— शर्मिला जालान —
मधु कांकरिया का उपन्यास ढलती सांझ का सूरज हाथ में लेने पर सबसे पहले हमारी दृष्टि उपन्यास के आवरण पर जाती है जहाँ लिखा हुआ है –
‘सफलता सार्थकता और किसान जीवन की वास्तविकता का द्वंद्व´
लेखिका ने यह उपन्यास समर्पित किया है-
‘जो हो न सके पूर्ण काम,
आत्महत्या कर चुके उन तीन लाख किसानों के नाम, उनके संघर्ष और अधूरे सपनों के नामl’
यह समर्पण केंद्र में है। आत्महत्या करते किसान का त्रासदीपूर्ण जीवन केंद्र में है। सरकारी तंत्र, व्यवस्था, शोषण केंद्र में है। यह मुद्दा उपन्यास में सबसे ज्यादा जगह, घेरता है और एक विराट और व्यापक संघर्ष को हमारे सामने प्रस्तुत करता है।
उपन्यास का चरित नायक, सूत्रधार अविनाश है और उपन्यासकार मधु कांकरिया स्वयं हैं। सूत्रधार अविनाश बीस साल के बाद स्विट्जरलैंड से अपनी माँ से मिलने के लिए भारत लौटता है और जब लौटता है तब ना जाने कितनी भूली बिसरी घटनाएँ उसे याद आने लगती हैं, जिन्हें वह भुला बैठा था।
अविनाश 1989 में स्विजरलैंड के ‘बाजल’ शहर गया था। हम जानते हैं कि सन् 1991 में भारत की सरकार ने मुक्त बाजार वाली अर्थव्यवस्था को अपनाया। किसान इससे बहुत प्रभावित हुए। उपन्यास में भूमंडलीकरण के बाद की स्थितियाँ है, जिसे पृष्ठभूमि की तरह हम देखते हैं।
अविनाश 2010 में लौटकर आता है। वह जब आता है तब अपने युवा दिनों के अवसाद, आदर्श, उद्धत भावनाओं से निकलकर और फिर से अपने उसी ताप वाली भावनाओं में घर को याद करता है। वह गया था एक सफल समृद्ध, उच्चवर्गीय जीवन जीने के लिए। वह गया था पूरा होने के लिए पर इस प्रक्रिया में वह बीस साल बाद अधूरी आकृति लेकर लौट आता है। उसे वहाँ पर जो मिला वह था अधूरापन और अकेलापन। अब माँ की खोज के धक्के, थपेड़ों और प्रहारों द्वारा वह किसान जीवन से रूबरू होता है। किसानों के जीवन की छलनाओं को समझता है। महाराष्ट्र के मराठवाड़ा संभाग के 8 जिलों में से एक जालना जिले के कामथडी और परातुल ग्राम के लिए काम करता है। प्राइवेट बैंक, सरकारी बैंक, महाजन के जाल में फँसे किसान जीवन के ताने बाने को समझता है। शासन तंत्र, ताकत, सत्ता के सत्य की कई परतों को समझता है। परातुल, बाबुलतारा, बलखड़े गाँवों में जहाँ पिछले दिनों किसानों ने आत्महत्या की, उसकी माइक्रो स्टडी करता है। उसके अंदर आत्महत्या कर चुके किसानों के परिवार के लिए कुछ करने का जज्बा है। वह किसानों को सही दिशा देने की अपने तईं कोशिश करता है।
लेखिका मराठवाड़ा के उन घरों में गई हैं जहाँ किसानों ने आत्महत्या की थी। इस तरह मधु कांकरिया का एक्टिविस्ट रूप भी सामने आता है। इस कथानक के माध्यम से मधु कांकरिया वे सामाजिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक घटनाएँ दुर्घटनाएँ याद करती हुई चलती हैं जिनके साथ और समानांतर अविनाश का जीवन व्यतीत हुआ था। लालकृष्ण आडवाणी, राम रथयात्रा, मंडल और कमंडल, आदि।
वह स्विट्जरलैंड के बाजल शहर की और अपने देश की मन ही मन तुलना करता चलता है। उपन्यास में कथा वर्णन के साथ-साथ कई कहानियाँ, हैपी प्रिन्स, फ़्रांसीसी मैथमेटिशियन आदि की हैं तो कई तरह की विधियाँ भी हैं। कई तरह की चीजें यहाँ पर इजाद की गई हैं। स्वरचित गीत हैं –
