— राजू पाण्डेय —
आदरणीय प्रधानमंत्री का स्वतंत्रता दिवस उदबोधन कुछ ऐसा था कि जो कुछ उन्होंने कहा वह चर्चा के उतना योग्य नहीं है जितना कि वे मुद्दे हैं जिन पर उनका भाषण केंद्रित होना चाहिए था।
वर्ष 2017 में प्रधानमंत्री जी ने न्यू इंडिया प्लेज (नए भारत की प्रतिज्ञा) शीर्षक एक ट्वीट किया था जिसमें उन्होंने देश के नागरिकों का आह्वान किया था कि वे सन 2022 तक निर्धनता, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, साम्प्रदायिकता और जातिवाद से सर्वथा मुक्त एवं स्वच्छ नया भारत बनाने हेतु शपथ लें।
इसी तारतम्य में दिसंबर 2018 में नीति आयोग ने कुछ ऐसे लक्ष्य निर्धारित किए थे जिन्हें 2022 तक प्राप्त किया जाना था। इन लक्ष्यों की प्राप्ति के संबंध में ‘इंडिया स्पेंड’ के विशेषज्ञों द्वारा किया गया फैक्टचेकर में प्रकाशित अन्वेषण बहुत निराशाजनक तस्वीर हमारे सम्मुख प्रस्तुत करता है।
नीति आयोग ने देश के प्रत्येक परिवार को 2022 तक अबाधित बिजली और पानी की आपूर्ति तथा शौचालय युक्त सहज पहुंच वाला घर उपलब्ध कराने का लक्ष्य निर्धारित किया था। स्वतंत्रता बाद से ही चली आ रही गृह निर्माण योजनाओं का नया नामकरण 2016 में प्रधानमंत्री आवास योजना किया गया और इसे एक नई योजना के रूप में प्रस्तुत किया गया। चूंकि योजना अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने नाकाम रही इसलिए इसे दिसंबर 2021 में कैबिनेट द्वारा 2024 तक बढ़ा दिया गया। दिसंबर 2021 की स्थिति में 2.95 करोड़ ग्रामीण आवासों के निर्धारित लक्ष्य में से केवल 1.66 करोड़ ग्रामीण आवासों का निर्माण हो सका था। प्रधानमंत्री आवास योजना शहरी के अंतर्गत दिसंबर 2021 की स्थिति में निर्धारित लक्ष्य 1.2 करोड़ में से केवल 52.88 लाख शहरी आवास बनाए जा सके थे।
खुले में मल त्याग की समाप्ति के लक्ष्य के संबंध में भी सरकारी दावों और जमीनी हकीकत में बहुत बड़ा अंतर दिखाई देता है। सरकार ने यह दावा किया था कि अक्टूबर 2019 में ग्रामीण भारत खुले में शौच की प्रथा से सर्वथा मुक्त हो गया है किंतु एनएफएचएस (राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण)-5 के अनुसार बिहार, झारखंड, ओड़िशा आदि राज्यों और लद्दाख जैसे केंद्र शासित प्रदेशों में केवल 42-60 प्रतिशत आबादी इन सैनिटेशन सुविधाओं का उपयोग कर रही है। जुलाई 2021 की डब्लूएचओ और यूनाइटेड नेशन्स चिल्ड्रन्स फंड की एक साझा रपट यह बताती है कि भारत की 15 प्रतिशत आबादी अब भी खुले में शौच करती है। एनएफएचएस-4 के 37 प्रतिशत की तुलना में एनएफएचएस-5 में रूरल सैनिटेशन 65 प्रतिशत पर पहुंचा है जबकि अर्बन सैनिटेशन के लिए यही आंकड़े क्रमशः 70 फीसदी और 82 फीसदी हैं।
मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने के विषय में सरकारी दावों और वास्तविकता में बहुत अंतर दिखता है। सफाई कर्मचारियों के विषय में सरकार के 2019-20 के आंकड़े केवल 18 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में किए गए आधे अधूरे सर्वेक्षण पर आधारित हैं। जुलाई 2021 में संबंधित विभाग के मंत्री रामदास अठावले ने यह दावा किया था कि पिछले पांच वर्षों में किसी मैला ढोनेवाले की मृत्यु नहीं हुई है। दरअसल, सरकार के अनुसार सीवर की सफाई करनेवाले कर्मचारी मैला ढोनेवाले कर्मचारियों की श्रेणी में नहीं आते। यह धूर्ततापूर्ण व्याख्या पिछले पांच वर्षों में सीवर सफाई के दौरान हुई 340 सफाई कर्मचारियों की मौत को नकारने के लिए सरकार द्वारा की गई है। वर्ष 2021 में ही सीवर सफाई के दौरान 22 मौतें हुईं।
स्वास्थ्य और पोषण के क्षेत्र में भी हम निर्धारित लक्ष्य से बहुत पीछे हैं। एनएफएचएस-4 के 38.4 प्रतिशत की तुलना में स्टंटेड शिशुओं की संख्या एनएफएचएस-5 में घटकर 35.5 प्रतिशत रह गई है जबकि कम भार वाले शिशुओं की संख्या 35.8 से घटकर 32.1 प्रतिशत रह गई है किंतु यह उपलब्धि सरकार द्वारा निर्धारित लक्ष्य से बहुत पीछे है जो 2022 तक स्टंटेड और कम भार वाले शिशुओं की संख्या को घटाकर 25 प्रतिशत पर लाना चाहती थी।
बच्चों और महिलाओं में एनीमिया की स्थिति बिगड़ी है। 2014-15 में 58.6 प्रतिशत बच्चे एनीमिया ग्रस्त थे जो 2019-20 में बढ़कर 67.1 प्रतिशत हो गए जबकि महिलाओं के संदर्भ में यह आंकड़ा 2014-15 के 53.1 प्रतिशत से बढ़कर 2019-20 में 57 प्रतिशत हो गया।
नीति आयोग द्वारा 2022 तक पीएम 2.5 के स्तर को 50 प्रतिशत से नीचे लाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर रिपोर्ट 2020 भारत को वायु में पीएम 2.5 की सर्वाधिक मात्रा वाले देश के रूप में चिह्नित करती है। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में दो तिहाई भारत में हैं।
केंद्र सरकार ने फीमेल लेबर पार्टिसिपेशन रेट को 2022-23 तक 30 प्रतिशत के स्तर पर ले जाने का लक्ष्य रखा था किंतु यह 2019 में 20.3 और 2020 की दूसरी तिमाही में 16.1 प्रतिशत के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई।
प्रधानमंत्री को यह बताना था कि पिछले पांच वर्षों में अपनी सैकड़ों जनसभाओं में बहुत जोशोखरोश के साथ दुहराए गए इन लक्ष्यों की प्राप्ति में उनकी सरकार क्यों असफल रही?
