चेतना की दिशा : अहिंसा

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— नन्दकिशोर आचार्य —

ब हम कहते हैं कि मनुष्य विकास–प्रक्रिया का एक स्तर है तब उसका एक मानी यह भी होता है कि वह विकासशील चेतना है क्योंकि चेतना जीवन का ही गुणोत्कर्ष है और इसलिए जीवन की विकास प्रक्रिया का एक अर्थ चेतना का विकास हो जाता है– खासतौर पर मनुष्य के संदर्भ में। आत्मरक्षा जीवन की सहज प्रवृत्ति है लेकिन चेतना का विकास होने पर आत्म का दायरा विस्तृत होता जाता है। क्योंकि अपने और शेष जीवन के बीच एक तात्त्विक ऐक्य का भाव विकसित हो जाता है। संतान, परिवार, जाति, धर्म, वर्ग, राष्ट्र आदि इसी आत्म के विस्तार के दायरे हैं। और दायरे हैं इसलिए इनके द्वारा होनेवाली आत्म की पहचान और इनके माध्यम से संपूर्ण जीवन से जुड़ने की एक सीमा है जिसे न समझ सकने पर आत्म का विस्तार और उसकी पहचान बाधित होती है। तब वह न केवल निर्दोष सत्य नहीं हो सकती बल्कि कई बार उसी को अंतिम मान लेने पर एक आत्मप्रवंचना भी हो जाती है और इस प्रकार जीवन और चेतना के विकास में बाधक भी हो जाती है। नस्लवाद, राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद आदि के कारण इतिहास में जो अमानवीय घटित होता है वह इसी दृष्टि का परिणाम है। यह दृष्टि भ्रम जब मनुष्य के भीतर छिपे पशु के साथ मिल जाता है तो इतिहास के मंच पर हिंसाकाण्ड घटित होने लगता है जो अनिवार्यरूपेण विनाशकारी और इसलिए विकास विरोधी है।

पशु में हिंसा इसलिए है कि वह शेष जीवन के साथ उस तरह के अस्तित्वगत ऐक्य का अनुभव नहीं कर सकता जो कि मनुष्य कर सकता है। इसलिए हिंसा की वृत्ति को पाशविक वृत्ति कहा गया है। जो लोग मानव जीवन में हिंसा के अनिवार्य प्रयोग पर बल देते हैं वे भी यह तो मानते हैं कि यह एक पाशविक वृत्ति है लेकिन उनकी राय में इसके बिना काम चल नहीं सकता है।

क्रांति के प्रसंग में जब हिंसा के औचित्य पर बात की जाती है तब भी यही कहा जाता है कि साध्य के आधार पर साधन की पवित्रता को आँकना चाहिए। इसी में क्या यह भाव नहीं निहित है कि हिंसा है तो अनुचित पर यदि किसी अच्छे उद्देश्य के लिए उसका उपयोग करना पड़े तो वैसा किया जा सकता है? इसका सीधा मतलब यही होता है कि हिंसा अपने आप में कोई अच्छी प्रवृत्ति नहीं होती यद्यपि कभी आवश्यकता पड़ने पर उसका उपयोग किसी अच्छे उद्देश्य के लिए भी किया जा सकता है।

इससे भी यह तो तय हो ही जाता है कि हिंसा की प्रवृत्ति अपने आप में एक अमानवीय प्रवृत्ति है जो जीवन और चेतना की विरोधी बल्कि उनके विनाश की ओर उन्मुख प्रवृत्ति है और यदि कभी हिंसा को स्वीकार किया भी जाता है तो एक प्रवृत्ति के रूप में नहीं बल्कि किसी हिंसा का ही विरोध करने के अंतिम अस्त्र के रूप में– यद्यपि इस पर विचार की गुंजाइश फिर भी बनी रहती है कि किस स्थिति में हम इस अस्त्र का उपयोग करें। कुछ लोग तो फिर भी यह आपत्ति उठा सकते हैं कि किसी भी स्थिति में इसका उपयोग उचित नहीं कहा जा सकता– लेकिन इन सवालों पर बहस को फिर कभी के लिए छोड़कर पहले हम मूल बात पर विचार करें।

हिंसा अमानवीय और जीवन तथा चेतना की विरोधी प्रवृत्ति है, इसी से यह स्वयमेव सिद्ध हो जाता है कि मूलतः अहिंसा एक ऐसी मानवीय प्रवृत्ति है जो न केवल मनुष्य को पाशविकता के स्तर से ऊपर उठाती है बल्कि उसे पूरे जीवन के साथ अस्तित्वगत ऐक्य का अनुभव करवाती है। यही भाव अहिंसा का मूल भाव है और चेतना के विकास का मतलब इस मूल भाव का गुणोत्कर्ष होते जाना है। इसलिए अहिंसा कोई निषेधात्मक विचार नहीं बल्कि यह मनुष्य होने की मूल शर्त है। जो लोग यह कहते हैं कि हिंसा मनुष्य के स्वभाव में है वे यह भूल जाते हैं कि मनुष्य अभी भी विकास की प्रक्रिया का एक स्तर है और आगे का विकास हिंसा पर नहीं अहिंसा के भाव पर आधारित है। मनुष्य नाम का जीव जितना अधिक अहिंसक होता जाएगा, उतना ही वह आर्थी संदर्भ में मनुष्य होता जाएगा और उसी में से उसके भावी विकास की दिशा भी खुलेगी। हिंसा विकासशील मनुष्य में छिपे पशु का स्वभाव हो सकती है, पर मनुष्य का मूल स्वभाव नहीं हो सकती। मनुष्य का मूल स्वभाव तो अहिंसा ही रही है।

