जार्ज फर्नांडीज की यात्रा : समाजवाद से संसदवाद तक कई प्रयोग – आनंद कुमार

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जैसे आजादी के बाद की भारतीय राजनीति के आठ दशकों की कोई भी चर्चा बिना समाजवादी आंदोलन के योगदान के जिक्र के अधूरी मानी जाएगी वैसे ही भारतीय समाजवादी परिवार की सफलताओं और विफलताओं के दिलचस्प विवरण में जार्ज फर्नांडीज का अपना अनूठा स्थान है। उनकी तारीफ हो या आलोचना लेकिन कोई जार्ज फर्नांडीज की उपेक्षा करके भारत में लोकतंत्र और समाजवाद की समस्याओं और संभावनाओं को नहीं समझ सकता। वह 1967 से 1980 तक लोहिया धारा के समाजवादी कार्यकर्ताओं के गौरव थे। 1980 के बाद उनकी राजनीतिक गतिविधियों में संसदवाद का तत्त्व प्रमुख रहा।

सत्ता से सिद्धान्त के लिए टकराना और संसदीय सत्ता के लिए सिद्धांतों को किनारे कर देना जार्ज फर्नांडीज की कहानी के दो छोर थे। वह इनके बीच संतुलन बनाने की कोशिश में असफल रहे। इसलिए उनकी कोई विरासत नहीं बची।

हम उनकी प्राणरक्षा के अंतरराष्ट्रीय अभियान से 1976 में लैला फर्नांडीज के माध्यम से जुड़े। यह मेरा सौभाग्य था कि तिब्बत की आजादी और भारत की रक्षा के ‘हिमालय बचाओ आंदोलन’ से उन्होंने मुझे जोड़ा। भूटान और म्यांमार के लोकतंत्र सेनानियों से परिचित कराया। उनके बुलाने पर मैं समाजवादी अभियान और समता पार्टी के संस्थापक मंडल में शामिल रहा। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि भारतीय जनता पार्टी के साथ गंठजोड़ बनाने के खिलाफ हमारे त्यागपत्र पर उन्होंने कभी बातचीत की जरूरत नहीं समझी। इस प्रकरण से एक दूरी पैदा हुई जो कभी खत्म नहीं हुई।

मैं श्री रबिराय के साथ लोकशक्ति अभियान की रचना में जुट गया और जार्ज साहब आडवाणी जी के साथ राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन के संयोजन में व्यस्त हो गए। फिर भी हमारे मन में उनकी 1964 से 1992 के शानदार दौर की स्मृति बनी रही और मैंने उनकी बदलती तस्वीर के छिद्रान्वेषण से खुद को अलग रखा। क्योंकि उनकी भी कई मजबूरियां रही होंगी जिसकी जानकारी जया जेटली, शरद यादव, शिवानंद तिवारी, नीतीश कुमार, अनिल हेगड़े जैसे निकट सहयोगियों से मालूम की जा सकती है। मुझे प्रायः उनकी जिंदगी में महाभारत के सर्वाधिक विवादास्पद महानायक कर्ण की झलक दीखती है।

यह तो सच है कि समाजवादी समुदाय में उनके प्रशंसकों और आलोचकों का अनुपात कभी स्थिर नहीं रहा। कभी अपार समर्थन और कभी घोर निंदा। इसमें जार्ज फर्नांडीज का अपना भी भरपूर योगदान रहा। इससे हमेशा उनकी पहचान एक करिश्माई और विवादास्पद व्यक्ति की बनी रही। यह अत्यंत पीड़ा की बात रही कि उनके अंतिम बरस संसदवादी अनुयायियों द्वारा उपेक्षित, एक लाइलाज मानसिक बीमारी से पीड़ित और हाशिए पर कर दिए गए नायक की तरह गुजरे।

