गुरुजी रवीन्द्र शर्मा से मिली सीख

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रवीन्द्र शर्मा (5 सितंबर 1952 - 29 अप्रैल 2018)


— आशुतोष जानी —

वम्बर 2015 में हम (मैं और मेरी पत्नी स्नेहा) एक यात्रा के लिए निकले थे, जिसमें हिमाचल प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र तक कई सारे लोगों से मिले, उसके बाद की यात्राओं में दक्षिण की ओर भी गये थे।

दरअसल 2010-11 से ही हम गुजरात के कुछ गांवों में बिना कोई एनजीओ बनाये सकारात्मक आंदोलन के रूप में ग्रामीण बच्चों के साथ शिक्षा का और युवाओं के लिए रोजगार उत्पन्न करने की दिशा में काम करते थे। और 2015 आते-आते हम एक गुरुकुल शुरू करने का मन बना चुके थे और उसी सिलसिले में अनुभवी व्यक्तियों से मिलने हेतु हम चल पड़े थे। मसूरी में पवन गुप्ता जी से पहली बार गुरुजी का नाम सुना था और पवन जी ने गुरुजी की एक ऑडियो सीडी भी दी थी (खैर किसी वजह से हम उसे सुन नहीं पाये), फिर वर्धा में राजीव दीक्षित जी की पुण्यतिथि के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में एक मित्र ने गुरुजी से मिलने का सुझाव दिया, तो हम फोन करके चल पड़े।

हमारी यात्रा में कई ऐसे पड़ाव भी थे, जहां बस या ट्रेन का मिलना मुश्किल था, अत: हमारी यात्रा गाड़ी (कार) से ही हो रही थी। 29 नवम्बर 2015 को सुबह सुबह वर्धा से निकलकर बारह-एक बजे तक आदिलाबाद पहुँच गये, सुना तो था ही कि गुरुजी गले की बीमारी से अभी अभी उबरे हैं, और मुश्किल से ही थोड़ा सा बोल पायेंगे।

गुरुजी से थोड़ी सी ही बातचीत हुई, कि भोजन का समय हो गया। खाते-खाते हम सोच रहे थे कि ये तो हमारी धारणा से विपरीत ही बात कर रहे हैं। गुरुजी का कुछ यूं कहना था कि इतने सारे लोग इतने विकल्पों के ऊपर काम करके थक गये, हार गये, तुम क्यूँ अपने आप को गुरुकुल के लिए खपा देना चाहते हो, जबकि उससे कुछ खास हासिल तो होगा नहीं। इससे तो अच्छा है कि नौकरी करो, पैसे कमाओ और ऐश से जियो। हम उलझन में पड़ गये कि ये भला क्या बात हो गयी। भोजन के बाद देखा गुरुजी आराम कर रहे थे, तो हम आश्रम का चक्कर लगाने निकले।

घूमते घूमते जब हमने गुरुजी के द्वारा निर्मित मिट्टी और पीतल की कारीगरी देखी, तो आंखों पर विश्वास न हो सका कि भारतीयता की बड़ी बड़ी बातें करनेवाला कोई व्यक्ति इतना सहज भी हो सकता है कि अपने ही हाथों से इतनी सारी सुंदर कलाकृतियाँ बनाये, उन्हें बेचे नहीं और हमारे जैसों के देखने के लिए रखे रहे। इसी आश्चर्य में हम घूम रहे थे कि गुरुजी उठे, और फिर बात शुरू हुई। डेढ़-दो घंटे चली उस बातचीत में गुरुजी ने गाँव की परिभाषा की बात कही, व्ययप्रधान अर्थव्यवस्था की बात कही, परंपराओं में कहीं न कहीं देने का भाव जगाने की अप्रत्यक्ष व्यवस्था होने की बात कही, वर्ण और जाति के साथ-साथ समाज को देखने के लिए वृत्ति का एक और दृष्टिकोण भी हमारे सामने रखा। ये सबकुछ सुनते सुनते हम तो मंत्रमुग्ध हो गये, जैसे कि दुनिया को देखने की एक नयी दृष्टि हमें मिल गई हो। मन तो करता था गुरुजी बस बोलते ही जाएं, और हम सुनते ही जाएं। खैर गुरुजी इतना ज्यादा बोल भी नहीं पाते थे, तो डेढ़-दो घंटे बात करके हम निकले और कला आश्रम से बाहर निकलते ही हम दोनों का पहला उदगार था कि जीवन के पिछले 28-29 सालों में हमने जितना नहीं सीखा होगा, उससे कहीं अधिक पिछले डेढ़-दो घंटों में सीख लिया होगा। आदिलाबाद बार-बार वापस आने का निर्णय करके हम वहाँ से चले।

