अनुच्छेद 370 हटाने के तीन साल : हमने क्या खोया क्या पाया – तीसरी किस्त

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— डॉ. सुरेश खैरनार —

श्मीर की समस्या को बढ़ाने के लिए वहाँ के हिन्दू महाराजा मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। और जब जिन्ना ने कहा कि अगर कश्मीर पकिस्तान में शामिल हुआ तो पकिस्तान कश्मीर की स्वायत्तता में हस्तक्षेप नहीं करेगा, 14 अगस्त 1947 को  यथास्थिति (standstill) का समझौता किया है! यह दिलचस्प है कि महाराजा ऐसा ही समझौता भारत के साथ करना चाहते थे लेकिन भारत ने कहा कि जनता की इच्छा के अनुसार काम करेंगे! और यही बुनियादी फर्क है कि मुस्लिम लीग महाराजा को झूठे आश्वासन देकर फुसला रही थी और उधर कबायली के नाम पर सेना की तरफ से आक्रमण करने की तैयारी जारी थी! 15 अगस्त 47 से 27 अक्तूबर 47 तक, दो महीने से ज्यादा समय यह स्थिति थी, कश्मीर के महाराजा के कारण! पाकिस्तान को मुजफ्फराबाद की तरफ से कबायली के नाम पर सैन्य आक्रमण करने का मौका मिला, और आजका पीओके लगभग 84000 वर्ग किलोमीटर, कश्मीर का हिस्सा हथिया लिया है! जिसे अब पाकिस्तान आजाद कश्मीर बोलता है, और भारत पीओके यानी पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर! इसके अलावा अक्साई चिन पाकिस्तान ने चीन को दे दिया वह अलग से।

90 प्रतिशत आबादी मुसलमान होने के बावजूद, कश्मीर में सांप्रदायिक राजनीति देश के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बिल्कुल नहीं थी। और यह बात महात्मा गाँधी को पता चली तो उन्होंने अगस्त के प्रथम सप्ताह में 1947 में खुद रावलपिंडी के रास्ते से होते हुए कश्मीर जाकर देखा कि भारत के पश्चिम तथा पूर्व भागों में भयंकर सांप्रदायिक हिंसा जारी थी और मुस्लिम बहुल कश्मीर शांत था! हालांकि प्रजा परिषद के नाम से, संघ परिवार के लोग जिन्हें राजा की शह थी, और मुस्लिम लीग के नाम से, छह सप्ताह कश्मीर में जिन्ना ने खुद कोशिश करने के बावजूद! दाल नहीं गली तो उन्होंने भी मुस्लिम कॉन्फ्रेस के नाम से! और सबसे संगीन बात यह कि दोनों धड़े राजा के समर्थक थे! यानी अंग्रेजो की बाँटो और राज करो की नीति राजा साहब भी बखूबी चला रहे थे। लेकिन इन दोनों को अपेक्षाकृत कामयाबी, नेशनल कॉन्फ्रेंस की तुलना में कोई खास नहीं मिली। और यही कश्मीरियत है! भारतीय उपमहाद्वीप की इस्लामी पहचान को देखकर लगता नहीं कि कश्मीर में उस तुलना में फर्क है!

1990 की 19 जनवरी को जगमोहन ने राज्यपाल का कार्यभार सँभाला। अल्पमत वाली वीपी सिंह की सरकार बीजेपी के बाहरी समर्थन से बनी हुई थी! इस कारण बीजेपी ने जगमोहन को कश्मीर के राज्यपाल की सिफारिश की थी और वीपी सिंह ने राज्यपाल पद के लिए जगमोहन के नाम की घोषणा 17 जनवरी को कर दी। जगनमोहन ने अठारह जनवरी को कश्मीर पहुँचने के तुरंत बाद सीआरपीएफ की तैनाती की और श्रीनगर के घर-घर की तलाशी का अभियान शुरू हुआ, जिसके दौरान महिलाओं के साथ बदसलूकी हुई और संपूर्ण श्रीनगर शहर 19 जनवरी की रात में विरोध प्रदर्शन के लिए सड़कों पर उतर आया। और उन्होंने खुद सेना के ट्रक ले जाकर कश्मीरी पंडितों को कहा कि कुछ समय के लिए! आप लोगों को मैं सुरक्षात्मक उपाय के लिए कहीं और ले जा रहा हूँ! और बाद में वापस लाकर छोड़ूँगा! लेकिन वह दिन अब तक नहीं आया! पिछले दिनों पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने 90 के कश्मीरी पंडितों के विस्थापन को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के किसी रिटायर जज द्वारा जाँच की माँग की है! भारत के इतिहास में जगमोहन पहले राज्यपाल होंगे जिन्हें सिर्फ पाँच महीने के अंदर वापस बुला लिया गया।

