नर्मदा बचाओ आंदोलन : संघर्ष और निर्माण के 37 वर्ष

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— डॉ.सुनीलम —

मेधा पाटकर और नर्मदा बचाओ आंदोलन ने रचना और संघर्ष का जो मॉडल तैयार किया है वह न केवल देश और दुनिया के आंदोलनों को प्रेरणा देता रहेगा बल्कि सरकारों को भी विकास की इस तरह की भावी दिशा देने का काम करेगा जो समाज तथा देश को समतामूलक और न्यायपूर्ण बनाने में मददगार साबित होगी।

नर्मदा बचाओ आंदोलन, संघर्ष और निर्माण के परसों ही 37 वर्ष पूरे हुए हैं।

स्वाभाविक तौर पर इस अवसर पर नर्मदा बचाओ आंदोलन को 37 वर्षों का मूल्यांकन करना आवश्यक है । पर असल में मूल्यांकन तो सरकारों और व्यवस्था चलानेवालों को भी इस बात का करना चाहिए कि यदि नर्मदा बचाओ आंदोलन नहीं होता तो आज जितना भी विस्थापितों का पुनर्वास हुआ है, वह कितना हो पाता? असल में इस अवसर पर संवैधानिक व्यवस्था के चारों स्तंभों की भी समीक्षा की जानी चाहिए ।

आइए हम यह शुरू करने के पहले नर्मदा घाटी परियोजना – सरदार सरोवर बांध परियोजना- के बारे में तथ्यात्मक जानकारी प्राप्त कर लें।

सबसे पहले इस परियोजना को लेकर दिसंबर 1979 में नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण (नर्मदा कंट्रोल अथॉरिटी) का गठन हुआ । 24 जून 1987 को आठ शर्तों के साथ पर्यावरण संबंधी स्वीकृति दी गई ।

8 सितंबर 1987 को 13,800 हेक्टेयर के वनों को डूब क्षेत्र में शामिल करने की अनुमति तीन गुना वन लगाने की शर्त के साथ दी गई ,जो अभी तक नहीं लगाए गए हैं।

5 अक्टूबर 1988 को सरदार सरोवर योजना में निवेश करने की अनुमति योजना आयोग द्वारा दी गई। विश्व बैंक ने मोर्स कमीशन की सिफारिशों के आधार पर सरदार सरोवर हेतु ऋण देने के फैसले को रद्द कर दिया। 1994 में नर्मदा अथॉरिटी द्वारा बांध की ऊंचाई बढ़ाने के खिलाफ केवल सिंह बसावा, देवराम लहेरा, सीताराम पाटीदार, श्रीमती कमला यादव ने भोपाल में 26 दिन का क्रमिक उपवास-आंदोलन किया। 1 मई 1995 को नर्मदा बचाओ आंदोलन ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया तथा 80 मीटर तक बांध की ऊंचाई होने पर विस्थापितों के पूर्ण पुनर्वास को लेकर सवाल उठाया। जिसके आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने 4 वर्ष के लिए कार्य पर रोक लगा दी।

सन 2000 में सर्वोच्च न्यायालय ने फिर से बांध की ऊंचाई बढ़ाने की अनुमति दे दी। नर्मदा अथॉरिटी ने 85 मीटर से 95 मीटर के बीच ऊंचाई से प्रभावित होनेवाले विस्थापितों का पुनर्वास नहीं होने के बावजूद बांध की ऊंचाई 95 से 100 मीटर बढ़ाने की अनुमति दे दी तथा 16 मार्च 2004 को फिर बिना पुनर्वास के बांध की ऊंचाई 100 से 110.64 मीटर तक बढ़ाने की अनुमति दे दी गयी।

15 मार्च 2005 को सर्वोच्च न्यायालय के तीन जजों की बेंच ने स्थायी और अस्थायी डूब के अंतर को समाप्त कर सभी विस्थापितों को जमीन देने तथा विस्थापितों के परिवारों के बालिग सदस्यों को जमीन देने का निर्णय दिया। फिर से बिना पुनर्वास हुए 16 मार्च 2006 को नर्मदा अथॉरिटी ने बांध की ऊंचाई 110.64 मीटर से 121.92 मीटर तक बढ़ाने की अनुमति दे दी।

इसके खिलाफ जयसिंह भाई, भगवती बहन और मेधा पाटकर ने उपवास किया। 19वें दिन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया , 21वें दिन उपवास समाप्त हुआ।

