— रवीन्द्र गोयल —
सरकारी आँकड़े बता रहे हैं कि फिलवक्त महँगाई पिछले आठ सालों में अपनी सबसे ऊँची दर पर है। पिछले दिनों जारी आँकड़े बताते हैं कि खुदरा कीमतें अप्रैल महीने में पिछले साल इसी समय के मुकाबले 7.79 फीसदी के हिसाब से बढ़ी हैं। अगर थोड़ा विस्तार में जाँच करें तो पाएंगे कि जो महँगाई की बढ़ोतरी सरकार स्वीकार करने को बाध्य है वो सच्चाई से कोसों दूर है। पेट्रोल, डीजल घरेलू गैस की रोज़ छलाँग लगाती कीमतों को छोड़ भी दिया जाए तो वर्त्तमान में आटे का भाव 32.90 रुपये प्रति किलोग्राम है। दिल्ली में मेरे घर में आटा 45 रुपये प्रति किलोग्राम के भाव से मँगाया जाता है। पोर्ट ब्लेयर में आटे की कीमत सबसे ज्यादा 59 रुपये प्रति किलो है। और अन्य आम जन जीवन के लिए जरूरी कुछ वस्तुओं के दाम में एक साल में हुई बढ़ोतरी का अंदाजा भी निम्न तालिका से लग जाएगा।
उत्पाद | 9 मई, 2021 | 9 मई,2022 | इजाफा |
मसूर दाल | 84.34 | 96.77 | 14.73 फीसदी |
चीनी | 39.75 | 41.48 | 4.35 फीसदी |
चायपत्ती | 265.94 | 284.75 | 7.07 फीसदी |
आलू | 17.76 | 22.46 | 26.46 फीसदी |
टमाटर | 17.93 | 38.26 | 113.38 फीसदी |
दूध | 47.85 | 51.38 | 7.37 फीसदी |
सरसों तेल | 164.87 | 185.52 | 12.52 फीसदी |
वनस्पति तेल | 130.67 | 163.45 | 25.08 फीसदी |
सोया तेल | 147.74 | 170.33 | 15.29 फीसदी |
सूर्यमुखी | 168 | 192.34 | 14.48 फीसदी |
पाम तेल | 132.94 | 159.51 | 19.98 फीसदी |
(स्रोत : उपभोक्ता मंत्रालय, भाव प्रति किलो और लीटर में)
आंकड़े बता रहे हैं कि पिछले एक साल में चीनी, दूध,चाय पत्ती को छोड़ दिया जाए तो बाकी सभी सामान सरकारी हिसाब के मुकाबले महँगे है। और यह भी जानना दिलचस्प होगा कि इस निकम्मी सरकार के वित्तमंत्रालय का बयान है, “उपभोग सम्बन्धी तथ्य बताते हैं कि भारत में मुद्रास्फीति का उच्च आय वाले समूहों की तुलना में निम्न आय वर्ग पर कम प्रभाव पड़ता है।” लगता है ये लोग नया अर्थशास्त्र पढ़ाएंगे कि आटा, दाल, सब्जी यदि और चीजों के मुकाबले महँगी हैं तो गरीब कम प्रभावित होगा। (क्योंकि यदि खुदरा महँगाई की दर से आटा, दाल, सब्जी महँगे हैं तो खुदरा महँगाई में शामिल की जानेवाली और चीजें सस्ती होंगी तभी खुदरा महँगाई की दर कम रह सकती है)। ऐसा झूठ सरकार खुल्लमखुल्ला बोल रही है यह इस बात का सबूत है कि सरकार बेशर्मी की सभी हदें पार करने को तैयार है।
उपरोक्त जानलेवा महँगाई से कुछ गरीब मेहनती लोगों को राहत मिल सकती थी यदि रोजगार के मोर्चे पर कुछ सरकारी प्रयास किये गए होते। सच तो यह है कि इस मोर्चे पर वही बेशर्मी का आलम है। बढ़ती बेरोजगारी के बीच इस साल मोदी सरकार ने मनरेगा को दिया जानेवाला बजट भी पिछले साल के मुकाबले कम कर दिया है। नतीजतन बरोजगारी भी अपने चरम पर है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के अनुसार दिसंबर 2021 में बेरोजगारी दर 7.9 फीसदी थी। एक साल पहले दिसंबर 2020 में बेरोजगारी दर 9.1 फीसदी से ज्यादा थी। लेकिन यह दर सच्चाई का बयान नहीं है क्योंकि इस देश में गरीबी के हालात के चलते बहुत से