चंद्र मोहन की पॉंच कविताऍं

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पेंटिंग : कौशलेश पाण्डेय


1. खबरदार!

आप खेतों में नहीं खटते हैं
आपको धूप नहीं लगती होगी
पर आपको भूख लगती होगी
तो मुझे याद करते होंगे

घृणा से याद करते होंगे या
प्यार से
मगर याद करते होंगे जरूर!
खबरदार! आप मेरे श्रमिक हथियारों को
हत्या के लिए
प्रयोग मत कीजिएगा!

आप बाबू साहेब हैं
आपको शर्म आनी चाहिए
कि पसीने के परफ्यूम  बिना
आपके गोदामों में
धान का एक कण भी नहीं जा सकता!

2. ये गेहूँ के उगने का समय है

हर रोज की तरह सूरज पूरब से उगेगा
खुला आसमान रहेगा और दूर-दूर से पंडुक आएँगे
मैनी चिरैया आएँगी
देसी परदेसी पंछी आएँगे
गेहूँ की निकली हुई पहली पहली डिभी को
मिट्टी में चोंच से गोद गोद कर खाएँगे
इन्हें बच्चे हुलकाएंगे तो उड़ जाएँगे

ये गेहूँ के उगने का समय है
और देश में किसान हक के मोर्चे पर खड़े हैं
युगों की पीड़ा से सनी हुई मिट्टी
किसानों के लबों से बोल रही है

जिनके पास ज्यादा खेत है
उन्हीं का भरा पेट है
दोष मिट्टी का नहीं
जमीन का खून-पसीना लूटने वाले लोगों का है

ये गेहूँ के उगने का समय है
यह समय मौसम की फसल को
सही-सही लिखित मूल्य मिलने का समय है

यह समय हत्यारे गोदामों की ओर से
कुँवारी जमीन की ओर गेहूँ के लौटने का समय है!

पेंटिंग : कल्याणी
3. मैं किसान हूँ, कवि नहीं हूँ कि कल्पना से काम चल जाएगा!

इससे पहले कि मैं ज़मीन पर से उठ जाऊँ
लेकिन क्या करूँ, हाय!

मेरी कृशकाय आत्मा की पीली पत्तियाँ
गल रही हैं
बर्फ के
निर्जन बियाबानों की तरह!

जहाँ पर हमने रो-रो कर बहाए थे खून-पसीने
वहाँ कुदरत ने दे दिया हाय! हाय!
रीढ़ की हड्डियाँ टूट गईं फसलों की
कटने से पहले!

ब्याहने को थी तीन चार चिड़ियाॅं
इसी वसंत में
हाय!चारों तरफ है
धुआँ-धुआँ !

कुछ दिख नहीं रहा
सिर्फ दीख रही है
पृथ्वी पर पसरी हुई निचाट नंगी
मरी पड़ी असंख्य गेहूँ की देह!

ओ! नहीं चाहिए रे सरकार तुम्हारा साँप जैसा यह सनेह
मीडिया वालो! सामने से हट जाओ
वरना तुम्हारा माइक चबा जाऊँगा

ईश्वरो दूर रहो, गोदाम वालो दूर रहो
सावधान रहो तमाम पेटों! जो संबंध रखते हो खेतों से
अरे ओ बेवफा कुदरत जा रे जा!

मैं किसान हूँ क्या करूँ
कवि नहीं हूँ कि कल्पना से काम चल जाएगा
मेरे दाएँ-बाएँ अंतहीन सवालों का वृक्ष खड़ा है

मेरा खेत देखो न!
बर्फ के पत्थरों और बारिशों से बिछा पड़ा है

सामने गहरी नदी है
सदियों से पुरखों के पुराने बक्से में रखी हुई
सल्फास की गोली है
आत्महत्या करने के लिए उपाय है बहुत
लेकिन क्या करूँ, हाय! मैं किसान हूँ
मर जाऊँगा
तो मर जाएगा देश।

4. अभी भी

अभी भी लकड़ी का हल चलता है यहाँ
अभी भी हजारों जोड़ी बैलों से खेतों को जोता जाता है
अभी भी गन्ने के खेतों में बहुत रस बचा हुआ है
अभी भी जंगलों में जंगली हाथी गरजते हैं बादल से भी तेज।

अभी भी एक प्राचीन कवि कविता की पत्थलगड़ी करता है
जंगलों से जमीनों से इतने खदेड़े जाने के बाद भी
अभी भी सिंगार करती हैं आदिवासी स्त्रियाँ वनफूलों से
अभी भी प्यार करती हैं रेलगाड़ियाँ परदेसिया मजदूरों से।

अभी भी हम साइकिल चलाते हुए जाते हैं लंका बैगन बेचने
अभी भी बिहार में तंबाकू की खेती में टाटा का फरुहा चलता है
अभी भी भारत के झारखंड में बहुत खंड बचा हुआ है
अभी भी सात बहनों का राज्य
जल जंगल जमीन नद-नदी द्वीप-समूह से घिरा हुआ है

अभी भी हमारे सपनों में एक कपिली नदी बहती है
जिसके ऊपर पुराना पुल थोंग नोक बे के नाम से है
जिस पर से अभी भी सैकड़ों असमिया, कार्बी लड़कियाँ
मस्तकों पर असमी गमछा पहने हुए
हर रोज जाती हैं धान रोपने, घास काटने
अभी-अभी।

अभी भी गाँव के सामने वाली मड़ई में
पिसुआ मड़ुवा पर नमक लगी लिट्टी गमकती है
अभी भी ब्रह्मपुत्र में लकड़ी की नावों पर मछलियाँ
पार होती हैं
अभी भी डिब्रूगढ़ और तिनसुकिया में चाय बागान लहराते हैं
अभी भी हम नदियों के किनारों पर बाँस की बंसी बजाते हैं
अभी भी हम आदमी को तांबूल-पान से स्वागत करते हैं

अभी भी हमारी पचास लाख साल पूर्व पृथ्वी का निजीकरण नहीं हुआ है
अभी भी हम निजीकरण के सरदारों से सत्ता छीन सकते हैं
अभी भी यह देश हम श्रमिकों का है
हम अभी भी इस देश के सदियों पुराने पंछी
देश के बचे-खुचे खेतों में से फसलों के तिनके बीन सकते हैं,
अभी भी।

5. सुंदर तो बस काम होते हैं

बैल हांकते हुए
या कंधे पर कुदाल या लकड़ी का हल ढोते हुए जब हम खेतों से घरों की तरफ लौट रहे होते हैं
मुरझाए हुए से दिखते हैं
सुंदर नहीं दिखते

मेरे कहने का मतलब
सुंदर कुछ नहीं
एक खटते खटते कृशकाय हुई कृषक की देह
और एक हाड़ मांस काया वाले बैल
सुन्दर नहीं हो सकते

सुंदर तो बस काम होते हैं
क्रिया होती है

और भूख में कच्ची अधपकी रोटी
बहुत मधुर।


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