— भंवर मेघवंशी —
नफरत से भरे इस दौर में दक्षिणपंथी कट्टर समूह सावित्री बाई फुले के बालिका शिक्षा के आन्दोलन की एक प्रमुख स्तम्भ फातिमा शेख के अस्तित्व को नकारते हुए दावा कर रहे हैं कि वर्ष 2006 से पहले फातिमा शेख का कोई अस्तित्व ही नहीं था ,उन्होंने ही इस काल्पनिक चरित्र को गढ़ा और दलित बहुजन वैचारिकी पर मढ़ दिया.नासमझ दलित आन्दोलन ने उसे हाथो हाथ लेकर रातो रात असलियत बना दिया.
फातिमा शेख पर बढ़ते विमर्श पर कुछ दलित बहुजन लेखक चिंतकों और अकादमिक लोगों ने भी प्रश्न उठाये हैं,उनमें दो तरह के स्वर है,एक स्वर यह है कि फातिमा शेख का अत्यधिक महिमामंडन सावित्री बाई फुले के अवदान को कम करने की रणनीति से किया जा रहा है,दूसरा स्वर साम्प्रदायिक तत्वों की ही भाषा में बोलता नजर आ रहा है.
कतिपय लोग सावित्री फातिमा की जुगलबंदी को दलित मुस्लिम एकता के लिए किया राजनीतिक प्रयास मानते हुए उसकी आलोचना करते नजर आते हैं,लेकिन सबसे बड़ा और लगभग चरित्र हनन करने वाला हमला संघप्रिय बने नए नवेले लोगों का है,जिनका वैचारिक विचलन जगजाहिर है.
सवाल यह है कि क्या वाकई दलित बहुजन विमर्श और भारत के स्त्री मुक्ति आन्दोलन में कोई फातिमा शेख थी भी या सावित्री बाई फुले की केवल एक चिट्ठी में फातिमा नाम मिल जाने से इस पात्र को परिकल्पित किया गया है.
क्योंकि सोशल मीडिया धुरंधर कहे जाने वाले लोग इस कीचड़ उछालने के प्रकल्प को चला रहे हैं,इसलिए आम लोगों का भ्रमित हो जाना लाज़मी है,बहुत सारे झूठ और उस झूठ पर घृणा की परत चढ़ा दिए जाने से यह पूरी बहस रास्ता भटक चुकी है और बेहद निचले स्तर पर पहुँच चुकी है.
लोग यह भी कहने लगे हैं जो लोग फातिमा शेख के मनगड़ंत पात्र की प्रस्तुतीकरण हेतु माफ़ी मांग रहे हैं क्या वे माफीवीरों की ही परम्परा को आगे नहीं बढ़ा रहे हैं ?
या यह आरएसएस के इतिहास को विकृत करने की दूरगामी चाल तो नहीं है ?
आजकल यह भी प्रमुखता से हम देख रहे हैं कि फातिमा शेख पर निशाना साध रहे यही लोग डॉ अम्बेडकर को भी मुस्लिम द्वेषी साबित करने पर तुले हुए हैं,वे बाबा साहब डॉ बी आर अम्बेडकर के कुछ चुनिन्दा विचारों को सन्दर्भों से काट कर पेश कर रहे हैं ताकि उन्हें मुसलमानों का विरोधी साबित किया जा सके.
जो लोग और समूह डॉ अम्बेडकर के थोट्स ऑन पाकिस्तान में व्यक्त विचारों से अत्यंत सहमत और अभिभूत दिखलाई पड़ रहे हैं ,क्या वे बाबा साहब की किताब रिडल्स ऑफ हिन्दुइज्म तथा जाति का विनाश तथा धम्म दीक्षा के दौरान ली गई बाईस प्रतिज्ञाओं से भी सहमति व्यक्त कर पाते हैं ?
डॉ अम्बेडकर के हिन्दू धर्म की कटु आलोचना,हिन्दू धर्म शास्त्रों की निर्मम शल्य क्रिया और हिन्दूराज को किसी भी कीमत पर रोकने के आह्वान से भी उतने ही अभिभूत हैं जितने मुसलमानों को लेकर उनके विचारों से हैं ?