इसी बीच प्रधानमंत्री द्वारा सैफुद्दीन सोज़, मीरा कुमार और पृथ्वीराज चौहान की एक कमेटी बनाई गई जिसने 9 अप्रैल 2006 को अपनी रिपोर्ट जारी कर बताया कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार विस्थापितों का पुनर्वास नहीं हुआ है।

25 दिसंबर से 26 जनवरी 2006 के बीच मेधा पाटकर और बाबा आमटे ने राजघाट बड़वानी से गुजरात सीमा तक पदयात्रा की, तब पहली बार नारा दिया “हमारे गांव में हमारा राज”।

17 अप्रैल 2006 को गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने नर्मदा बचाओ आंदोलन के खिलाफ पांच सितारा सुविधाओं के साथ 51 घंटे का उपवास किया गया ।

3 जुलाई 2006 को वीके सुमलू ने रिपोर्ट प्रधानमंत्री को देकर यह बताया कि 6000 ऐसे परिवार हैं जिन्हें डूब की सूची में शामिल नहीं किया गया है तथा पुनर्वास स्थलों पर कार्य पूरे नहीं हुए हैं।

इस बीच नर्मदा बचाओ आंदोलन ने मध्य प्रदेश के उच्च न्यायालय, जबलपुर में याचिका दायर की। इसके आधार पर हाईकोर्ट ने झा आयोग गठित किया।

झा आयोग ने 7 वर्ष की जांच में यह पाया कि 1589 फर्जी रजिस्ट्रियां की गई हैं।

9 अप्रैल से 24 अप्रैल 2010 के बीच नर्मदा बचाओ आंदोलन के नेतृत्व में हजारों विस्थापितों ने इंदौर में 2 सप्ताह का धरना दिया। सन 2012 में बांध के गेट खोले जाने पर मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में तबाही हुई। ऐसी तबाही 2013 में भी देखने मिली।

6 अगस्त 2015 से राजघाट, बड़वानी पर विस्थापितों ने लंबे समय तक धरना दिया। दिसंबर 2016 में मध्य प्रदेश सरकार ने अपने शपथ पत्र में यह माना कि 1358 परिवारों को जमीन नहीं मिली है। 8 फरवरी 2017 को सर्वोच्च न्यायालय ने 60 लाख रुपए और जमीन धारकों को 15 लाख रुपये का पैकेज देने का निर्णय लिया।

इस बीच मेधा पाटकर को गिरफ्तार कर जेल में रखा गया। 15 दिन बाद 24 अगस्त 2017 को उनकी रिहाई हुई। 14 सितंबर 2017 को गुजरात के भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि नरेंद्र मोदी ने सरदार सरोवर का काम पूर्ण किए जाने की फर्जी घोषणा की है। छोटा वर्धा ग्राम में प्रधानमंत्री द्वारा सरदार सरोवर बांध का लोकार्पण किए जाने के खिलाफ 14 से 17 सितंबर के बीच जल सत्याग्रह किया गया।

दिसंबर 2017 में नर्मदा अथॉरिटी ने गेट बंद कर बांध में पानी भरने की अनुमति दे दी। 24 अक्टूबर 2019 को सर्वोच्च न्यायालय ने मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात के मुख्यमंत्रियों को निर्देशित किया कि वे पुनर्वास की स्थिति और सरदार सरोवर बांध में कितना पानी भरा जाना है, उसको लेकर निर्णय करें।

18 नवंबर 2019 को मध्य प्रदेश सरकार ने गुजरात सरकार से 8000 करोड़ रुपए की बकाया राशि देने की मांग की, लेकिन पुनर्वास के संबंध में कोई टिप्पणी नहीं की। 2021 में अवैध रेत माफियाओं पर रोक लगाने के लिए याचिका दायर की गई, तमाम आदेश हुए लेकिन उनका पालन आज तक नहीं हुआ। आज भी संपूर्ण पुनर्वास को लेकर तथा विभिन्न न्यायालयों के फैसले लागू कराने को लेकर नर्मदा बचाओ आंदोलन का संघर्ष जारी है।

इन तथ्यों के आधार पर यह देखा जाना जरूरी है कि 37 वर्षों में कितनी बार मध्यप्रदेश की विधानसभा, भारत की संसद (लोकसभा और राज्यसभा) में सरदार सरोवर परियोजना और नर्मदा घाटी के विस्थापितों को लेकर बहस हुई, क्या सुझाव आए और उन पर किन सरकारों के द्वारा कितना अमल किया गया? फिलहाल भाजपा की सरकार भोपाल और दिल्ली में है इसलिए सबसे पहला सवाल भाजपा की केंद्र और राज्य सरकार से ही किया जाना चाहिए।

इसी तरह कार्यपालिका को यह मूल्यांकन करने की जरूरत है कि उसने विस्थापितों की समस्याओं का कितनी गंभीरता से निराकरण किया, पारदर्शिता, जवाबदेही की नीति कितनी अपनाई। तमाम फैसले जो न्यायालयों ने दिए उनका कितना पालन किया?

