कृष्ण – राममनोहर लोहिया : चौथी किस्त

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पेंटिंग : एमएफ हुसेन
राममनोहर लोहिया (23 मार्च 1910 – 12 अक्टूबर 1967)

कृष्णा अपने नाम के अनुरूप साँवली थी, महान् सुंदरी रही होगी। उसकी बुद्धि का तेज, उसकी चकित हरिणी आँखों में चमकता रहा होगा। गोरी की अपेक्षा सुंदर साँवली, नखशिख और अंग में अधिक सुडौल होती है। राधा गोरी रही होगी। बालक और युवक कृष्ण राधा में एकरस रहा। प्रौढ़ कृष्ण के मन पर कृष्णा छायी रही होगी, राधा और कृष्ण तो एक थे ही। कृष्ण की संतानें कब तक उसकी भूल दोहराती रहेंगी– बेखबर जवानी में गोरी से उलझना और अधेड़ अवस्था में श्यामा को निहारना। कृष्ण-कृष्णा संबंध में और कुछ हो न हो, भारतीय मर्दों को श्यामा की तुलना में गोरी के प्रति अपने पक्षपात पर मनन करना चाहिए।

रामायण की नायिका गोरी है। महाभारत की नायिका कृष्णा है। गोरी की अपेक्षा साँवली अधिक सजीव है। जो भी हो, इसी कृष्ण-कृष्णा संबंध का अनाड़ी हाथों फिर पुनर्जन्म हुआ। न रहा हो उसमें कर्मफल और कर्मफल हेतु त्याग। कृष्णा पांचाल यानी कन्नौज के इलाके की थी, संयुक्ता भी। धुरी-केंद्र इन्द्रप्रस्थ का अनाड़ी राजा पृथ्वीराज अपने पुरखे कृष्ण के रास्ते न चल सका। जिस पांचाली द्रौपदी के जरिए कुरु-धुरी की आधार-शिला रखी गयी, उसी पांचाली संयुक्ता के जरिये दिल्ली कन्नौज की होड़ जो विदेशियों के सफल आक्रमणों का कारण बना। कभी-कभी लगता है कि व्यक्ति का तो नहीं लेकिन इतिहास का पुनर्जन्म होता है, कभी फीका कभी रंगीला। कहाँ द्रौपदी और कहाँ संयुक्ता, कहाँ कृष्ण और कहाँ पृथ्वीराज, यह सही है। फीका और मारात्मक पुनर्जन्म, लेकिन पुनर्जन्म तो है ही।

कृष्ण की कुरु-धुरी के और भी रहस्य रहे होंगे। साफ है कि राम आदर्शवादी एकरूप एकत्व का निर्माता और प्रतीक था। उसी तरह जरासंध भौतिकवादी एकत्व का निर्माता था। आजकल कुछ लोग कृष्ण और जरासंध युद्ध को आदर्शवाद-भौतिकवाद का युद्ध मानन लगे हैं। वह सही जँचता है, किंतु अधूरा विवेचन। जरासंध भौतिकवादी एकरूप एकत्व का इच्छुक था। बाद के मगधीय मौर्य और गुप्त राज्यों में कुछ हद तक इसी भौतिकवादी एकरूप एकत्व का प्रादुर्भाव हुआ और उसी के अनुरूप बौद्ध धर्म का। कृष्ण आदर्शवादी बहुरूप एकत्व का निर्माता था। जहाँ तक मुझे मालूम है, अभी तक भारत का निर्माण भौतिकवादी बहुरूप एकत्व के आधार पर कभी नहीं हुआ। चिर चमत्कार तो तब होगा जब आदर्शवाद और भौतिकवाद के मिलेजुले बहुरूप एकत्व के आधार पर भारत का निर्माण होगा। अभी तक तो कृष्ण का प्रयास ही सर्वाधिक माननीय मालूम होता है, चाहे अनुकरणीय राम का एकरूप एकत्व ही हो। कृष्ण की बहुरूपता में वह त्रिकाल-जीवन है जो औरों में नहीं।

कृष्ण यादव-शिरोमणि था, केवल क्षत्रिय राजा ही नहीं, शायद क्षत्री उतना नहीं था, जितना अहीर। तभी तो अहोरिन राधा की जगह अडिग है, क्षत्राणी द्रौपदी उसे हटा न पायी। विराट विश्व और त्रिकाल के उपयुक्त कृष्ण बहुरूप था। राम और जरासंध एकरूप थे, चाहे आदर्शवादी एकरूपता में केंद्रीकरण और क्रूरता कम हो, लेकिन कुछ न कुछ केंद्रीकरण तो दोनों में होता है। मौर्य और गुप्त राज्यों में कितना केंद्रीकरण था, शायद क्रूरता भी।