शायद ही होंगे लेकिन वे डॉ अम्बेडकर पर भगवा रंग का आवरण चढ़ाना चाहते हैं और उनके तीनों आदर्शों बुद्ध,कबीर,फुले को अपने अनुकूल बनाने की कोशिश कर रहे है.
क्या जोतीराव फुले और सावित्री बाई फुले के विचार,व्यक्तित्व और कृतित्व मुस्लिम विरोधी है ?
जो भी फुले के विचारों से परिचित हैं वह जानते हैं कि जोतीराव फुले ब्राहमणवाद के तीखे आलोचक ही नहीं बल्कि कट्टर दुश्मन भी हैं,उनकी वैचारिकी में दलित और मुस्लिम के प्रति सदैव सहानुभूति ही मिलेगी,उनके प्रति असंवेदनशीलता का तो सवाल ही नहीं उठता है,लेकिन बहुजन नायक नायिकाओं को मुस्लिम विरोधी साबित करने की परियोजना का ताज़ा शिकार फुले दंपत्ति हैं,फातिमा शेख पर हमला उसका प्रस्फुटन मात्र है,इसी तरह के विमर्श से ही तो गुलामगिरी के लेखक के मूल विचारों से विमर्श को भटका कर मुस्लिम द्वेष की अंधी खाई तक ले जाया जा सकता है,अन्यथा फातिमा शेख के होने न होने जैसी घटिया बातें कहने की क्या आवश्यकता आन पड़ी है.
अगर हमें सावित्री बाई और फातिमा शेख के संबंधों और फातिमा के अस्तित्व पर छा रहे बादलों के पार देखना है तो हमें उस समय के इतिहास और मानव मुक्ति के लिए आकार ले रहे आन्दोलन के ऐतिहासिक चरित्रों के कार्यकलापों पर सिलसिलेवार दृष्टिपात करना होगा,अन्यथा हम चूक जायेंगे,हमें यह भी देखना होगा कि श्रमण और भ्रमण की संस्कृति की मौखिक परम्परा में बहुत सारी बातें अलिखित भी रह गई हो सकती है,इसीलिए तो लोक में व्याप्त कथाओं ने ऑरल हिस्ट्री का रूप लिया है,हालाँकि फातिमा शेख को लेकर बहुत सारे तथ्य मौजूद है जिन पर यकीन किया जा सकता है.
यह तथ्य तो सर्वविदित ही है कि जब जोतिराव शिक्षा ग्रहण करने लगे तो पुणे के किसी रुढ़िवादी ने उनके पिता गोविन्द राव फुले को भड़का दिया था क वे अपने बेटे को पढने नहीं भेजे और उसे अपने पुश्तैनी धंधे में लगा दें.तब गोविंदराव को समझाकर जोतीराव को वापस स्कुल भेजने वाले मुंशी गफ्फार बेग और मिस्टर लिजिट ही थे.उज्व्ल्ला म्हात्रे द्वारा लिखित सावित्रीनामा (जिसकी भूमिका प्रोफ़ेसर हरी नरके ने लिखी है ,जिसमें काव्य फुले-1854 ,जोतिबांची भाषणे-1856,मातुश्री सावित्रीबाईंची भाषणे 1892 ,बावन्नकशी सुबोध रत्नाकर 1892 संकलित है )में जोतीराव की शिक्षा बाधित होने की घटना का वर्णन इस प्रकार है –“जोतीराव जब बच्चे थे ,तब उनके पिता ने एक दकियानूसी ब्राहमण के कहने पर उनकी पढाई बंद करवा दी थी,लेकिन मुंशी गफ्फार बेग और सर लिजिट ने बालक जोतीराव की मेधा को पहचाना और उनके पिता गोविन्द राव को उसकी शिक्षा जारी रखने के लिए राजी किया.जोतीराव यह कभी नहीं भूले .उन्होंने सन 1848 में लड़कियों के लिए जो स्कूल खोला,वह दलित और मुस्लिम परिवार की बच्चियों के लिए था “ (1)
कौन थे यह मुंशी गफ्फार बेग ?