प्रधानमंत्री अगस्त 2022 से पहले किसानों की आय दोगुनी करने के अपने बहुचर्चित वादे पर भी मौन रहे। सरकार ने इस संबंध में अब तो बात करना ही छोड़ दिया है। जब अप्रैल 2016 में इस विषय पर अंतर-मंत्रालयी समिति का निर्माण हुआ था तब किसानों की आय 8,931 रुपए परिकलित की गई थी। राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय (एनएसओ) के अनुसार वर्ष 2018 में किसानों की आय 10,218 रुपए थी, यह वृद्धि 2016 की तुलना में केवल 14.4 प्रतिशत की है। इसके बाद सरकार की ओर से कोई अधिकृत आंकड़े नहीं आए हैं।
बहरहाल एनएसओ स्वयं स्वीकारता है कि यह आय औसत रूप से परिकलित की गई है। स्थिति यह है कि छोटी जोत वाले किसानों की आय बड़े भू स्वामियों की तुलना में कहीं कम है। यदि उर्वरकों, बीजों, कीटनाशकों, डीजल, बिजली और कृषि उपकरणों की महंगाई को ध्यान में रखें तो किसानों की आय बढ़ने के स्थान पर घटती दिखाई देगी।
प्रधानमंत्री अपने भाषण में देश की आम जनता को त्रस्त करने वाली महंगाई और बेरोजगारी की समस्याओं पर भी मौन रहे। खाद्य पदार्थों को जीएसटी के दायरे में लाने के विवादास्पद निर्णय पर भी उनके भाषण में कोई टिप्पणी नहीं थी।
अब जरा चर्चा उन विषयों की जिन पर प्रधानमंत्री का भाषण केंद्रित था। अपने स्वयं के अधूरे संकल्पों और वर्तमान की समस्याओं को हल करने में अपनी असफलता की चर्चा से मुंह चुराते प्रधानमंत्री जी आगामी 25 वर्षों के लिए 5 नए प्रण और एक महासंकल्प की बात करते नजर आए।
पहला प्रण यह है कि देश अब बड़े संकल्प लेकर ही चलेगा। यह प्रण महत्त्वपूर्ण तो है लेकिन यदि देशवासी प्रधानमंत्री की भांति ऐसे संकल्प लेना प्रारंभ कर दें जिन्हें पूर्ण करने की न तो कोई योजना हो, न कार्यनीति हो और सबसे बढ़कर कोई इरादा भी न हो तो देश का क्या होगा, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। यह भी हो सकता है कि देशवासी कैशलेस अर्थव्यवस्था के लिए नोटबन्दी और अपने कॉरपोरेट मित्रों की सुविधा के लिए जीएसटी जैसी किसी कर प्रणाली को क्रियान्वित करने का आत्मघाती संकल्प ले लें। प्रधानमंत्री ने अपने आचरण से प्रण-संकल्प-शपथ जैसे शब्दों की गरिमा को कम करने का काम ही किया है।
दूसरा प्रण गुलामी से सम्पूर्ण मुक्ति का प्रण है। वर्तमान सरकार की अर्थनीतियों और विकास की उसकी समझ को गांधीवाद का विलोम ही कहा जा सकता है। गांधीजी की ग्राम स्वराज्य की परिकल्पना, विकेंद्रीकरण का उनका आग्रह और आधुनिक सभ्यता का उनका नकार- वे विचार हैं जो गुलामी से वास्तविक मुक्ति दिला सकते हैं। किंतु इन्हीं की सर्वाधिक उपेक्षा आज हो रही है। अपने भाषण में प्रधानमंत्री एस्पिरेशनल सोसाइटी और डेवलप्ड नेशन जैसे शब्दों का प्रयोग करते नजर आए, यह अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और विकसित देशों द्वारा गढ़े गए वही शब्द हैं जिनकी ओट में नवउपनिवेशवाद अपनी चालें चलता है।
तीसरा प्रण है- हमें अपनी विरासत पर गर्व होना चाहिए। प्रधानमंत्री को स्पष्ट करना चाहिए था कि क्या हमारी विरासत को परिभाषित करने का अधिकार संकीर्ण, असमावेशी और हिंसक हिंदुत्व के पैरोकारों को दे दिया गया है? क्या हमारी इतिहास दृष्टि सावरकर द्वारा लिखित “भारतीय इतिहासातील सहा सोनेरी पाने” में वर्णित भयावह सिद्धांतों द्वारा निर्मित हो रही है? पिछले कुछ वर्षों से हमारी गंगा जमनी तहजीब और सामासिक संस्कृति को नष्ट करने का एक सुनियोजित अभियान चल रहा है। क्या आदरणीय प्रधानमंत्री इसकी निंदा करने का साहस दिखाएंगे?