‘किसान का चेहरा वह आईना है जिसमें सभ्यता का चेहरा झलकता है’
‘वह जो आपकी कमीज है,किसी खेत में खिला एक कपास का फूल है‘
फिराक़ गोरखपुरी की शायरी- ‘ग़ज़ल का साज़ उठाओ,कि बहुत उदास है रात’
है और अब्दुल हमीद अदम की शायरी –‘सिर्फ़ इक क़दम उठा था ग़लत राह-ए-शौक़ में ,मंज़िल तमाम उम्र मुझे ढूँढ़ती रही’।
फिराक़ गोरखपुरी की शायरी अकारण नहीं है। हम जानते हैं कि फिराक़ गोरखपुरी के यहाँ सामाजिक दुख-दर्द व्यक्तिगत अनुभूति बनकर शायरी में ढला है। उनकी शायरी में दैनिक जीवन के कड़वे सच और आने वाले कल के प्रति उम्मीद है। उनकी पक्षधरता पीड़ित मानवता के साथ थी।
लेखिका एक पत्रकार की तरह चौकन्नी हैं, और सारी सामग्रियों को इकट्ठा करके हमें बताती चलती हैं। कई योजनाएँ- ‘किसान उच्च प्रशिक्षण’, ‘किसान बचाओ क्लब’, ‘फार्मर्स बेसिक ट्रेनिंग सेण्टर’, ‘उमंग’ क्लब, ‘उड़ान’ संस्था आदि की चर्चा है और आने वाले कल के प्रति उम्मीद।
किसान जिन संकटों से गुजर रहे हैं,`वह व्यवस्थाओं का नहीं,बल्कि पूरी सभ्यता और उसके नियामक मूल्यों का है। सत्ता और सच की टकराहट को दर्शाती है। यहाँ सत्ता और समाज का सच एक साहित्यिक स्वप्न में बदलता है।
स्विजरलैंड के बाजल शहर का वर्णन मुझे लगता है लेखिका ने रूपक की तरह किया है। जिसका विकास चकाचौंध करता है। अविनाश का अपनी पत्नी नैंसी से संवाद भी एक तरह से रूपक है। अविनाश का वह वैकल्पिक मन जिससे व सब कुछ साझा कर सके। स्विजरलैंड के माध्यम से लेखिका यह कहना चाहती हैं कि भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में पश्चिमी सभ्यता ने लगभग समूची मानवीय चेतना को सुविधा भोगी बना दिया है। उसके समक्ष भारतीय संस्कृति की एक वैकल्पिक छवि प्रस्तुत करती है।
अविनाश के द्वारा लिखी कथा कह कर वे यह कहना चाहती है कि वह जिस आँख से अपने को देखता है उसे वे किसान भी दिखाई देते हैं जिन्होंने आत्महत्या की है। उसके अंदर इस संकट का एहसास होता है कि किसानों की अन्धाधुन मौतें एक ऐसी त्रासदी का रूप ले चुकी हैं कि जिसके लिए कुछ करने की, बदलने की जरूरत है। अविनाश को आत्मबोध होता है।
कई चरित्र आते हैं और अपनी कथा कहते हैं। सभी चरित्र, सभी प्रश्न एक और जहाँ अपनी कथा कहते हैं वहीं वे क्रूर सामाजिक व मानवीय सच के प्रतिनिधि भी बन जाते हैं : दिलीप उद्रराव, अरुण जी, कदंब सावंत, आनंद कामडे, महिला किसान सुधामणि, अरुण गिरी, काशी विश्वेश्वर राव, गोविंद जी, फुलवा ताई, बबन गिरि, बाला साहब, नारायण वाडेकर,चीकू, रेशम,रवि, बद्री, भीमा, तरुण, रामेश्वर रामनिरंजन आदि।
अविनाश एक जगह कहता है–“भरोसा टूट गया मेरा जीवन से, श्रम से, संघर्ष से, देश के लोकतंत्र से। कोई इतना ताकतवर कैसे हो सकता है कि दूसरे से जीने के सारे अधिकार ही छीन ले। उसे इंसान ही न रहने दे?आज सचमुच इंसान बनकर रहना मुश्किल होता जा रहा है।”
किसानों आत्महत्या के लिए कौन जिम्मेदार है? बाजार की व्यवस्था? तंत्र? सरकारी नीतियाँ?