फारसी भाषा के विद्वान् गफ्फार बेग जोतीराव के पिता गोविंदराव के दोस्त थे,जोतीराव की बुआ सगुणा क्षीरसागर सागर के लालन पालन में ही जोतीराव पुणे की मिशनरी स्कूल में पढ़े,जब सामाजिक दवाब में गोविन्दराव अपने बेटे जोतीराव को मिशनरी स्कूल से हटाने लगे तब मुंशी गफ्फार बेग और सर लिजिट की मदद लेकर सगुणा बाई ने ऐसा होने से रोका था.यही मुंशी गफ्फार बेग,सावित्रीबाई- फातिमा शेख के शिक्षा मिशन और व्यक्तिगत जीवन के फैसलों में भी आगे मददगार बने.
गफ्फार बेग और सर लिजिट की जोतिराव को स्कूल वापस भेजने में मदद को स्प्रसिद्ध लेखिका डॉ विमलकीर्ति भी अपनी किताब सचित्र फुले जीवनी में स्वीकारती है और लिखती है कि –“ गोविंदराव के
खेत के पास ही गफ्फार बेग मुंशी नाम के एक मुस्लिम विद्वान् रहते थे.वे बहुत उदारमना,सहिष्णु और बुद्धिमान व्यक्ति थे,उनको यह जानकर बहुत दुःख हुआ कि गोविंदराव ने ब्राहमण दीवान के बहकावे में आ कर जोतिबा को स्कूल जाने से रोक लिया है.उसकी पढाई लिखाई बंद हो गई है.उस समय गफ्फार बेग मुंशी और मिस्टर लिजिट ने गोविंदराव को बहुत समझाया और जोतिबा को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित किया,उसके बाद जोतिबा अपनी उम्र के चौहदवे साल में अर्थात 1841 में पुन: स्कूल जाने लगे और अंग्रेजी की पहली कक्षा में जाकर बैठने लगे.जोतिबा की पढाई मिशनरी स्कूल स्कोटिश मिशन में हुई.” (2)
सावित्री बाई का जन्म ,शादी और शिक्षा
सावित्री बाई का जन्म 3 जनवरी 1831 को पुणे सतारा मार्ग पर स्थित नायगाँव में खंडोजी नेवसे पाटिल के घर हुआ.सन 1840 में उनका विवाह 13 वर्षीय जोतीराव फुले से हुआ.1 मई 1851 से 30 अप्रेल 1852 की एज्युकेशन रिपोर्ट के अनुसार –‘जोतीराव ने अपनी पत्नि को घर में ही पढना लिखना सिखाया ‘.बोम्बे गार्जियन ने 22 नवम्बर 1851 के अपने अंक में जोतीराव पर प्रकाशित एक आलेख में लिखा कि –“ सदाशिव बल्लाल गोवंडे ने 1848 में अहमदनगर में जज के कार्यालय में काम शुरू किया .एक दिन वे अपने मित्र जोतीराव फुले को वहां ले गए,फिर दोनों एक साथ लड़कियों के लिए सुश्री फरार द्वारा संचालित स्कूल गए.वहां की व्यवस्थाएं देखकर उन्हें बहुत अफ़सोस हुआ कि उनके देश में लड़कियों को शिक्षा नहीं दी जाती.पुणे लौटने के बाद फुले ने इस मामले में कुछ करने की अपनी योजना पर अपने दोस्तों से चर्चा की ,उन्होंने अपनी पत्नि को प्रशिक्षित किया और स्कूल शुरू कर दिया.” (3)
गोविंदराव की बाल विधवा बहन सगुणा क्षीरसागर जिन्होंने जोतीराव का लालन पालन किया था,वे सावित्री बाई को शादी के बाद अपने साथ फादर जॉन के अनाथ आश्रम और मिसेज मिशेल के घर ले जाती थी,एक दिन मिशेल ने सगुणा और सावित्री बाई से पूछा कि वे कहाँ तक पढ़ी लिखी है,उन्होंने बताया कि उन्हें जोतिबा ने घर पर मराठी पढना लिखना सिखाया है,तब मिशेल ने उनको आगे पढ़ाने के लिए एक प्रवेश परीक्षा ली और 1843 में अपने द फिमेल नार्मल स्कूल में भर्ती कर लिया.
