एक उपन्यास में समाया उत्तराखंड

0


— हिमांशु जोशी —

स उपन्यास के नायक और नायिका अपने-अपने सफर पर निकलते हैं, ये सफर बाद में एक हो जाता है। इस सफर को लेखक नवीन जोशी ने उत्तराखंड के पिछले कुछ सालों में महत्त्वपूर्ण रहे जनांदोलनों को जोड़कर लिखा है। लेखक देवभूमि डेवलपर्स उपन्यास को लिखते उत्तराखंड के राजनीतिक, सामाजिक ढांचे पर भी पाठकों की समझ बनाने में कामयाब रहे हैं।

लेखक अशोक पांडे का खींचा चित्र इस किताब का आवरण चित्र है। हिमालय, सड़क, रोलर और साधारण कपड़ों में खड़ी महिला को देखकर यह अनुमान लग जाता है कि किताब हिमालय से होती छेड़छाड़ और यहां रहनेवाले लोगों के मुश्किल जीवन पर लिखी गई है।

इसका पिछला आवरण किताब के लेखक नवीन जोशी पर जानकारी देता है। ‘क्रम’ से पता चलता है कि लेखक ने इस उपन्यास को नौ हिस्सों में बांटा है।

‘कूच करो भई कूच करो’ इस किताब का पहला हिस्सा है जो हमें 1984 के उत्तराखंड में पहुंचा देता है। लेखक ने यह किताब बहुत ही आसान भाषा में लिखी है जिससे पाठक किताब की शुरुआत से ही उसे पढ़ने में रुचि लेने लगते हैं।

शराब के विरुद्ध आंदोलनों के दौर के साथ चिपको आंदोलन पर लिखते हुए लेखक कहानी के मुख्य पात्र पुष्कर से हमारा परिचय कराते हैं। कहानी पढ़ते आपकी समझ में आने लगेगा कि इसके बहुत से पात्र और घटनाएं असली हैं।

किताब के दूसरे हिस्से में कविता के जरिए हम सच्चे और अच्छे पत्रकार के गुण जान सकते हैं।

‘कोई कह रहा है छोटी जात की है। किसी ने चला दी, मुशई (मुसलमान) से ब्या किया है। मैंने बता रखा है, देसी है मगर बामण है। तू यही कहना’ पंक्ति पहाड़ में व्याप्त जातिवाद को दर्शाती हैं।

नवीन जोशी

‘बहुत सुंदर है हमारा गांव। कविता की नजरें हिमालय के शिखरों पर टिकी थी। काश,जीवन भी सुंदर होता। पुष्कर ने आह भरी।’ पंक्ति पहाड़ में रहने के कष्टों की तरफ इशारा करती है। इसे आगे पढ़ते हमें पहाड़ों में पिनालु का साग उगाने और मधुमक्खी पालन जैसे स्वरोज़गारों के बारे में जानकारी भी मिलती है।

किताब का तीसरा हिस्सा ‘बाँध दी गई नदी में डूबता समाज’ है, यह उमेश डोभाल के बारे में जानकारी देता है। यहां पर पहाड़ में जल-जंगल-जमीन के लिए लड़ रहे लोगों के आपसी सम्बन्धों के बारे में भी लिखा है।

टिहरी बांध बनने की कहानी, उसे रोकने के लिए चल रहे संघर्ष और नाकामी की कहानी भी लेखक ने यहां लिख डाली है।

‘विस्थापन सिर्फ मकान और आदमी का नहीं होता, पूरी सभ्यता, समाज, संस्कृति और जीवन स्रोतों से उखड़ जाना होता है’ जैसी पंक्ति के जरिए लेखक किताब से विस्थापितों का दर्द सामने लाए हैं।

‘राजधानी से राज्य छुड़ाकर लाना है’ किताब का अगला हिस्सा है और यहां पहाड़ के जीवन पर शराब के असर को सामने लाया गया है। खटीमा, मसूरी गोलीकांड के समय मीडिया की क्या भूमिका रही थी, इसकी जानकारी भी हमें किताब पढ़ते मिलती जाती है।

