(भारत में मुसलमानों की बड़ी आबादी होने के बावजूद अन्य धर्मावलंबियों में इस्लाम के प्रति घोर अपरिचय का आलम है। दुष्प्रचार और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के फलस्वरूप यह स्थिति बैरभाव में भी बदल जाती है। ऐसे में इस्लाम के बारे में ठीक से यानी तथ्यों और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य समेत तथा मानवीय तकाजे से जानना समझना आज कहीं ज्यादा जरूरी है। इसी के मद्देनजर हम रेडिकल ह्यूमनिस्ट विचारक एम.एन. राय की किताब “इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका” को किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, यह पाठकों को सार्थक जान पड़ेगा।)
अरब दार्शनिकों में अल्कानंदी (अलकाजी) सबसे पहला दार्शनिक था। वह अब्बासी खलीफाओं की राजधानी में रहता था और नौवीं शताब्दी के आरंभ में उसने ख्याति प्राप्त कर ली थी। उसका कहना था कि दर्शन का आधार गणितशास्त्र होना चाहिए और उसे केवल आलसी कल्पनाओं से मुक्त किया जाना चाहिए। अमूर्त दार्शनिक विचारों का प्रतिपादन तर्क के आधार पर किया जाना चाहिए। उनको ठोस तथ्यों और नियमों के आधार पर होना चाहिए जिससे उनसे निश्चित निष्कर्ष निकाले जा सकें। उस दार्शनिक के सिद्धांतों द्वारा उन विचारों की कल्पना की गई जिन्हें करीब सात सौ वर्षों के बाद फ्रांसिस बेकन और डेकार्त ने व्यक्त किया था। आज के युग में भी अनेक दार्शनिक और विद्वान अरब विद्वान के गुणों से लाभान्वित हो सकते हैं जिनका प्रतिपादन एक हजार वर्ष पूर्व किया गया था।
उसके बाद अलफराकी का नाम आता है जो एक शताब्दी बाद हुआ और जो दमिश्क और बगदाद में अध्यापन कार्य करता था। उसने आरिस्टॉटिल की कृतियों की व्याख्या प्रस्तुत की, जिनका अध्ययन शताब्दियों तक आधिकारिक व्याख्या के रूप में किया गया। उसने चिकित्साशास्त्र में भी विशिष्टता प्राप्त की थी। रोजर बेकन ने उससे गणित की शिक्षा ली थी।
दसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अबीसीना सामने आए। वह बुखारा के अमीर जमींदार घराने में पैदा हुए थे और उनके परिवार में संपन्न व्यापार होता था। उन्होंने गणित और भौतिक विज्ञान की पुस्तकें लिखीं, लेकिन इतिहास में उनका उल्लेख चिकित्सा विज्ञान के लेखक के रूप में हुआ। सलेरमो का चिकित्सा का मदरसा उसकी प्रसिद्ध यादगार थी और 16वीं शताब्दी के अंत तक उसकी चिकित्सा संबंधी पुस्तकें पाठ्यपुस्तकें थीं। अबीसीना के दार्शनिक विचार धार्मिक शिक्षाओं से इतने भिन्न थे कि स्वतंत्र विचारों का समर्थक बुखारा का अमीर अबीसीना के विरुद्ध इमाम के दबाव को मानने से इनकार नहीं कर सका। उसे मजबूरन बुखारा के अमीर का दरबार छोड़ना पड़ा। उसके बाद उसने अरब साम्राज्य की यात्रा की और विभिन्न स्थानों पर चिकित्सा की शिक्षा और अपने दर्शन के अध्यापन का काम किया।
11वीं शताब्दी में अलहसन हुआ, जो सभी युगों के महान वैज्ञानिकों की श्रेणी में गिना जाना चाहिए। आँखों के लिए चश्मे तैयार करने के संबंध में उसने विशेष योगदान किया। यह कला उसने यूनानियों से सीखी थी और उनसे भी आगे तरक्की की थी और आँखों की ज्योति के संबंध में उनकी गलतियों को इसने ठीक किया। अलहसन के शरीर-रचना और रेखागणित के तर्कों ने यह सिद्ध किया कि आँखों में वस्तुओं से रोशनी आती है और उसकी छवि पुतलीपर पड़ती है। उसके सिद्धांत का उल्लेख विज्ञान के इतिहासकारों ने किया है। कैपलर ने अरब चिकित्साओं से आँखों के इलाज के संबंध में ज्ञान अर्जित किया था।