फातिमा का जन्म और पुणे प्रवास
ब्रिटिश भारत की आगरा प्रेसिडेंसी में जुलाहा परिवार में फातिमा का जन्म 1831 में हुआ.यह रोचक बात है कि फातिमा अंसारी जुलाहा परिवार में जन्मी लेकिन बाद में वह शेख के रूप में जानी पहचानी गई. यह आज के पसमांदा विमर्श के लिए शोध का विषय हो सकता है.रीटा राममुर्ति गुप्ता अपनी बहुचर्चित किताब ‘सावित्री बाई फुले ‘ में बताती है –“ फातिमा का परिवार जुलाहा समुदाय से था ,जिनका पेशा बुनकरी था,अकाल से यह काम बुरी तरह प्रभावित हुआ.” (4)
गौरतलब है कि भारत सरकार अधिनियम 1833 के तहत 14 नवम्बर 1834 में स्थापित हुई अगर प्रेसिडेंसी में वर्ष 1837-38 में भयंकर अकाल पड़ा था,जिसके चलते बहुत सारे लोग आगरा क्षेत्र से पलायन करके दूसरी जगहों पर चले गए थे,फातिमा का परिवार जिसमें उसके माता पिता और भाई उस्मान शामिल थे ,ये लोग भी एक अन्य जुलाहा परिवार फजलु चाचा ,उनकी पत्नि खदीजा बी के साथ मोहर्रम के बाद बैलगाड़ी से आगरा से मालेगाँव के लिए रवाना हुए.मालेगांव में पहले ही उत्तर भारत से बड़ी संख्या में मुस्लिम लोग राजनीतिक उथल पुथल वजह से जा बसे थे,अब अकाल की वजह से हो रहे पलायन करने वालों की मंजिल भी मालेगांव ही थी.इस प्रकार के पलायन से एक तो रोजी रोटी का मसला हल हो जाता है और दूसरा सामाजिक पिछड़ेपन से भी लोग मुक्त होने के लिए अपनी पहचान बदल लेते हैं,शायद यह स्थलान्तरण भी फातिमा के अंसारी से शेख होने के सफ़र में सहायक हुआ हो क्योंकि अगले ठहराव तक वे फातिमा शेख थी और उनके भाई भी उस्मान शेख की पहचान से ही मकबूल हुए.
सफ़र की दुश्वारियों ने फातिमा और उस्मान से उनकी अम्मी छीन ली और अगले कुछ साल में उनके अब्बा भी गुजर गए. अब उस्मान 13 साल के थे और उनके जिम्मे अपनी बहन फातिमा के पालन पोषण की भी जिम्मेदारी थी.हालाँकि उन्हें खदीजा बी और फज़लु चाचा का संरक्षण हासिल था,लेकिन उस्मान ने काम धंधा शुरू कर दिया था और अपनी बहन फातिमा को भी कसीदाकारी और सिलाई सिखा दी ,ताकि वह घर पर काम कर सके.बाद के बरसों में फिर से हालात ऐसे बने कि उनको काम की तलाश में 1842 में फिर से पलायन करना पड़ा.इस बार के सफ़र में उस्मान और फातिमा के साथ फजलु चाचा ,उनकी पत्नि खदीजा बी ,दो साल का बेटा अब्बास और पांच साल की बेटी रेहाना भी थे ,ये लोग मालेगांव से पुणे शहर के गंजपेट इलाके में पहुंचे ,जहाँ पर उनको मुंशी गफ्फार बेग की मदद मिली.यहाँ पर उस्मान ने जल्दी ही अपना व्यवसाय स्थापित कर लिया और फातिमा भी कसीदाकारी और सिलाई के अपने काम में माहिर हो गई,उनकी अधिकांश ग्राहक अंग्रेज औरतें होती थी ,उस्मान को लगा कि अगर इन गौरी मेमसाहबों से फातिमा गणित सीख लें तो वह हिसाब किताब रख सकती है,उस्मान की इसी चाह ने फातिमा के लिए शिक्षा का दरवाजा खोला,हालाँकि वह भी मदरसा की बुनियादी शिक्षा प्राप्त थी,लेकिन बाद की शिक्षा ने उसे उर्दू ,अरबी ,मराठी और इंग्लिश की ज्ञाता बनाया.