लोग पेट भरने के लिए जो भी काम मिले करने को मजबूर हैं। ठेला चलाएंगे, रिक्शा चलाएंगे या सिर पर बोझ उठाएंगे, और यह मान लिया जाएगा कि उनको रोजगार मिल गया। और यह भी सच है कि बहुत से लोग जो काम कर सकते हैं काम न मिलने की स्थिति से निराश होकर काम की तलाश ही छोड़ दिए हैं। यही कारण है कि बेरोजगारी का आँकड़ा जो अब 7-8 प्रतिशत के आसपास है वो ज्यादा बढ़ता नहीं दिखता। सच कहें तो यह दर काफी ऊँची होगी।
कौन है इसका जिम्मेवार
इस बदहाली के लिए जिम्मेवार वर्तमान सरकारी पूँजीपरस्त नीतियाँ रही हैं इसपर जानकार लोगों के बीच कोई बहस नहीं है। कोविड महामारी के दौरान जब करोड़ों लोग बेरोजगार हुए, जरूरत थी लोगों को आमदनी मुहैया कराके अर्थव्यवस्था के ठहराव को खोलने का प्रयास किया जाता लेकिन सरकार नवउदारवादी आर्थिकी के बाज़ार के जरिये विकास के टोटके को पकड़े रही। ईंधन-टैक्स के जरिये आम आदमी की जेब से अरबों रुपया लूटकर पूँजीपतियों को आगे बढ़ने के लिए धन मुहैय्या कराया। 2020-21 के दौरान, लाखों उपभोक्ताओं ने, केंद्र सरकार को ईंधन-टैक्स के रूप में 4,55,069 करोड़ रुपये का भुगतान किया। लेकिन मोदी जी ने कॉरपोरेट के मुनाफे पर लगनेवाले टैक्स की दर को 30 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत कर दिया और नए निवेश के लिए यह दर उदारतापूर्वक कम करते हुए मात्र 15 प्रतिशत कर दिया। क्या आश्चर्य कि इस बीच न विकास तेज हुआ न बेरोजगारी कम हुई लेकिन बड़ी कंपनियाँ/ बड़े व्यापारी छोटे और मध्यम क्षेत्र के व्यापारियों की बर्बादी का लाभ उठाते हुए, कीमतें बढ़ाने में कामयाब रहे हैं। और सिर्फ 142 अरबपतियों की संपत्ति 23,14,000 करोड़ रुपये से बढ़कर 53,16,000 करोड़ रुपये हो गयी। सिर्फ एक साल में यह 30,00,000 करोड़ रुपये की बढ़ोत्तरी है! शेयर बाजार झूम रहा था और राजा लोग खुश। इसे भारतीय अर्थव्यवस्था की दीर्घकालिक संभावनाओं में विदेशियों के विश्वास मत के रूप में बताया। आर्थिक सर्वेक्षण 2020-21 ने इसे “वैश्विक निवेशकों के बीच एक पसंदीदा निवेश गंतव्य के रूप में भारत की स्थिति का समर्थन” करार दिया।
संक्षेप में कहा जाए तो मौजूदा महँगाई और बेरोजगारी मुख्यतः आन्तरिक कारणों की वजह से ही है। सरकारी निकम्मेपन का नतीजा है और उसी द्वारा संचालित हो रही है। दुनिया में पिछले कुछ समय से बढ़ती कीमतों के बावजूद आज आम लोगों की पीड़ा की मुख्य जिम्मेदारी विश्व की घटनाओं पर नहीं डाली जा सकती; यह मुख्य रूप से स्वयं भारत के शासकों की जिम्मेवारी है, जिन्होंने देश को वर्तमान रसातल में पहुँचाया है।
बदलती दुनिया से मिलते संकेत
लेकिन अब दो वैश्विक परिघटनाओं ने, रूस-यूक्रेन युद्ध और अपने यहाँ बढ़ती कीमतों पर लगाम लगाने के लिए अमरीकी सरकार तथा अन्य सरकारों के क़दमों ने वर्तमान भारत सरकार के वैश्वीकरण आधारित नवउदारवादी आर्थिक चिंतन के दिवालियेपन की पोल खोल दी। देश को उन्होंने ऐसे मुकाम पर ला खड़ा किया है जहाँ दुनिया से जरूरी आयात सस्ता नहीं रह गया है। और इसको खरीदकर देश की अनिवार्य जरूरतों को पूरा करने के लिए आवश्यक धनराशि आनेवाले कुछ सालों तक उपलब्ध रहेगी इसकी कोई गारंटी नहीं है।