बेचारे कृष्ण ने इतनी निःस्वार्थ मेहनत की, लेकिन जन-मन में राम ही आगे रहा है। सिर्फ बंगाल में ही मुर्दे– बोल हरि, हरि बोल के उच्चारण से– अपनी आखिरी यात्रा पर निकाले जाते हैं, नहीं तो कुछ दक्षिण को छोड़कर सारे भारत में हिंदू मुर्दे- राम नाम सत्य है के साथ ही ले जाये जाते हैं। बंगाल के इतना तो नहीं, फिर भी उड़ीसा और असम में कृष्ण का स्थान अच्छा है। कहना मुश्किल है कि राम और कृष्ण में कौन उन्नीस, कौन बीस है। सबसे आश्चर्य की बात है कि स्वयं ब्रज के चारों ओर की भूमि के लोग भी वहाँ एक-दूसरे को   “जैरामजी से नमस्ते करते हैं। सड़क चलते अनजान लोगों को भी यह जैरामजी बड़ा मीठा लगता है, शायद एक कारण यह भी हो।

राम त्रेता के मीठे, शांत और सुसंस्कृत युग का देव है। कृष्ण पके, जटिल, तीखे और प्रखर बुद्धि युग का देव है। राम गम्य है। कृष्ण अगम्य है। कृष्ण ने इतनी अधिक मेहनत की कि उसके वंशज उसे अपना अतिंम आदर्श बनाने से घबड़ाते हैं, यदि बनाते भी हैं तो उसके मित्रभेद और कूटनीति की नकल करते हैं, उसका अथक निस्व उनके लिए असाध्य रहता है। इसीलिए कृष्ण हिंदुस्तान में कर्म का देव न बन सका। कृष्ण ने कर्म राम से ज्यादा किये हैं। कितने संधि और विग्रह और प्रदेशों के आपसी संबंधों के धागे उसे पलटने पड़ते थे। यह बड़ी मेहनत और बड़ा पराक्रम था। इसके यह मतलब नहीं कि प्रदेशों के आपसी संबंधों में कृष्णनीति अब भी चलायी जाए। कृष्ण जो पूर्व-पश्चिम की एकता दे गया, उसी के साथ-साथ उस नीति का औचित्य भी खतम हो गया। बच गया कृष्ण का मन और उसकी वाणी। और बच गया राम का कर्म। अभी तक हिंदुस्तानी इन दोनों का समन्वय नहीं कर पाये हैं। करें, तो राम के कर्म में भी परिवर्तन आए। राम रोऊ है, इतना कि मर्यादा भंग होती है। कृष्ण कभी रोता नहीं। आँखे जरूर डबडबाती हैं उसकी, कुछ मौकों पर, जैसे जब किसी सखी या नारी को दुष्ट लोग नंगा करने की कोशिश करते हैं।

कैसे मन और वाणी थे उस कृष्ण के। अब भी तब की गोपियाँ और जो चाहें वे, उसकी वाणी और मुरली की तान सुनकर रस विभोर हो सकते हैं और अपने चमड़े के बाहर उछल सकते हैं। साथ ही कर्म-संग के त्याग, सुख-दुख, शीत-उष्ण, जय-अजय के समत्व के योग और सब भूतों में एक अव्यय भाव का सुरीला दर्शन, उसकी वाणी से सुन सकते हैं। संसार में एक कृष्ण ही हुआ जिसने दर्शन को गीत बनाया।

वाणी की देवी द्रौपदी से कृष्ण का संबंध कैसा था। क्या सखा-सखी का संबंध स्वयं एक अंतिम सीढ़ी और असीम मैदान है, जिसके बाद और किसी सीढ़ी और मैदान की जरूरत नहीं? कृष्ण छलिया जरूर था, लेकिन कृष्णा से उसने कभी छल न किया। शायद वचन-बद्ध था, इसलिए। जब कभी कृष्णा ने उसे याद किया, वह आया। स्त्री-पुरुष की किसलय-मित्रता को, आजकल के वैज्ञानिक, अवरुद्ध रसिकता के नाम से पुकारते हैं। यह अवरोध सामाजिक या मन के आंतरिक कारणों से हो सकता है। पाँचों पाण्डव कृष्ण के भाई थे और द्रौपदी कुरु-पांचाल संधि की आधार-शिला थी। अवरोध के सभी कारण मौजूद थे। फिर भी, हो सकता है कि कृष्ण को अपनी चित्तप्रवृत्तियों का कभी विरोध न करना पड़ा हो। यह उसके लिए सहज और अंतिम संबंध था, ठीक उतना ही सहज और अंतिम और रसमय, जैसा राधा से प्रेम का संबंध था। अगर यह सही है, तो कृष्ण-कृष्णा के सखा-सखी संबंध का ब्योरा दुनिया में विश्वास होना चाहिए और तफसील से, जिससे स्त्री-पुरुष संबंध का एक नया कमरा खुल सके। अगर राधा की छटा कृष्ण पर हमेशा छायी रहती है, तो कृष्ण की घटा भी उस पर छायी रहती है। अगर राधा की छटा निराली है, तो कृष्ण की घटा भी। छटा में तुष्टिप्रदान रस है, घटा में उत्कंठा-प्रधान कर्त्तव्य।

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