फिर 2016 और 2017 में हम आठ-नौ बार कला आश्रम आये और हर बार आठ-दस दिन तो वहाँ पर रुकना हुआ ही होगा। वैसे हमारे प्रश्न तो थे गुरुकुल व्यवस्था के बारे में, परंतु गुरुजी की बातों की संपूर्णता और व्यवस्था के दर्शन ने हमें सोचने पर विवश कर दिया कि क्या जैसे गुरुकुल की हम कल्पना कर रहे थे, वह उचित था या नहीं, क्या वह समय उस काम के लिए ठीक था या नहीं, क्या उस समय और कोई महत्त्वपूर्ण काम था या नहीं। गुरुजी ने कभी स्पष्ट रूप से हमें निर्देश नहीं दिया कि हमें क्या करना चाहिए, या क्या नहीं करना चाहिए, बस उनके समीप रहकर हम स्वयं अपने व कई औरों के कामों की समीक्षा करने लगे, हम जो करने के विषय में सोच रहे थे उसकी भी समीक्षा करने लगे, तो हमने पाया कि सार्वजनिक क्षेत्रों में हो रहे अधिकतम काम भारत के काम करने के तौर-तरीकों से कोसों दूर थे। जिसमें हमारे कामों का भी समावेश होता था। गुरुजी से अक्सर बात होती रहती थी कि ये भी तो गड़बड़ है, वो भी तो गड़बड़ है, लेकिन करना क्या है इसकी ओर कभी गुरुजी ने इशारा तक नहीं किया। हम इतना तो अवश्य समझ पाये कि भारत और भारतीयता के विषय में हमें बहुत कुछ सीखना समझना बाकी है और मजे की बात ये है कि जो सीखना समझना बाकी है, वह किसी भी किताब को पढ़ने से सीखा नहीं जा सकता, उसके लिए तो आपको स्वयं को ही ढालना होगा, स्वयं को ही शून्य बनाना होगा।

गुरुजी की बड़ौदा वाली कहानी कई बार याद आती थी कि एक पेड़ भी नये पत्ते उगाने के लिए अपना सबकुछ झाड़ देता है, छोड़ देता है, तो आप अपने मन में इतना सबकुछ भरकर कैसे कुछ नवसर्जन कर पाएंगे? अत: हमने सबसे पहले तो अपने पूर्वग्रहों व मान्यताओं को किनारे करके गुरुजी की बातों को समझने का और गुजरात के व अन्य जिन जिन गांवों में हम घूमते थे उन गांवों में वैसी बातें खोजने का प्रयास किया। यह हमें भलीभांति याद था कि नवसर्जन भी अपनी ही जड़ों पे होता है, दूसरों की नहीं। अत: गुरुजी की बातों को समझने के लिए हमने गांवों में हमें स्वयं ही हुए अनुभवों की लता को जैसे गुरुजी के सूत्रों के आधार पर आगे बढ़ाया और हमारी एक व्यापक समझ बनती गयी। इस समूची प्रक्रिया में गुरुकुल शुरू करने का हमारा विचार कब छूट गया, हम खुद भी नहीं समझ पाये।

