आगे गहन ॲंधेरा है
आगे गहन ॲंधेरा है, मन रुक-रुक जाता है एकाकी
अब भी है टूटे प्राणों में किस छवि का आकर्षण बाक़ी?
चाह रहा है अब भी यह पापी दिल पीछे को मुड़ जाना,
एक बार फिर से दो नैनों के नीलम-नभ में उड़ जाना,
उभर-उभर आते हैं मन में वे पिछले स्वर सम्मोहन के,
गूँज गए थे पल-भर को बस प्रथम प्रहर में जो जीवन के;
किन्तु ॲंधेरा है यह, मैं हूँ, मुझको तो है आगे जाना –
जाना ही है- पहन लिया है मैंने मुसाफ़िरी का बाना।
आज मार्ग में मेरे अटक न जाओ यों, ओ सुधि की छलना!
है निस्सीम डगर मेरी, मुझको तो सदा अकेले चलना,
इस दुर्भेद्य ॲंधेरे के उस पार मिलेगा मन का आलम;
रुक न जाए सुधि के बाँधों से प्राणों की यमुना का संगम,
खो न जाए द्रुत से द्रुततर बहते रहने की साध निरन्तर,
मेरे उसके बीच कहीं रुकने से बढ़ न जाए यह अन्तर।