सावित्री बाई और फातिमा शेख की पहली मुलाकात
रीटा राममुर्ति गुप्ता के मुताबिक –“ प्रकाशित साहित्य के कुछ संस्करण बताते हैं कि फातिमा शेख और सावित्री बाई की पहली मुलाकात सिंथिया फरार के अहमदनगर स्कूल में हुई जबकि अन्य बताते हैं कि वे पहली बार मिसेज मिशेल के नार्मल स्कूल में मिली” (5)
चूँकि मिसेज मिशेल का द फिमेल नोर्मल स्कूल पुणे में था,संभव है कि वे वहां साथ पढ़ती हो,यह भी एक तथ्य है कि 1843 में सावित्री बाई जब मिशेल के स्कूल में गई ,तब उन्होंने ही सावित्रीबाई को फातिमा से मिलाया.वे दोनों जब मिली और उनकी बातें हुई तो यह भी पता चला कि उस्मान और जोतिबा भी स्कोटिश मिशन में कुछ समय साथ पढ़ चुके थे और एक दूसरे से परिचित थे.बाद के दिनों में जब सगुणा बाई फादर जॉन के अनाथ आश्रम में अधिक समय देने लगी तो मिशेल के स्कूल में फातिमा और सावित्री बाई को एक दूसरे के साथ वक्त बिताने का समय मिलने लगा और वे नजदीक आई ,उनके बीच दोस्ती का रिश्ता प्रगाढ़ हुआ.
बोम्बे गार्जियन (22 नवम्बर 1851 ) के अनुसार –“ सावित्री बाई ने सिंथिया फरार के अहमदनगर स्थित संस्थान और सुश्री मिशेल के पुणे स्थित नोर्मल स्कूल से भी शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त किया.” यह भी संभव है कि फातिमा और सावित्री बाई दोनों ने ही मिशेल के नार्मल स्कूल से उन्होंने शिक्षा ली हो और अहमदनगर से सिंथिया फरार के संस्थान से शिक्षक प्रशिक्षण लिया हो,लेकिन दोनों ही दोस्त दोनों जगह पढ़ी है,क्योंकि सिंथिया फरार फातिमा शेख की सबसे प्रिय शिक्षक रही थी,जिनके अंतिम संस्कार में फातिमा शेख अहमदनगर लौटी थी.
फातिमा पहली मुस्लिम महिला शिक्षिका
1 जनवरी 1848 को जोतिबा फुले ने पुणे के भिड़ेवाडा में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला,जहाँ सावित्री बाई शिक्षिका बनी,इस तरह वे किसी भारतीय द्वारा लड़कियों के लिए खोली गई पाठशाला की पहली भारतीय महिला शिक्षिका बनी.अगले साल 1 मई 1849 के दिन पुणे में उस्मान शेख के घर प्रोढ़ शिक्षा के लिए स्कूल की स्थापना की गई,जहाँ फातिमा को पहली मुस्लिम शिक्षिका बनी.रीटा राममूर्ति गुप्ता लिखती है –“ जब सावित्री ने फातिमा को स्कूल का मुख्य अध्यापिका बनाया तो उस्मान को बहुत गर्व हुआ.” (6)
10 अक्टूबर 1856 को जोतिबा को लिखे पत्र में सावित्रीबाई ने स्पष्ट रूप से फातिमा के अपने सहयोगी होने का ज़िक्र किया है.उन्होंने लिखा –“मेरी तबीयत में काफी उतार चढाव आने के बाद अब जाकर थोड़ी ठीक हुई है,मैं पूरी तरह से ठीक होते ही पुणे आ जाउंगी.आप चिंता न करें.फातिमा पर काम का अतिरिक्त बोझ पड़ रहा होगा,लेकिन जानती हूँ कि वह शिकायत नहीं करेगी.”(7)
यह पत्र सन 1991 में प्रकाशित पुस्तक “वुमेन राइटिंग इन इंडिया : 600 बीसी टू द प्रजेंट” (8) में प्रकाशित हुआ,जो उन लोगों को दर्पण दिखाता है,जिनको यह गुमान है कि उन्होंने फातिमा शेख का किरदार पैदा किया.