गुरुजी के साथ के संवादों के आधार पर हमें लगा कि अब तक तो हम भारत को जितना भी जानते थे, अमूमन परदृष्टि से ही जानते थे। गुरुजी के साथ रहने का हमारा अनुभव इतना नया और अपूर्व रहा कि हमें लगा हमारा पुनर्जन्म हो गया हो, कभी कभी तो मजाक मजाक में हम यूं भी कह देते थे कि अभी तो हमारी आयु तीन वर्षों की भी नहीं हुई। गुरुजी के साथ बीते हमारे कुछ समय में हम इतना तो समझ पाये कि कुछ मुद्दे बृहत समाज के सामने होने पर भी अदृश्य हैं। उन मुद्दों को यहां इंगित करना चाहेंगे। ऐसा भी नहीं कि ये सब गुरुजी के ही शब्द हैं, परंतु उनके समीप रहकर हमारी जो समझ बनी उसका निचोड़ है।

1. व्यवस्था के मुद्दे पर समाज और सरकार के बीच एक बड़ा द्वंद्व चल रहा है। (यहाँ सरकार का व्यापक अर्थ सारी राजनीतिक, प्रशासनिक, कानूनी इकाइयों से है।) राजतंत्र, प्रशासन, न्याय व्यवस्था, दण्ड व्यवस्था, शहरी अर्थव्यवस्था, शिक्षा व्यववस्था, स्वास्थ्य व्यवस्था तो पहले से ही पाश्चात्य पद्धति से चल रहे हैं। काम करने की भारतीय पद्धतियों के लिए जगह कम से कम होती जा रही है। ऐसे में यदि आप कुछ सार्वजनिक काम करना चाहते हैं, तो आपको निर्णय करना होगा कि आप भी उसी बहाव में बहकर उन्हीं तंत्रों के अधीन काम करेंगे या फिर आप उस समाज के पक्ष में खड़े रहेंगे जो आज भी बद से बदतर होते हालात में भी सहजता से अपनी पद्धतियों व अपनी परंपराओं का निर्वाह कर रहा है। भारतीयता और आधुनिकता (पाश्चात्यता) में एक प्रमुख अंतर गुरुजी यह बताया करते थे कि भारतीय व्यवस्था में आत्मीयता से व्यवहार होता है, जबकि आधुनिक व्यवस्था में व्यवहार से आत्मीयता दिखायी जाती है। क्या आप अपने काम के लिए एनजीओ या चैरिटेबल ट्रस्ट बनाते हैं या आप बिना उसके ही अपना काम कर लेते हैं, ये भी एक मापदंड बन जाता है। आप क्या करते हैं के साथ-साथ कैसे करते हैं यह भी महत्त्व रखता है।

2. एक और बात यह भी समझ में आयी कि किसी भी वस्तु का रुपये-पैसों में दाम लगाकर बेचना भी भारतीय पद्धति नहीं है। भारत में अर्थतंत्र और समाजशास्त्र को अलगाव में नहीं देखा जाता था। भारत के गांवों में वस्तुओं के लेने देने के साथ-साथ सम्बन्धों के पनपने की प्रक्रिया सहज ही होती रहती है। लेने-देने और खरीदने-बेचने में जो अंतर है, उसे भी हमें पहचानना होगा। हम बहुत जल्दी लेने-देने वालों में से खरीदने-बेचने वाले बनते जा रहे हैं। यह जो मुद्रा (करन्सी) है, वह भी तो विदेशी प्रकार की अर्थव्यवस्था का ही अंग है, फिर उसी मुद्रा के आधार पर स्वदेशी का काम कैसे हो सकता है?

3. किसानों और कारीगरों के साथ काम करने में भी यह ध्यान रखना होगा कि हम कैसी अर्थव्यवस्था की कल्पना करते हैं? क्या उसमें आय का प्राधान्य है या व्यय की पद्धतियों का प्राधान्य है? किसानों और कारीगरों की रुपये-पैसे में आय बढ़ाने से तो गाँव में समृद्धि आने से रही। हाँ, परिवारों में संपन्नता जरूर आएगी और उतना ही वे परिवार गाँव-समाज से कटते जाएंगे, तो क्या हमें ऐसी संपन्नता के पीछे भागना है, जहां परिवार को केवल वस्तुओं एवं सेवाओं के उपभोक्ता के रूप में देखा जाए, या फिर हमें परिवारों को समाज का अटूट अंग बनाये रखकर समृद्धि का मार्ग तलाशना है?

