की रक्षा करने के लिए विशेष रूप से की गयी है! पर उस धर्म के लोग संपूर्ण कश्मीर में आराम से रह रहे हैं! और हजारों की संख्या में पंडितों को कश्मीर असुरक्षित महसूस हुआ! इसलिए उन्हें कश्मीर छोड़कर जाने के लिए मजबूर होना पड़ा! हालांकि आज भी कश्मीर में चार से पांच हजार हिंदू रह रहे हैं! बिल्कुल छोटे-छोटे गांव में भी मैंने देखा है, और श्रीनगर में भी!

हिंदुओं का पलायन होने की बात से काफी सवाल पैदा होते हैं! क्योंकि कश्मीर की समस्या धार्मिक नहीं है। कुछ लोग उसे जानबूझकर धार्मिक रंग देना चाहते हैं! लेकिन संपत प्रकाश, प्रबोध, अनुराधा जमवाल और उनके पहले वेद भसीन, बलराज पुरी, नंदिता हक्सर जैसे कश्मीर के रहवासियों के लेखों या किताबों में कहीं भी धर्म के आधार पर कश्मीर की लड़ाई नहीं है! हाँ प्रजा परिषद (कश्मीर की हिंदू महासभा) या वर्तमान समय में बीजेपी या आरएसएस ने उसे शुरू से ही धार्मिक रंग देने की कोशिश की है, और अभी भी कर रहे हैं!

अगर कश्मीर की समस्या धर्म के आधार पर होती तो कश्मीर आजादी के समय के बँटवारे में हर तरह से पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए था। क्योंकि पाकिस्तान बनने के जो आधार थे उसमें जनसंख्या का आधार सबसे पहले नंबर पर था! और उस समय भी कश्मीर में नब्बे प्रतिशत से अधिक मुस्लिम जनसंख्या थी! और भौगोलिक क्षेत्र के हिसाब से पाकिस्तानी इलाके से लगा हुआ भूभाग है ! मेरा इस तरह के दकियानूसी सोच वाले लोगों से इस लेख के बहाने सवाल है कि क्यों कश्मीर 1947 के समय ही पाकिस्तान में शामिल नहीं हुआ?” क्योंकि मुस्लिम बहुसंख्यक आबादी और भौगोलिक स्थिति, इन दोनों मुद्दों पर कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा बन सकता था।लेकिन क्यों नहीं बना? इस सवाल पर तटस्थता से सोचने की आवश्यकता है! सिर्फ हिंदू राजा था, यह बहुत ही कमजोर मुद्दा है ! अगर नब्बे प्रतिशत आबादी ने पाकिस्तान में शामिल होने का निर्णय लिया होता तो उसे कौन रोक सकता था? और एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य है कि लॉर्ड माउंटबेटन ने जिन्ना को कश्मीर में सर्व-मत (Plebiscite) लेने का सुझाव दिया था। लेकिन जिन्ना को अच्छी तरह से मालूम था कि कश्मीर की जनता पाकिस्तान के पक्ष में नहीं है! इसलिए वह सर्व-मत लेने के बजाय कबायली के भेस में सेना के द्वारा कब्जा करने की करतूत पर उतर आए।

क्योंकि उस समय शेख अब्दुल्ला कश्मीर के लोगों के सबसे बड़े नेता थे और वह खुद पाकिस्तान के खिलाफ थे! और उनका दल नेशनल कॉन्फरेन्स भी! अगर उस समय शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने पाकिस्तान के साथ जाने की पहल की होती तो शायद ही कोई कश्मीर को भारत में शामिल करने की कोशिश में कामयाब हो होता!  सरदार पटेल को भारत की छह सौ से अधिक रियासतों के विलय के लिए सराहा जाता है! वह खुद कश्मीर की मुस्लिम बहुल आबादी को देखते हुए, मानकर चल रहे थे कि कश्मीर पाकिस्तान में जा सकता है! वह तो जिस जवाहरलाल नेहरू को वर्तमान सत्ताधारी दल के लोग गाहे-बगाहे कोसते रहते हैं उन्हीं नेहरू की कोशिश और शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के साथ उनकी दोस्ती के फलस्वरूप आज कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है!

कम-अधिक प्रमाण में कश्मीर में यह नजारा 75 साल से चल रहा है! कबायलियों से निपटने के लिए भेजी गयी सेना का वापस आना तो दूर, उलटे सेना, सीआरपीएफ, बीएसएफ और विभिन्न प्रकार के सुरक्षा बलों की तैनाती बढ़ते-बढ़ते अब हर एक कश्मीरी परिवार पर सेना के एक जवान का अनुपात हो गया है!

(जारी)

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