मेरी पीढ़ी के लिए जार्ज फर्नांडीज सुबह के सूरज की तरह 1967 के आमचुनाव में बंबई से कांग्रेसी दिग्गज एस. के. पाटिल को पराजित करके राष्ट्रीय क्षितिज पर लोहियावादी समाजवादी नायक के रूप में उदित हुए। 1971 में सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए और 1973-74 में देश की सबसे बड़ी मजदूर यूनियन (रेलवे मेन्स यूनियन) के अध्यक्ष बनकर रेल हड़ताल करायी। लोकनायक जयप्रकाश के नेतृत्व में इमर्जेंसी के खिलाफ जान की बाज़ी लगा दी जिसे ‘बड़ौदा डायनामाइट केस’ कहा गया। फिर भारत की पहली गैरकांग्रेसी केंद्रीय सरकार के उद्योगमंत्री के रूप में वैश्विक वर्चस्व बना चुकी विदेशी कंपनियों को देश से बाहर निकालकर आर्थिक स्वराज के ध्रुव तारा बन गए। इसका सिलसिला 1977 से 1992 के बीच सामाजिक न्याय की लड़ाई से जुड़कर और आकर्षक बन गया। ‘इंडिया बनाम भारत‘ और ‘पिछड़ों के सपने’ मुख्य मुद्दे बनकर उभरे। इस प्रकार वह जे.पी. से वी.पी. तक 15 बरस तक शिखर पुरुष बने रहे। मंडल रिपोर्ट को लागू कराने का श्रेय मिला। यह उनकी राजनीति का मध्याह्न था।

लेकिन 1996 के आगे जार्ज फर्नांडीज अगले दो दशक तक समाजवादी राजनीति की बजाय संसदवादी समीकरणों के दबाव में फँसते चले गए। जनता दल से निकलकर समता पार्टी बनायी। यह महँगा सौदा साबित हुआ। 1999 तक चमक घट गयी और वह गैर-कांग्रेसवाद की वकालत करते हुए ‘हिंदुत्व’ के संगठनों के साथ अपने कदम मिलाने के विवादास्पद काम में जुट गए। कांग्रेस हटाओ-इंदिरा हटाओ का सेनानायक अपने बनाए लघुनायकों से जूझने लगा। आत्मरक्षा के लिए लालकृष्ण आडवाणी का नेतृत्व स्वीकार करते हुए भारतीय जनता पार्टी का वकील बनने में जुट गए। एक मायने में सफल भी हुए। राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन के संयोजक बने। भारत के रक्षा मंत्री बने। बिहार में भारतीय जनता पार्टी के साथ जुगलबंदी का बहुत फायदा मिला। सत्ता की साधना में सफलता मिली। लेकिन समाजवादी सपने उपेक्षित होते गए। कई नए सहयोगी बनाए। किंतु मधु लिमये, मृणाल गोरे, रबिराय, लाड़ली मोहन निगम, अब्दुल नज़ीर साहब, विनोद प्रसाद सिंह और कपिल देव सिंह जैसे सहयोगी जो छूट गए तो छूट ही गए।

अपने राजनीतिक विचारों के कारण कांग्रेस, कम्युनिस्ट, जनसंघ और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से आलोचना मिलना जार्ज फर्नांडीज के लिए अप्रत्याशित नहीं था। लेकिन उनके राजनीतिक फैसलों ने उन्हें समाजवादी परिवार की लोहिया शाखा में भी कभी सर्वप्रिय और कभी बेहद अलोकप्रिय बनाया।

उन्होंने अपनी लंबी राजनीतिक यात्रा में सड़क से लेकर संसद तक सभी महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ निभायीं। बंबई के टैक्सी ड्राइवर से लेकर पूरे भारत के रेल कर्मचारियों के बेमिसाल सोशलिस्ट मजदूर नेता। कांग्रेसी सत्ता प्रतिष्ठान का मानमर्दन करनेवाले बगावती लोकतंत्र सेनानी। जाति-धर्म-भाषा की दीवारों को बंबई से लेकर बाँका तक वोट के बल पर कई बार गिरानेवाले कुशल संसदीय महारथी। राजद्रोह के आरोप में जेल में बंदी रहते हुए जनादेश के बलपर सत्ताधीश बननेवाले समाजवादी महारथी। लेकिन इन सभी उपलब्धियों को मिलाकर भी संसदवाद के तकाजों के लिए अपनायी राह की फिसलनों से हुआ नुकसान पूरा नहीं हो पाया।

फिर भी उनकी दानवीर कर्ण जैसी शोकांतिक जिंदगी आनेवाले दौर के समाजवादी सेनानियों के लिए जानने लायक कथा बनी रहेगी।

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  1. सर,
    आपका लिखा पढ़ते हुए लगा कि आपकी कक्षा में बैठा हूं और आप मुझे और मेरे अन्य सहपाठियों को political sociology पढ़ा रहे हैं।

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