‘शांत हिमालय धधक रहा है’ किताब का पांचवां हिस्सा है और इस हिस्से में तब उत्तराखंड को लेकर चल रही फेक न्यूज बनाम ‘समाचार’ के बारे में जानकारी मिलती है। साल 1994 में जनता तक सही खबरें पहुंचाए जाने का तरीका पढ़ने योग्य है।

मैदान से पहाड़ की बदलती दशा को सामने लाने के लिए किताब की यह पंक्ति बहुत है- ‘हल्द्वानी से आगे पहाड़ चढ़ने पर प्राकृतिक दृश्य ही नही बदलता, आबादी की संरचना और हालात भी बहुत बदल जाते हैं। इस हिस्से में अतुल शर्मा और नरेंद्र सिंह नेगी जैसे कवियों की कविताओं के साथ उत्तराखंड की स्वास्थ्य व्यवस्था और राजनीति के बारे में लिखा गया है।

किताब में बहुत सी जगह पर लेखक ने अपने शब्दों के जरिए उत्तराखंड के पहाड़ों की खूबसूरती का मनमोहक दृश्य पाठकों की आंखों के सामने साक्षात रख दिया है।

किताब का अगला हिस्सा पुष्कर द्वारा नए राज्य को लेकर बुने गए सपनों के टूटने से शुरू होता है। उत्तराखंड गठन के दिन को लेखक ने बड़े ही बेहतरीन ढंग से लिखा है। इसमें नायक की उधेड़बुन आपकी उधेड़बुन बन जाती है।

पृष्ठ 205 पर लिखी पंक्ति ‘कुंदन को अफसोस हुआ कि वह लखनऊ में उत्तराखण्डियों को सस्ते प्लॉट दिखाने में इतना व्यस्त रहा कि अपनी मातृभूमि की ओर उसका ध्यान ही नहीं गया’ उत्तराखंड में भूमाफियाओं के कब्जे की शुरुआत दर्शाती है।

यहां आप उत्तराखंड की राजनीति में दो पार्टियों के वर्चस्व और क्षेत्रीय पार्टियों के पतन का गणित भी समझ जाते हैं। किताब में उत्तराखंड से पलायन करने के नुकसान और पलायन रोकने के समाधान पर भी लिखा गया है।

‘श्याम दत्त जी के लिए सबसे पीड़ादायक अपने बैल से बिछड़ना रहा। उनसे अपने कान खुजलाए बिना वह गोठ में बंधता न था’ पंक्ति से पलायन का दर्द पलायन झेलनेवाला ही समझ सकता है। पृष्ठ 227-228 में गैरसैंण राजधानी आंदोलन की घटना ऐसे लिखी गई है मानो वह आंखों के सामने ही घटित हो रही हो।

‘विकास अर्थात ट्रिकल डाउन इकोनॉमी’ हिस्से में कहानी डैम से जूझते उत्तराखंड पर पहुंचती है और फिर त्रेपन सिंह चौहान द्वारा किए गए आंदोलन पर लिखा गया है। किताब में कई जगह उत्तराखंड में व्याप्त जातिवाद के कारणों को गहराई से समझाया गया है, पुष्कर का जातिवाद के खिलाफ आवाज उठाना कहानी का सबसे जरूरी हिस्सा जान पड़ता है।

किताब का अंतिम हिस्सा ‘देवी का थान पतुरिया नीचे’ नानीसार घटना पर केंद्रित है और इसे पढ़ते पढ़ते आप उत्तराखंड के आज तक भी पहुंच जाते हैं। लेखक ने इस किताब के पात्रों के जरिए पाठकों को अपने लोगों, अपनी धरती से जो प्रेम करने की सीख दी है, उसके लिए यह किताब पढ़ना जरूरी है।

किताब – देवभूमि डेवलपर्स
लेखक – नवीन जोशी
मूल्य- ₹ 249
https://amzn.eu/d/ccATrd9
प्रकाशक- हिन्द युग्म

Leave a Comment