मैंने मॉडरेट हुर्रियत के नेताओं से (मीरवाइज उमर फारूक) इस बारे में पाँच-छह घंटे उनके मुख्यालय में 2006 के मई के प्रथम सप्ताह में, जाकर बात की है। और उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि कश्मीरी पंडितों के बगैर कश्मीरियत बेमानी है! और जगमोहन को जिम्मेदार ठहराया, और मुझे आश्वस्त किया कि आपको अगली कश्मीर यात्रा पर यहाँ पंडित अपने अपने पुश्तैनी घरों में मिलेंगे। यह 2006 की बात है।

2016 में दोबारा मैं गया। और सबसे पहले, जम्मू से 15 किलोमीटर की दूरी पर, जागृति नामक कश्मीरी पंडितों के कैम्प में गया। पण्डितों के नेता त्रिलोकीनाथ पंडित जी के घर पर काफी समय बैठे थे। उस कैम्प का उद्घाटन 2007 में डॉ मनमोहन सिंह ने किया था। उद्घाटन समारोह का फोटो त्रिलोकनाथ जी के घर की दीवार पर टँगा था। उनके घर में उनके अलावा कोई नहीं था, तो सामनेवाले फ्लैट की तरफ देखकर, आवाज दी कि अंजली जरा दो-तीन कप चाय देना! कुछ समय के बाद, एक तीस-पैंतीस साल की महिला, हाथ में ट्रे लेकर आयी और मेरे बगल में बैठते हुए बोली कि आप डॉ सुरेश खैरनार हैं! 2006 में भी आप हमारे पहलेवाले टिन के कैम्प में आए थे, और वापस वैली में चलने की बात कर रहे थे! और अब तो आप देख रहे हैं! भारत सरकार ने कितने अच्छे-खासे मकान बनाकर दिये हैं! हम मुसलमानों को म्लेच्छ (अछूत) मानते हैं। हम उनके लिए अलग बर्तन रखते हैं। और हम यहाँ पर खुश हैं। हमें नहीं आना वैली-फैली में! उल्टा अगली बार जब आप आओगे तो मैं आपको यहाँ नहीं मिलूँगी, मेरी बेटी पुणे में आईटी सेक्टर में काम करती है और उसने इससे भी बडा फ्लैट बुक किया है, वह जैसे ही तैयार हो जाएगा, तो मैं भी पुणे शिफ्ट हो रही हूँ। हम पंडित पढ़ने-लिखने वाले लोग हैं। हमारी कुल आबादी साठ लाख है जिसमें से सिर्फ तीन लाख इन कैंपों में रह रहे हैं, बाकी 57 लाख देश-विदेश में रहते हैं। हमारे काफी लोग विदेशों में बस गये! और बचे-खुचे पुणे, बंगलोर, हैदराबाद, चेन्नई, दिल्ली, कोलकाता जैसे महानगरों में बस गये हैं। हमें नहीं रहना मुसलमानों के साथ!

और यह बात सिर्फ अंजली रैना की नहीं, कम-अधिक प्रमाण में काफी कश्मीरी पंडितों के जेहन में है! इसीलिए कई लोगों को लगता है कि हम सिर्फ मुसलमानों की बात करते हैं! मैं इतने सालों में जब-जब कश्मीर गया हूँ कश्मीरी पंडितों से मिले बगैर नहीं लौटा हूँ। हालाँकि मैं तो गाँवदेहात, सुदूर पहाड़ों पर और बारह महीने सतत अपनी भेड़-बकरियाँ लेकर चलनेवाले बकरवाल, गुज्जर जैसी जनजातियों के साथ भी काफी समय रहा हूँ। और इन्हीं लोगों की सात साल की बच्ची के साथ, जम्मू के एक मंदिर में बलात्कार करके उसे मार डाला गया! और सबसे हैरानी की बात कि इस कांड को अंजाम देनेवाले लोगों के समर्थन में भारत के राष्ट्रीय झंडे के साथ जम्मू में जुलूस निकाला गया! और अब बीजेपी 9 अगस्त से पंद्रह अगस्त तक हरेक व्यक्ति को आजादी के पचहत्तर साल के जश्न में तिरंगा फहराने के लिए कह रही है! तिरंगे झंडे का इससे बड़ा अपमान और क्या हो सकता है?


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