फातिमा शेख की शादी और पुणे छोड़ना
घटनाएँ रोचक मोड़ लेती है,उस्मान के घर मिस ग्रेस समर का आना जाना काफी बढ़ गया,उस्मान और ग्रेस समर के मध्य बढती नजदीकियां खदीजा बी को स्वीकार नहीं थी.शिक्षिका बनने के बाद उन्हें लगता था कि फातिमा भी उनके हाथ से निकल चुकी थी ,लेकिन दोनों भाई बहन अपने अपने कामों से खुश थे.इसी दौरान फातिमा शेख एक अंग्रेज अफसर मिस्टर कुफ्तेर ( जो बाद में आगरा प्रेसिडेंसी के लेफ्टिनेंट जनरल बने ) के पुणे स्थित आवास पर बरकत नामक एक युवा व्यवसायी से मिली,जो पुणे से आगरा अमीर ब्रिटिश नागरिकों को ताजमहल दिखाने ले जाता था और जिसने आगरा में अपनी पुश्तैनी हवेली को होटल में बदल दिया था.जब फातिमा को पता चला कि बरकत मूलतः आगरा से हैं तो उनके बीच खूब बात हुई,यह परिचय आगे बढ़ा और दोनों के मध्य पत्र व्यवहार होने लगा,ऐसे ही एक पत्र से सावित्रीबाई को फातिमा और बरकत के मध्य पनपे प्यार का पता चला.
अपनी बीमारी से पुणे लौटते ही 1856 में सावित्री बाई मुंशी गफ्फार बैग से मिली और उन्हें बताया कि बरकत नामक युवक फातिमा से शादी करना चाहता है.जल्द ही बैग साहब बरकत से मिले,बरकत सावित्रीबाई और जोतिबा तथा उस्मान से भी मिला और अंततः फातिमा शेख और बरकत मियां की शादी तय हो गई.स्कोलर डॉ शमसुद्दीन तम्बोली और लेखक विष्णु काकाडे के मुताबिक जोतिबा और सावित्रीबाई ने फातिमा की शादी में मदद की थी.जानकारी मिलती है कि बरकत और फातिमा की शादी जोतिबा और सावित्रीबाई ने ‘मुस्लिम सत्यशोधक’ तरीके से बिना दहेज़ के करवाई थी,इस अवसर पर सरस्वती गोवांडे और मिस ग्रेस समर भी मौजूद थे.कईं लोगों का मानना है कि इसके बाद का कुछ भी पता नहीं चलता है ,लेकिन लेखक सैय्यद नासिर अहमद लिखते हैं कि –“ शादी के बाद फातिमा अपने पति बरकत के साथ आगरा चली गई थी.’ (9)
सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख की आख़री मुलाकात
शादी के बाद क्या सावित्री बाई और फातिमा शेख वापस कभी मिले ? शादी करके आगरा जाने के बाद वहां पर फातिमा शेख जैसी विदुषी महिला की भूमिका क्या सिर्फ एक गृहिणी की रह गई या उसने कुछ किया ? फातिमा के जाने के बाद जोतिबा और सावित्रीबाई द्वारा संचालित 18 पाठशालाओं का क्या हुआ ? ऐसे बहुत सारे प्रश्न हैं जिनके छिटपुट जवाब मिलते हैं.बताया जाता है फातिमा आगरा में अपने घर पर उन बच्चियों को गणित व् अंग्रेजी पढ़ाती थी जो मदरसों में अपनी बुनियादी शिक्षा लेती थी.