इसका तात्पर्य़ यह हुआ कि चेतना के विकास का अर्थ है मनुष्य का निरंतर अहिंसक होते जाना– निषेधात्मक नहीं विधायी अर्थों में। जीवन मात्र के, अस्तित्व मात्र के प्रति लगाव, प्रेम, करुणा, अनुकंपा का भाव और उसका सूक्ष्मतर बोध अहिंसा के भाव की ही गुणाभिव्यक्तियाँ हैं। अहिंसक होना ही वास्तविक अर्थों में मनुष्य होना और जीवन के विकास की गति में सार्थक भूमिका निभाना है।

लेकिन जब हम हिंसा या अहिंसा की बात करते हैं तो अक्सर उसका संदर्भ बहुत स्थूल और दैहिक होता है। हिंसक मनुष्य भी केवल हिंसक नहीं है– वह मनुष्य भी है इसलिए बुद्धि का उपयोग भी करता है और यदि उसके उपयोग की प्रेरणा हिंसा की प्रवृत्ति हो तो उसके लिए बहुत सूक्ष्म और बौद्धिक तरीके भी ईजाद करता है। इसलिए हिंसा सिर्फ व्यक्तिगत प्रवृत्ति ही नहीं रहती बल्कि अक्सर पूरे समाज के आचरण में भी प्रतिबिंबित होती है।

जाति, नस्ल, वर्ग, राष्ट्र, धर्म आदि के आधार पर अपने को श्रेष्ठ समझना और दूसरे पक्ष से संबंधित व्यक्ति को अपने से ओछा या नीचा समझना हिंसा का ही सूक्ष्म रूप है। इसलिए दैहिक बल प्रयोग ही नहीं, राजनीतिक दमन, आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न भी हिंसा की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं।

इस तर्क के आधार पर जाति, नस्ल, संप्रदाय, राष्ट्र आदि की अन्य से श्रेष्ठता की भावना भी कहीं गहरे में हिंसा की वृत्ति से प्रेरित और उसे ही पुष्ट करनेवाली भावना है। आधुनिक संदर्भों में तो राजनीतिक संगठनों तक को लेकर भी अपनी श्रेष्ठता और दूसरे को ओछेपन की भावना तीव्रतर होती जा रही है और आए दिन सड़कों पर विभिन्न राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं में मुठभेड़ों और दलों के नेताओं द्वारा दूसरों के प्रति घृणापूर्ण भाषा के प्रयोग के द्वारा ऐसी घटनाओं को और प्रोत्साहित किया जाना इसी प्रवृत्ति के बहुत सामान्य परिणाम हैं।

हम उसी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था को उचित कह सकते हैं जो मनुष्य के अर्थात् चेतना के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण की भूमिका निभा सके। दूसरे शब्दों में, इस पूरी व्यवस्था का भी आधार विधायी अर्थों में अहिंसा को ही होना चाहिए। तभी विकास की प्रक्रिया में मनुष्य एक चेतन प्राणी होने के नाते अपने उत्तरदायित्व को निभा पाएगा। यदि वह इस उत्तरदायित्व को नहीं निभाता है तो जैविक स्तर पर तो मनुष्य कहला सकता है लेकिन सांस्कृतिक और मूल्यगत स्तर पर नहीं। विकास की प्रक्रिया बड़ी धीमी, जटिल और भटकावों से भरी है। यदि आज हमारी व्यवस्था या हमारी प्रवृत्ति इस दिशा की ओर उन्मुख नहीं है तो यही मानना होगा कि वह मानवीय इतिहास की एक और भटकन है।

स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व ये तीनों प्रेरक सिद्धांत मूलतः अहिंसा के सिद्धांत के ही विभिन्न रूप हैं चाहे फ्रांसीसी क्रांति में इनके स्फोट का संदर्भ हिंसापूर्ण ही रहा हो। यही कारण है कि लोकतंत्र, समाजवाद और अंतरराष्ट्रीयता या वैश्विकता की धारणाएँ बुनियादी रूप में एक दूसरे से जुड़ी धारणाएँ हैं क्योंकि उन सबका मूल उत्स अहिंसा की वह विधायी प्रवृत्ति है जो मनुष्य के वास्तविक अर्थों में मनुष्य हो सकने का मूल आधार है। यह ठीक है कि अभी इन सबके रूप पूर्ण तो क्या संतोषजनक भी नहीं हैं और दुनिया की अधिकांश आबादी अपने अस्तित्व की जैविक आवश्यकताओं के संघर्ष में ही इस तरह उलझी है कि अन्य बातों की ओर या तो ध्यान ही नहीं जाता या उन्हें बौद्धिक विलास मान लिया जा सकता है।

लेकिन जैविक आवश्यकताओं के पूरा न हो सकने का भी एक मूल कारण क्या यही नहीं है कि चेतना को अपनी देह और संतान-परिवार से लेकर संप्रदाय और राष्ट्र तक के छोटे-बड़े दायरों में ही बाँधा जाता रहा है। उसका सही अर्थों में वैश्विक बल्कि संपूर्ण अस्तित्व तक विस्तार नहीं हो पा रहा जो कि उसकी सही दिशा है।

यह ठीक है कि यह सब तुरंत नहीं हो सकता। लेकिन आवश्यक यह है कि हम अपनी वर्तमान दिशा को पहचानें और यदि वह हमें मनुष्य होने और उससे आगे के विकास की ओर नहीं ले जा रही हो तो उसे बदल देने के लिए सचेष्ट हों। चेतनासंपन्न होते जाने के साथ ही यह जिम्मेदारी स्वयं मनुष्य पर ही आ जाती है कि वह अपने भावी विकास की दिशा को निर्धारित और उसकी प्रक्रिया को नियंत्रित करे।

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