तो कुल मिलाकर बात कुछ यूं बनती है कि आजकल किये जाने वाले वैकल्पिक कामों में से शायद ही कोई हो, जो गुरुजी की कसौटी पर खरा उतरे।

गुरुजी के साथ के संक्षिप्त परिचय में हमारे मन में उनके प्रति एक अनन्य आदरभाव हो गया, अत: कभी उनकी बातों को जाँचने परखने की इच्छा नहीं हुई, कहीं न कहीं एक ऐसा विश्वास बन गया था कि गुरुजी स्वयं के अनुभवों को छोड़कर कभी कुछ बोलेंगे ही नहीं और उसमें भी कभी तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं करेंगे, क्योंकि कभी किसी से कुछ मनवा लेने की उनकी वृत्ति रही ही नहीं, वे तो बस अपनी बात कह देते थे, उन बातों को हमारे मानने ना मानने से उन्हें कुछ खास फर्क नहीं पड़ता था। फिर भी शहर में पलने-बढ़ने के कारण जिस दुनिया की बात गुरुजी किया करते थे, उसे पूर्णत: आत्मसात करने में हमें दिक्कतें हो रही थीं, अत: हमने गाँव में रहने का और गुरुजी से प्राप्त दृष्टिकोण से दुनिया देखने का, अनुभव करने का और जीने का निर्णय किया। फिर काफी खोजबीन के बाद हमने गुजरात के छोटा उदयपुर जिले में एक छोटे-से गाँव में एक घर किराये पे लिया और यहाँ के गांवों की संस्कृति व सभ्यता को निहारते हुए उनका अध्ययन भी कर रहे हैं और उसे संरक्षित करने के यथाशक्ति प्रयास भी कर रहे हैं।

गुरुजी को जब नया नया सुना था, तो हम उनकी बातों को सुनकर भौचक्के रह जाते थे और वो बातें सबको बताने लगते थे। उसका परिणाम यह आया कि कई लोग उन बातों पर कुछ ऐसे प्रश्न भी उठाने लगे, जिनका हम संतोषकारक समाधान नहीं कर पाते थे, जबकि ऐसे ही प्रश्न कभी यदि गुरुजी के सामने आते तो गुरुजी फट से कुछ बता देते और सामनेवाला व्यक्ति भी संतुष्ट हो जाता। जब हमने गुरुजी से पूछा कि ऐसा क्यूँ होता है तो गुरुजी ने कहा कि तुम लोग मेरी बात क्यूँ करते हो, अपनी बात करो ना! मैं स्वयं जो देखा-सुना है, उसकी बात करता हूँ, तुम भी देखो, जानो और फिर उसकी बात करो। तब से हमने लोगों के सामने गुरुजी की बातें करना कम कर दिया और दुनिया को गुरुजी की प्रेरणा से प्राप्त हुए दृष्टिकोण से देखना और उन अनुभवों की बातें करना शुरू किया। जब से हम स्वानुभव की बातें सबके सामने करने लगे, तबसे किंचित ही किसी ने उन बातों पर प्रश्न उठाया होगा। इससे हमारे मन में यह स्पष्ट होने लगा कि गुरुजी की बातों का प्रचार-प्रसार कैसे होना चाहिए, हमें तो यही तरीका सही लगा कि गुरुजी को सुन-समझकर हम अपना दृष्टिकोण बनाएं और फिर हम उसी दृष्टिकोण से हुए अनुभवों को लोगों के सामने रखें।