एकता और एकजुटता प्रधानमंत्री का चौथा प्रण है। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के बल पर सत्ता हासिल कर पूरे देश को एक रंग में रंगने को आमादा राजनीतिक दल के अगुआ द्वारा जब एकता और एकजुटता जैसे शब्द प्रयोग किए जाते हैं तब हमें जरा सतर्क हो जाना चाहिए। यह उदार और व्यापक अर्थ वाले शब्दों को संकीर्ण अर्थ देने का युग है। एकता किसकी? क्या हिन्दू धर्मावलंबियों की या फिर सारे भारतवासियों की? एकजुटता किस कीमत पर? क्या अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान गँवाकर बहुसंख्यक वर्ग के धर्म की अधीनता स्वीकार करने की कीमत पर? इन प्रश्नों के उत्तर तलाशे जाने चाहिए।
पाँचवां प्रण जिसका प्रधानमंत्री ने उल्लेख किया वह है नागरिकों के कर्तव्य। यदि विश्व इतिहास पर नजर डालें तो हर तानाशाह- चाहे वह सैनिक तानाशाह हो, कोई निरंकुश राजा हो या फिर कोई ऐसा निर्वाचित जननेता हो जिसके मन के किसी अंधेरे कोने में कोई तानाशाह छिपा हो- एक आज्ञापालक-अनुशासित प्रजा चाहता है। वह अपनी इच्छा को- भले ही वह कितनी ही अनुचित क्यों न हो- सर्वोच्च नागरिक कर्तव्य के रूप में प्रस्तुत करता है।
सार्वभौम नागरिक कर्तव्य शासक की हर गलत बात का समर्थन करना नहीं है अपितु सच्चा नागरिक वही है जो देश, समाज, संविधान और मानवता की रक्षा के लिए प्रयत्नशील होता है भले ही इसके लिए उसे शासक का विरोध ही क्यों न करना पड़े।
भारत को डेवलप्ड कंट्री बनाना प्रधानमंत्री का महासंकल्प है। उन्होंने मानव केंद्रित व्यवस्था विकसित करने का आह्वान किया। लेकिन यह विकसित देश कैसा होगा? वर्तमान सरकार की विकास प्रक्रिया के कारण निर्धन और निर्धन हो रहे हैं, चंद लोगों के हाथों में राष्ट्रीय संपत्ति का अधिकांश भाग केंद्रित हो गया है। जातिगत और धार्मिक गैरबराबरी से जूझ रहे, लैंगिक असमानता से ग्रस्त भारतीय समाज के लिए यह आर्थिक विषमता विस्फोटक और विनाशक सिद्ध हो सकती है। स्वतंत्र संस्थाओं द्वारा किए जा रहे आकलन धार्मिक स्वतंत्रता, प्रेस की आजादी, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, मानवाधिकारों की रक्षा, हाशिये पर रहनेवाले समुदायों के हित संवर्धन, प्रजातांत्रिक मूल्यों का पालन, लैंगिक समानता की प्राप्ति आदि अनेक क्षेत्रों में हमारे गिरते प्रदर्शन को रेखांकित करते रहे हैं। हमारी सरकार इन पर लज्जित होने के बजाय इन्हें झूठा करार देती रही है। क्या डेवलप्ड इंडिया- अलोकतांत्रिक, असमावेशी, असहिष्णु और आर्थिक-सामाजिक असमानता से ग्रस्त होगा?