रीटा राममूर्ति गुप्ता सावित्री बाई फातिमा शेख की अंतिम मुलाकात का वर्णन अपनी किताब में इस तरह करती है –“ शादी के बाद फातिमा आगरा से अहमदनगर अपनी प्रिय शिक्षिका सिंथिया फरार के अंतिम संस्कार हेतु 1862 में आई ,जहाँ पर दोनों प्रिय दोस्त दौड़कर एक दूसरे के गले मिली.फातिमा ने कहा कि आने वाली पीढियां फरार मैडम को अपने क्रांतिकारी कामों के लिए याद रखेगी.सावित्री बाई ने फातिमा से नाराजगी जताई कि वह जो इतना अच्छा लिखती है,उसे प्रकाशित क्यों नहीं करवाती ? कम से कम एक लेख फरार मैडम पर ही लिख सकती है.”(10)
फातिमा शेख और सावित्री बाई की बातचीत से पता चलता है कि फातिमा कवियत्री भी थी ,वह बहुत अच्छा लिखती थी,उसका लम्बा पत्र व्यवहार बरकत के साथ चला था ,तो क्या अहमदनगर से वापस आगरा लौटने के बाद कभी फातिमा ने अपनी प्यारी सावित्री अप्पा को कोई चिट्ठी लिखी थी या सावित्री बाई ने फातिमा को कभी पत्र भेजा था ? क्या फातिमा की कोई डायरी या उसकी कविताओं का कहीं संग्रह हुआ ? जो कभी प्रकाशित नहीं हुआ ? क्या फुले दम्पति की अप्रकाशित रचनाओं औए दस्तावेजों में और भी जानकारियां रही होगी ? हो भी सकता है और नहीं भी ,क्योंकि जोतिबा और सावित्रीबाई के दत्तक पुत्र यशवंत की मृत्यु के बाद उनकी पत्नि ने घोर गरीबी में जीवनयापन के लिए सब कुछ बेच दिया ,उसमें सब चला गया हो.
प्रोफ़ेसर हरी नरके सावित्रींनामा में अपनी भूमिका में लिखते हैं -“ 13 अक्टूबर 1906 को यशवंत मृत्यु को प्राप्त हुए,उनकी पत्नि चन्द्रभागा और बेटी सोनी को लगा कि वे अनाथ और अकेले हो गए हों ,उन्होंने सबसे पहले जोतीराव की सभी किताबें एक कबाड़ी को बेच दी ,फिर उन्होंने घर के बर्तन बेच कर पेट पाला,अंततः 28 अक्टूबर 1910 को उन्होंने जोतीराव और सावित्रीबाई का ऐतिहासिक मकान केवल 100 रूपये में मारुती कृष्णाजी डेदागे को बेच दिया “ (11)
फातिमा शेख और सावित्रीबाई की दोस्ती कभी उजागर नहीं होती अगर डॉ एम जी माली द्वारा सम्पादित ‘क्रांतिजोत सावित्रीबाई जोतीराव फुले’ किताब सन 1880 में नहीं आई होती और उसमें सावित्रीबाई ,फातिमा शेख और सगुणा क्षीरसागर तथा दो बालिकाओं का फोटो नहीं छपता.इस ऐतिहासिक तस्वीर ने लोगों को बताया कि सावित्रीबाई और फातिमा शेख कैसी दिखती थी.इस तस्वीर पर भी सवाल खड़े होते मगर डॉ माली ने इसके साथ एक नोट लिखकर बताया कि यह तस्वीर पहली बार पुणे के माजूर नामक अख़बार में छपी थी ,जो सन 1924 से 1930 के दौरान पुणे से प्रकाशित होता था.माजूर के संपादक डी एस जोगाड़े ने डॉ एम जी माली को यह तस्वीर दी थी.संपादक जोगड़े को इस फोटो का नेगेटिव एकनाथ पालकर से मिला था.दरअसल यह दुर्लभ चित्र लोखंडे नामक मिशनरी व्यक्ति द्वारा सबसे पहले प्रकाशित किया गया था,लगभग सौ साल पुराने नेगेटिव से यह चित्र विकसित किया गया था ,इस तरह एकमात्र तस्वीर जो बची रह गई,वह लोगों तक पहुंची और लोग सावित्रीबाई तथा फातिमा शेख के चित्र से परिचित हो पाए.
दलित बहुजन इतिहास का यह भी विचारणीय तथ्य है कि श्रमण और भ्रमण की संस्कृति में लिखित के बजाय मौखिक परम्परा से ही इतिहास पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता रहा.बहुत सारी टूटी कड़ियों को जोड़कर ही हम बहुजन नायक नायिकाओं के बारे में जान पाते हैं.बहुत कुछ गायब हो गया,वह गया लेकिन जो भी उपलब्ध साक्ष्य है वह यह बताने के लिए पर्याप्त है कि फातिमा थी ,फातिमा है और फातिमा रहेगी.