जब जुलाई-अगस्त 2016 में हमने गुरुजी को मिट्टी से गणेश जी की मूर्तियाँ बनाते देखा और जाना कि ये मूर्तियाँ दी जाती हैं, बेची नहीं जातीं, तो मन ही मन ऐसा ही कुछ करने का भाव जगा। उसी वर्ष से लेकर प्रतिवर्ष हमने भी मिट्टी से गणेश जी की मूर्तियाँ बनाना प्रारंभ किया और मिट्टी-पत्थर से ही रंग बनाना प्रारम्भ किया और इन मूर्तियों को अहमदाबाद स्थित हमारे कुछ मित्र, रिश्तेदार व परिचित लोग ले जाने लगे। जब हमने ना बेचने की बात कही, तो लोगों को स्वयं ही देने के तरीकों को खोजने की आवश्यकता आन पड़ी और भारत की अर्थव्यवस्था की सुंदरता की छोटी ही सही लेकिन एक झांकी तो सबको होने लगी।

2017 की पूरी की पूरी गर्मियाँ हमने लगभग लगभग कला आश्रम में ही बितायीं। एक सुबह जब सामान बांधकर गाड़ी में रखकर हम निकलने ही वाले थे कि गुरुजी ने कहा कि यदि हम रुक जाते हैं, तो वे नक्काशीकाम करना चाहेंगे, शारीरिक अस्वस्थता के कारण उनसे अकेले से नहीं होगा। ऐसा सुनहरा मौका हम हाथ से जाने ही नहीं देना चाहते थे, सो हम रुक गये। गुरुजी को नक्काशीकाम करते देखा, थोड़ा बहुत सीखा भी सही, लेकिन कुछ और बातों को लेकर वह हमारे जीवन का सर्वश्रेष्ठ समय था।

उस समय किसी रिश्तेदार की शादी के कारण अम्माजी और गुड़िया को ओड़िशा जाना था, तो आश्रम में मैं, गुरुजी और स्नेहा ही थे और हमारी दिनचर्या कुछ ऐसी थी कि सुबह सुबह पौने पाँच बजे उठकर हम गुरुजी के साथ सैर पर जाते; फिर वापिस आकर इमली के बीज पीसना, गोंद तैयार करने के काम करना, लकड़ी व गोबर से मूर्ति या खिलौने बनाना, बनी हुई मूर्तियों पर कपड़ा चढ़ाना, रंग तैयार करना, रंग लगाना– ये सब काम होते रहते, और समय-समय पर चाय, नाश्ता, खाना भी होता रहता, ना कोई टाइमटेबल, ना कोई नियम अनुशासन, ना कोई बड़ा तामझाम, फिर भी सब होता रहता था। साथ ही साथ आश्रम की पानी की टंकियों में पानी भरना, पेड़-पौधों व खेत की फसलों में पानी देना, गाय-भैसों को चारा देना, पानी देना, आश्रम के लिए किराना, सब्जी वगैरह लेकर आना–ये सब भी होते रहता था। फिर भी किसी भी काम में कभी हड़बड़ी जैसा कुछ नहीं लगा। काम करने का आनंद जरूर होता था लेकिन कभी कुछ कर लेने का अहंकार नहीं हुआ। काम तो बहुत हो जाता था लेकिन कभी थकान नहीं हुई। कभी आश्रम में कोई आ जाता और दिलचस्प बात चल रही होती, तो कामकाज छोड़कर बातें सुनने-करने भी बैठ जाते। सहजता का इससे बड़ा कोई उदाहरण भी हो सकता है ऐसा हमने तो कभी सोचा नहीं था। “भारत में किया नहीं जाता, हो जाता है”–ऐसा जो गुरुजी बार-बार कहा करते थे, उसका प्रत्यक्ष अनुभव हुआ, साथ ही साथ गरुड़ और काकभुशुंडि की जो बात अक्सर वे बताया करते थे कि आश्रम का डिजाइन कुछ ऐसा होना चाहिए कि वहाँ आकर व्यक्ति के मोह, भ्रम एवं संदेह दूर हों, उसका भी अनुभव हुआ, और इन अनुभवों का वर्णन करने के लिए कैसे भी शब्द हों, बहुत छोटे पड़ जाएंगे।