तीन अनिवार्य आयात- पेट्रोल, रासायनिक खाद और खाद्य तेल विश्वबाजार में महँगे हो गए हैं। वित्तवर्ष 2023 में कच्चे तेल की औसत कीमत 101 डॉलर प्रति बैरल के अनुमान के अनुसार, आईसीआरए (एक शोध संस्था) ने घोषणा की है कि तेल आयात बिल 225-230 अरब डॉलर तक पहुँच सकता है, जो वित्तवर्ष 2022 के बिल से 42 फीसद अधिक होगा। इसी प्रकार रासायनिक खाद और खाद्य तेल की बढ़ती कीमतों के मद्देनजर उसके लिए भी अधिक विदेशी मुद्रा की आवश्यकता होगी। आईसीआरए के अनुमान के अनुसार 2023 में आयात बिल 710 अरब डॉलर का हो सकता है। बेशक कुछ हद तक निर्यात भी बढ़ेंगे। लेकिन 2022 के 410 अरब डॉलर के निर्यात के मुकाबले कितना बढ़ पाएंगे देखना होगा।
वैसे भी हमारे विदेश व्यापार में घाटा ही होता है जिसकी भरपाई देश विदेशों से आए पूँजीगत निवेश या शेयर बाजार में आयी विदेशी मुद्रा से एक बड़ी हद तक होता है। परन्तु अब अमरीका में बढ़ती ब्याज दर के चलते विदेशी पूँजी ने यहाँ से पलायन की राह चुनी है। इसके चलते आनेवाले समय में अपने महत्त्वपूर्ण आयात करने के लिए नए ऋण प्राप्त करना मुश्किल होता जाएगा। नतीजतन रुपये की विनिमय दरों में तेजी से गिरावट आ सकती है। यह आयातित सामान को और महँगा बना देगा, और देश में मुद्रास्फीति को और बढ़ा देगा। यदि विदेशी मुद्रा के पलायन को रोकने के लिए रिजर्व बैंक ब्याज की दर बढ़ाता है तो यह देसी व्यापारियों की लागत को बढ़ा बाजार में और कीमतों के बढ़ने का कारण बनेगा।
इस दोहरे आर्थिक संकट– बढ़ती कीमतें तथा गिरती विदेशी मुद्रा के मुकाबले स्थानीय मुद्रा की दर- से आज कई देश जूझ रहे हैं। हमारे पड़ोस में श्रीलंका, पाकिस्तान और नेपाल इस समस्या की चपेट में हैं। श्रीलंका में तो यह समस्या अत्यंत विकट रूप ग्रहण कर चुकी है। और कोई कारण नहीं कि यदि भारत के हुक्मरान भी नहीं चेते तो वो बचे रहेंगे। बेशक भारत पर विदेशी कर्ज और देशों के मुकाबले कम है इसलिए विदेशी मुद्रा का संकट आने में समय लग सकता है। पर यदि अपने आयात के लिए ही विदेशी मुद्रा नहीं रहेगी तो विदेशी मुद्रा संकट से बचा कैसे जाएगा।
इसलिए देश को यदि आर्थिक बर्बादी से बचाना है तो आयात आधारित नवउदारवादी आर्थिकी को सलाम कह एक ऐसे निजाम की दिशा में बढ़ना होगा जो आत्मनिर्भर हो। और अंतरिम अवधि में वर्तमान मूल्य वृद्धि को रोकने के लिए, बेरोजगारों को काम देने के लिए और विकास की राह खोलने के लिए पेट्रोलियम करों में भारी कमी करके आमजन के हाथ में आमदनी दें और आवश्यक वस्तुओं के दामों में नियंत्रण और सार्वजनिक प्रावधान के अन्य प्रत्यक्ष उपायों के जरिये बाजार में माँग बढ़ाएं।
ऐसे ही समय के लिए शायद अल्लामा इकबाल ने लिखा था –
“वतन की फिक्र कर नादाँ मुसीबत आने वाली है
तेरी बर्बादियों के मश्वरे हैं आसमानों में
न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिंदुस्तान वालों
तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में।”
लेकिन मोदी सरकार इस चुनौती से जूझ पाएगी इसमें खतरा ही लगता है।