प्रधानमंत्री ने संविधान निर्माताओं का धन्यवाद किया कि उन्होंने हमें फेडरल स्ट्रक्चर दिया। क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व को समाप्त करने पर आमादा भाजपा की केंद्र सरकार विभिन्न राज्यों में विरोधी दलों की सरकारों को अस्थिर करने के लिए केंद्रीय जांच एजेंसियों के दुरुपयोग और असंवैधानिक तरीकों के इस्तेमाल से गुरेज नहीं करती। मजबूत केंद्र, मजबूत नेतृत्व, डबल इंजन की सरकार जैसी अभिव्यक्तियां और “भाजपा का शासन देश की एकता-अखंडता हेतु परम आवश्यक” जैसे नारे कोऑपरेटिव फेडरलिज्म को किस तरह मजबूत करते हैं, यह सहज ही समझा जा सकता है।
जब आदरणीय प्रधानमंत्री संविधान का जिक्र कर रहे थे तब उन्हें स्वतंत्रता दिवस से ठीक पहले धर्म संसद द्वारा तैयार हिन्दू राष्ट्र के संविधान के मसौदे पर भी अपनी प्रतिक्रिया देनी चाहिए थी जिसमें मुसलमानों और ईसाइयों को मताधिकार से वंचित करने का प्रस्ताव है। मानो प्रधानमंत्री के हर तरह की गुलामी से मुक्ति के प्रण का पूर्वाभास धर्म संसद को हो गया था तभी उसने हमारी वर्तमान सशक्त एवं निष्पक्ष न्याय व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करते हुए इसे वर्ण व्यवस्था के आधार पर संचालित करने और त्रेता तथा द्वापर युगीन न्याय व्यवस्था की स्थापना का प्रस्ताव दिया है। प्रधानमंत्री के जय अनुसंधान के नारे को साकार करने के लिए ही जैसे धर्म संसद द्वारा संविधान के मसौदे में ग्रह नक्षत्रों और ज्योतिष आदि की शिक्षा का प्रावधान किया गया है।
यह हम किस ओर ले जाए जा रहे हैं? क्या समय का पहिया पीछे घुमाया जा सकता है? हम एक उदार सेकुलर लोकतंत्र से एक कट्टर धार्मिक राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर हैं। क्या यही प्रधानमंत्री का भी सपना है? क्या प्रधानमंत्री भी सावरकर की भांति मनुस्मृति को हिन्दू विधि मानते हैं? क्या वे गोलवलकर के इस कथन से सहमत हैं कि हमारा संविधान पूरे विश्व के अनेक संविधानों के विभिन्न आर्टिकल्स की एक बोझिल और बेमेल जमावट है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे अपना कहा जा सके?
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में सावरकर एवं श्यामाप्रसाद मुखर्जी का प्रशंसात्मक उल्लेख किया। सावरकर स्वाधीनता आंदोलन के अहिंसक और सर्वसमावेशी स्वरूप से असहमत थे। गांधीजी की अपार लोकप्रियता और जन स्वीकार्यता उन्हें आहत करती थी। उन्होंने गांधीजी के प्रति अपनी घृणा और असम्मान की भावना को कभी छिपाने की चेष्टा नहीं की। सेलुलर जेल से रिहाई के बाद स्वाधीनता आंदोलन से उन्होंने दूरी बना ली थी। स्वाधीनता आंदोलन के स्वरूप से असहमत और गांधी विरोध की अग्नि में जलते सावरकर उग्र हिंदुत्व की विचारधारा के प्रसार में लग गए जो उन्हें प्रारम्भ से ही प्रिय थी। उन्होंने अंग्रेजों से मैत्री की, मुस्लिम लीग से भी एक अवसर पर गठबंधन किया और भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध भी किया।
सावरकर की भांति श्यामाप्रसाद मुखर्जी हिन्दू महासभा के शीर्ष नेता थे और उनकी पहली प्राथमिकता हिंदुत्व के अपने संस्करण का प्रसार करना था। मुस्लिम लीग के साथ साझा सरकार का हिस्सा रहे श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने भारत छोड़ो आन्दोलन का न केवल विरोध किया था, अपितु उसके दमन हेतु अंग्रेज सरकार को सुझाव भी दिए थे। संकीर्ण और असमावेशी हिंदुत्व की विचारधारा के प्रतिपादकों के रूप में प्रधानमंत्री अवश्य इन महानुभावों के प्रशंसक होंगे किंतु इन्हें गांधी-सुभाष-भगतसिंह-नेहरू की पंक्ति में स्थान देना घोर अनुचित है।
प्रधानमंत्री का भाषण बहुत प्रभावशाली लगता यदि वे उन आदर्शों और सिद्धांतों पर अमल भी कर रहे होते जिनका उल्लेख वे बारंबार कर रहे थे। किंतु कथनी और करनी में जमीन आसमान के अंतर से यही लगा जैसे बड़े धूमधाम से एक पाखंड पर्व चल रहा है।”