रवीन्द्र शर्मा की कलाकृतियों की तस्वीरें आशुतोष जानी से प्राप्त हुईं। आभार।

इन 40-50 दिनों में हमारे समक्ष गुरुकुल कैसा होना चाहिए से लेकर गाँव में कैसे जिया जाए और विकास क्या होता है, जैसी कई बातें स्पष्ट हो गयीं। एक बार जब मैं पौधों को पानी देते-देते बोला कि किसी एक पौधे में सुबह-सुबह कली बढ़ना शुरू होती है और 11 बजते-बजते फूल खिलने लगता है और शाम होते-होते फूल मुरझाकर गिर भी जाता है, तो गुरुजी तुरंत बोल पड़े कि यही तो होता है विकास। कली में से फूल, फूल में से फल, फल में से बीज, बीज में से अंकुर, अंकुर में से पौधा और पौधे में कली। यही चक्र तो विकास है, लेकिन इसकी खूबी यह है कि विकास अपने समय पर ही होता है, और स्वत: होता है, करना नहीं पड़ता। किसी के द्वारा किसी और का विकास करने का प्रयास करना मूर्खता है, इस बात ने हमारे मन में एक और लकीर भी खींच दी कि हमें क्या क्या नहीं करना है। ज्यों ही मैं पौधों को पानी देने लगा, कुछ ही दिनों में पौधों से मेरी दोस्ती हो गयी, और रोजाना उन्हें देखना, उनमें हो रहे परिवर्तनों को समझना यह सब चालू हो गया। तब से जब भी कला आश्रम जाता हूं, सबसे पहले एक चक्कर लगाकर पौधों को देख लेता हूं और उनकी खुशबू साँसों में भर लेता हूँ। गाय-भैंस के काम करने से उनसे भी दोस्ती होना चालू हो गया। हमें पता ही नहीं चला कि कब हम गाँव में रहने के लिए तैयार होने लगे। यह सब इतना लयबद्ध था कि हमें कुछ समझ में ही नहीं आया कि कब गुरुजी ने हमें नक्काशीकाम सिखा दिया, कब उन्होंने हमें गुरुकुल व आश्रम व्यवस्था की समझ दे दी और कब उन्होंने हमें गाँव में रहने के लिए तैयार कर दिया। यूं लगा कि जैसे जादू की छड़ी घूम गयी हो। आज जब हम अपने जीवन को देखते हैं, तो जैसे लगता है गुरुजी सब जानते थे कि हमें आगे क्या क्या करना होगा और उसी के लिए हमें बिना बताये उन्होंने हमें संवार दिया।

इन अनुभवों ने हमें “गुरु” शब्द का सही अर्थ भी समझाया और ऐसे गुरु को पाकर हम कृतार्थ हो गये। आज जब गुरुजी हमारे बीच नहीं हैं, तो एक अजब सा खालीपन लगता है, यूं लगता है कि मेरी आत्मा का एक अंश टूटकर बिखरकर बिछड़ गया हो। किसी भी मुद्दे पर बात होती, तो हम सोचते कि गुरुजी से पूछ लेंगे, लेकिन फिर एहसास होता है कि गुरुजी तो है ही नहीं, पूछेंगे किससे… इन्हीं निराशा के बादलों के किनारे धीरे-धीरे एक स्वर्णमय प्रकाश दिखने लगता है, और वह है गुरुजी की बातों का प्रकाश, उनके सूत्रों का प्रकाश। जितना समाज को देखते जाते हैं, एक-एक सूत्र एक-एक ग्रंथ के समान ज्ञान का भंडार मालूम पड़ता जाता है और लगता है कि तुलसीदास या कबीर के दोहों की तरह ही यदि गुरुजी के एक सूत्र को भी आत्मसात कर लिया, तो भी जीवन सार्थक हो जाएगा। हम तो स्वयं को अत्यंत भाग्यशाली मानते हैं कि हमें गुरुजी के साथ इतना समय बिताने का अवसर मिला। उनकी कमी तो जीवनभर खलेगी, लेकिन फिर गुरुजी की ही आवाज गूंज उठती है –

ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते,
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते।

ऐसे सद्गुरु के चरणों में कोटि कोटि वंदन।

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