इससे प्रशासन की नागरिकों के प्रति संवेदनशीलता और कर्तव्य परायणता का भी पता चलता है।

यह छोटी परियोजना नहीं थी। 193 गांवों और एक शहर के ढाई लाख नागरिकों का अस्तित्व इस परियोजना से जुड़ा हुआ था, जिसमें पहले 6000 करोड़ के खर्चे का अनुमान लगाया गया था पर अब तक 90 हजार करोड़ खर्च हो चुका है। ऐसी स्थिति में पूरी परियोजना के लाभ हानि का आकलन किया जाना चाहिए।

पुनर्वास के कार्य में जब भ्रष्टाचार के आरोप लगे, विशेष तौर पर झा कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद प्रशासन ने कितने भ्रष्टाचारियों पर मुकदमा दर्ज किया तथा जेल भिजवाया, यह पूछा जाना आज के दिन आवश्यक है।

इसी तरह गत 37 वर्षों में विभिन्न न्यायालयों द्वारा दिए गए फैसलों पर कितना अमल हुआ, इसका मूल्यांकन भी आवश्यक है। न्याय में देरी अन्याय माना जाता है। 37 वर्षों में जिन विस्थापितों के जीविकोपार्जन के साधन छीन लिए गए, उनके सम्मानपूर्वक जीवन जीने की वैकल्पिक व्यवस्था आज तक कितनी हो पाई है यह भी मूल्यांकन करना आवश्यक है।

यह भी गंभीर चिंतन का विषय है कि यदि नर्मदा बचाओ आंदोलन ने विस्थापितों के मुकदमे न लड़े होते तो क्या विस्थापित जो कुछ भी हासिल कर पाए हैं वह कर पाते?

यह सर्वविदित है कि अदालतों में न्याय पाने के लिए महंगे वकीलों की जरूरत होती है। इस अवसर पर उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता संजय परीख जी के साथ-साथ उन सभी वकीलों को धन्यवाद दिया जाना चाहिए, जिन्होंने विस्थापितों को न्याय दिलाने में अपना समय, साधन और ऊर्जा खर्च की।

चौथा स्तंभ मीडिया को यह सोचना पड़ेगा कि उन्होंने लाखों विस्थापितों का कितना साथ दिया ? गोदी मीडिया ने भले ही आंदोलन पर तमाम आरोप लगाकर बदनाम करने की कोशिश की हो लेकिन नर्मदा घाटी के विशेषकर बड़वानी के स्थानीय पत्रकारों ने विस्थापितों का साथ दिया है। उन्हें भी इस अवसर पर धन्यवाद दिया जाना चाहिए।

कुल मिलाकर हमारे लोकतंत्र के चारों स्तंभ विस्थापितों के साथ खड़े होने की बजाय सरकार और राजनीतिक दलों, ठेकेदारों और भ्रष्टाचारियों के पक्ष में खड़े ही नहीं, काम करते भी दिखलाई दिए।

यह लोकतंत्र के लिए बहुत घातक है। यह समझते हुए नर्मदा बचाओ आंदोलन संविधान और लोकतंत्र को बचाने की प्रतिबद्धता के साथ कार्य कर रहा है।

नर्मदा बचाओ आंदोलन के उन हजारों कार्यकर्ताओं को भी इस अवसर पर सलाम किया जाना चाहिए जिन्होंने पूरा जीवन आंदोलन में ही खपाकर विस्थापितों को न्याय दिलाने के लिए अनवरत संघर्ष किया ।

37 वर्षों के संघर्ष में तमाम कार्यकर्ताओं पर मुकदमे लगे, उन्हें जेल में भी रहना पड़ा, संघर्ष करते-करते कई कार्यकर्ताओं की मौत भी हो गई। उन सभी कार्यकर्ताओं को देश के जन संगठनों और किसान संगठनों और समाजवादियों की ओर से क्रांतिकारी सलाम!

मेधा पाटकर और नर्मदा बचाओ आंदोलन ने रचना और संघर्ष का जो मॉडल तैयार किया है वह न केवल देश और दुनिया के आंदोलनों को प्रेरणा देता रहेगा बल्कि सरकारों को भी विकास की इस तरह की भावी दिशा देने का काम करेगा जो समाज तथा देश को समतामूलक और न्यायपूर्ण बनाने में मददगार साबित होगी।

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