उसी शताब्दी में अलगजाली हुआ जो अन्दालूसियाई व्यापारी का बेटा था। उसने देकार्त से पहले आत्मचेतना के सत्य का सिद्धांत प्रतिपादित किया। उसने प्राचीन और आधुनिक संशयवाद के बीच कड़ी स्थापित की। उसने दर्शन में जो महान् योगदान किया, उसका उल्लेख उसी के शब्दों में मिलता है : “धर्म से संतोष न मिलने पर मैंने सभी अधिकृत बातों को छोड़ने का निश्चय किया और उन सभी बातों से अपने को अलग कर लिया जिन्हें मैंने बचपन में सीखा था। मेरा उद्देश्य वस्तुओं की सत्यता की खोज करना है। इसके परिणामस्वरूप मैं यह निश्चय करना चाहता हूँ कि ज्ञान क्या है? अब मुझे यह स्पष्ट हो गया है कि ज्ञान ऐसा होना चाहिए जिससे दृश्यमान वस्तु की व्याख्या हो सके और यह ज्ञान भविष्य में भी उपलब्ध हो सके जिससे गलतियों और अनुमान को दोहराना असंभव हो जाय। इस प्रकार जब यह मान लिया कि दस तीन से अधिक है – यदि कोई यह कहे कि “तीन दस से अधिक है’ और मुझे अपने इस कथन को प्रमाणित करने को कहा जाय कि मैं इस छड़ी को साँप में तबदील कर सकता हूँ और यदि यह रहस्य वास्तव में बदल भी जाय तो भी मेरा विचार उसकी इस गलती से बदलेगा नहीं। उसकी जादूगरी की मैं इतनी ही प्रशंसा करूँगा लेकिन मैं अपने ज्ञान के संबंध में संदेह नहीं करूँगा।”
मुसलमान विचारक ने एक हजार वर्ष पूर्व यथार्थ ज्ञान के सिद्धांत को स्थिर किया था। वह सिद्धांत आज भी सत्य है और वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, जिससे ज्ञान संभव होता है, अब भी भारतीय विचारकों में कम ही पाया जाता है, जो आज 20वीं शताब्दी में आध्यात्मिक वाकजाल के रहस्यों में विश्वास करते हैं। इस प्रकार के भ्रामक विचारों के आधार पर वैज्ञानिक ज्ञान को चुनौती दी जाती है।
अलगजाली ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि ज्ञान गणित की भांति पूर्ण रूप से ठीक नहीं होता जब तक कि उसे अनुभव से प्राप्त न किया जाय और अनुभव के नियमों का ठीक से पालन न किया जाय। उनका यह मत था कि अकाट्य विश्वास को इंद्रिय ज्ञान से प्राप्त किया जाता है। तर्क में (आत्मचेतना) इंद्रिय ज्ञान की सच्चाई की जांच करनी पड़ती है। इस बात को देखकर आश्चर्य होता है कि धार्मिक वातावरण में विचारों में इतना अधिक साहस था जबकि चारों ओर असहनशीलता और कट्टरपन का वातावरण था। फिर भी अलगजाली के विचारों का प्रचार उस समय के सभी मुस्लिम देशों में होता था।
दर्शन के इतिहास में अलगजाली के महत्त्वपूर्ण स्थान का उल्लेख फ्रांसीसी प्राच्याविद रैनाँ ने किया है और उसने अलगजाली को आधुनिक संशयवाद का पिता कहा है। ह्यूम ने इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा, जितना अरब दार्शनिक ने कहा था, जिसने उससे करीब सात सौ वर्ष पूर्व अपना सिद्धांत स्थिर किया था। अलगजाली के विचारों का यह महत्त्व है कि उसके विचारों को ह्यूम के विचारों के समान समझा जाता है जिसके संशयवाद से कांट के विचारों को प्रोत्साहन मिला था। कांट ने आलोचनात्मक दर्शन का ऐसा निर्मम सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसने सभी प्रकार से अनुमान संबंधी विचारों की जड़ों को ही नष्ट कर दिया।
लेकिन अलगजाली के विचार अपने समय से काफी आगे के थे। प्रयोगात्मक विज्ञान, जिसको उसने देखा था, को तब तक सत्य सिद्ध करना असंभव था। प्राविधिकी (टेक्नोलॉजी) के प्रारंभिक विकास के अभाव में प्रकृति की वस्तुओं का उस प्रकार गणितीय प्रमाण नहीं मिल सकता था जिसका उस दार्शनिक में विचार किया था। यही कारण है कि अपने जीवन के अंतिम वर्षों में उसने रहस्यवाद की शरण ली, लेकिन उसका यह पतन कांट के पतन की भांति गौरवहीन नहीं था। वस्तुगत रूप से वस्तुओं को प्रमाणित करने के यंत्रों के अभाव में अरब-दार्शनिक की उड़ान के पर कट गये जबकि कांट ने आत्मगत रूप से अपनी आलोचनात्मक शक्ति को अभिभूत कर लिया था।