उपन्यास कई स्तरों पर कई रूपों पर घटित होता है। परिवार की कथा आती है। हिंदी कवि रघुवीर सहाय की कविता की ध्वनि भाषा में सुनाई पड़ती है।
मधु कांकरिया ने यहाँ जिन समस्या को उठाया है उस पर समय-समय पर बहस हुई है। विचार और चिंतन हुआ है। यह नई समस्या नहीं है। समाजवादी चिंतक और लेखक सच्चिदानंद सिन्हा ने इस समस्या पर कई लेख वैश्विक परिदृश्य में लिखे हैं। ‘भूमंडलीकरण की चुनौतियाँ’ पुस्तक में उनका चर्चित लेख ‘दो पाटन के बीच किसान’ प्रकाशित हुआ।
सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता और प्रखर विचारक किशन पटनायक 1962 में संबलपुर से लोकसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। 1962 से 1967 तक लोकसभा के सदस्य रहे। आजादी के 20 साल के बाद भी किसानों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। उन्होंने कालाहांडी के सन्दर्भ में लोकसभा में बहुत जोर से आज से पचास साल पहले सवाल उठाए, और बहस की। ‘किशन पटनायक-आत्म और कथ्य’ पुस्तक में ‘खाद्य की स्थिति और सूखा’ शीर्षक के अंतर्गत लिखा है- “26 करोड़ एकड़ जमीन को पानी और साढ़े तीन करोड़ किसान परिवारों के लिए पूंजीकरण की सुविधाएं जब तक इन दोनों के प्रति कृषि मंत्रालय का और सरकार का ध्यान नहीं जाएगा हिंदुस्तान में कृषि की पैदावार बढ़ नहीं सकती।” किशन पटनायक आगे कहते हैं- “मैंने प्रधानमंत्री से पूछा कि छोटे किसान को और पिछड़े इलाके के किसान को लगान से, नहरी लगान से कब भार से मुक्त किया जाएगा? किया जाएगा या नहीं, तो प्रधानमंत्री ने इसके जवाब में यह कहा कि यह विषय तो राज्य सरकारों के अधीन आता है, यह तो उनके करने का विषय है।”
इस तरह ऊपर लिखे ये सन्दर्भ और प्रसंग उपन्यास पढ़ने से फिर से खुलते हैं।
‘ढलती साँझ का सूरज’ नन्दकिशोर आचार्य जी जिसे कहते हैं ‘गाँधी भाषा में साहित्य संवेदनात्मक सत्याग्रह है’ वह है। गांधी दृष्टि का तात्पर्य हृदय परिवर्तन के रूप में समझा जाता है। कष्ट सहन के द्वारा हमारे नैतिक संवेदन को जागृत करना। यह नैतिक संवेदन ही हमें अन्याय के प्रतिरोध और पीड़ित के साथ के लिए प्रेरित और सक्रिय करता है। लेखिका उस गांधी दृष्टि को हमारे सामने लाती हैं अविनाश के माध्यम से। अविनाश का जीवन एक बहुत बड़ा संदेश है। अविनाश के मन में किसानों के जीवन के अत्याचार के प्रति उनके जीवन में हो रहे उत्पीड़न और परिस्थितियों के दबाव तले कुचले जाते हुए जीवन को देखकर उस परिस्थितियों के प्रति असंतोष पैदा होता है और उसे बदले जाने की जरूरत उसे अनुभव होती है और इस त्रासदी की विशेषता इस बात में है कि वह नायक को माँ की तलाश में चांदीवली से लेकर उन गाँवों में ले जाती है जहाँ उसकी माँ रही थी। पर माँ कहीं नहीं मिलती। वह बोधगया और कन्याकुमारी तक जाता है। और जालना जिले के कुछ गाँव में जहाँ किसान आत्महत्या कर रहे हैं वहाँ पहुँचता है?
लेखिका अविनाश को कष्ट सहन की प्रक्रिया से गुजारती है और अंत में अन्याय, पाप के विरुद्ध संघर्ष के भाव को उसके अंदर में सक्रिय करती है। यह उपन्यास कैथार्सिस करता है यानी हमारे भावों को शुद्ध करता है। हमारे नैतिक संवेदना को जागृत करता है। किसान संघर्ष में कौन विफल हुआ और कौन सफल यह नहीं देखा जाना चाहिए। यह दृष्टि कभी विफल नहीं होती यदि यह दृष्टि तात्कालिक सफलता हासिल ना करे तो भी वह नैतिक संवेदना, अन्याय के प्रतिरोध की चेतना, पैदा करती है।
यह उपन्यास भाषा के कारण भी याद रहेगा। फ्लैशबैक टेकनीक और शब्द शक्ति के साथ। भाषा के स्वच्छंद और तरंगित व्यवहार के साथ। भाषाओं में कई ध्वनियां, व्यंजना है। प्रतीक, उपमा आदि का इस्तेमाल किया गया है। पूरा उपन्यास प्रांजल भाषा से जगमग रहा है। असंख्य दीपक उपन्यास में प्रज्वलित हो उठे हैं। आशाओं के दीप।
किताब – ढलती सांझ का सूरज (उपन्यास)
लेखिका – मधु कांकरिया
प्रकाशन – राजकमल प्रकाशन
[email protected]
मूल्य – 250 रु.