जब जयप्रकाश का बिगुल बजा

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— विनोद कोचर —

लोकनायक जयप्रकाश नारायण का जीवन और कार्य इस हद तक क्रान्तिकारी है कि समय के किसी भी पड़ाव पर नौजवानों को जेपी का सम्पूर्ण क्रांति का सपना साकार करने के लिए प्रेरित कर सकता है, बशर्ते कि उन्हें जेपीके जीवन और कार्यों की जानकारी हो।

देश की आर्थिक,सामाजिक और राजनैतिक विषमताओं के खिलाफ गुजरात के युवकों ने 1974 में जो आंदोलन छेड़ा वह पूरे देश में उस समय दावानल की तरह फैल गया जब बिहार में इस आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए, युवकों के अनुरोध पर, जेपी सामने आए थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने जेपी के न्यायोचित परामर्श को जब ठुकरा दिया तो जेपी अपनी ही प्रेरणा के स्रोत, संत विनोबा भावे की इच्छा के खिलाफ, गाँधीवादी संघर्ष के रास्ते पर कदम बढ़ाने के लिए मजबूर हो गए।

उस समय प्रतिपक्ष की राजनीति करने वाले सारे दल उस चूहे की भूमिका अदा कर रहे थे जो चलते हुए ऊंट की नकेल पकड़ कर इस दम्भ में डूब जाता है कि वही ऊंट को आगे खींच कर ले जा रहा है। जेपी इस किंकर्तव्यविमूढ़ता से ग्रस्त थे कि उनके नेतृत्व में अंगड़ाई ले रही युवा शक्ति को, प्रस्थापित राजनैतिक दलों के दायरे के बाहर कैसे संगठित किया जाए?

समय उस समय इतनी तेजी से भाग रहा था कि जेपी इस समस्या का हल खोजने में समय बिताने की बजाय प्रतिपक्ष के प्रस्थापित राजनैतिक दलों के, बिना मांगे मिल रहे सहयोग के सहारे ही आगे बढ़ते चले गए।

उन्हें क्या पता था कि उस समय का प्रतिपक्ष उनकी बुनियादी परिवर्तनों की मांग के समर्थन में नहीं बल्कि जेपी की नैतिक शक्ति की बैसाखी के सहारे सत्ता हथियाने की दुष्ट भावना से ग्रस्त होकर जेपी का साथ दे रहा था। जेपी चाहते थे कि देश में प्रगतिशील आर्थिक और सामाजिक कार्यक्रमों को लागू करने के लिए संकल्पबद्ध एक ऐसा सशक्त राजनैतिक दल बने जो तत्कालीन सत्तारूढ़ दल का विकल्प बन सके।

1977 के आम चुनावों में कांग्रेस की पराजय हुई और जेपी के प्रयासों से बनी जनता पार्टी दिल्ली की गद्दी पर बैठी भी। लेकिन 5 की बजाय ढाई साल में ही, जनता पार्टी में छिड़े यादवी संघर्ष के कारण, सरकार सड़क पर आ गयी।

लेकिन जेपी तो एक प्रयोगधर्मी थे। राजनीति के मंच पर जनता पार्टी के रूप में पैदा हुआ उनका प्रयोगफल उनके जीवनकाल में ही असफल हो गया लेकिन मरते दम तक बुनियादी परिवर्तनों के लिए उनकी तड़प, उनके जर्जर शरीर को चीरकर भी चीत्कार करती रही।

जेपी के जीवन की एक और खासियत ये थी कि प्रयोगधर्मी होने के कारण जहाँ जहाँ और जब जब भी जेपी को ऐसा लगा कि उनके जीवन ने किसी गलत मोड़ पर कदम बढ़ा दिया है, उन्होंने अपनी भूल को स्वीकार करने में कभी संकोच नहीं किया।

मार्क्सवादी, समाजवादी और सर्वोदयी विचारों के गलियारों से गुजरते हुए, अपने जीवन के अंतिम समय में जेपी ने सम्पूर्ण क्रांति का रास्ता पकड़ा और इस रास्ते के भी खट्टे मीठे अनुभवों को उन्होंने भोगा। आपातकाल लगाकर श्रीमती गांधी ने जिन लोगों की नागरिक आजादियों का अपहरण किया था उनमे प्रमुखतः गाँधीवादी और गांधी विरोधी विचारधारा के लोग ही शामिल थे|

जेपी तो आपातकाल के पहले भी और आपातकाल के दौरान भी सतत इस बात के लिए प्रयास करते रहे कि कांग्रेस का विरोध करने के लिए ये दोनों कांग्रेस विरोधी लेकिन खुद भी परस्पर विरोधी ताकतें एक हो जाएँ क्योंकि गाँधी विरोधियों की संगठन शक्ति और गांधीवादियों की विचारशक्ति के जेपी कायल थे।

लोहिया की तरह जेपी भी मानते थे कि विचार हमारी ऑंखें हैं और संगठन हमारे पैर। विचारों के बिना हम अंधे हैं और संगठन के बिना लंगड़े। अंधे और लंगड़े की परस्पर पूरकता के बिना मंजिल एक सपना है। आरएसएस एक अंधा संगठन है और समाजवाद एक लंगड़ा विचार।

जेपी अपने इस प्रयोग में भी असफल हो गए। आज यही असफलता है जिसके चलते देश एक घातक संगठन और अपाहिज विचार के दलदल में डूबता जा रहा है। हृदय परिवर्तन आसान है लेकिन विचारपरिवर्तन बड़ा कठिन।

आरएसएस विचारहीन ही नहीं बल्कि जहरीले साम्प्रदायिक हिंदुत्व के विचारों के वोटबैंक का ध्रुवीकरण करते करते आज दिल्ली की सत्ता पर जा बैठा है और अब जेपी का अनुयायी कहलाने का स्वांग भी रच रहा है।

समाजवादी साथियों के दिलोदिमाग को ये सवाल अक्सर पीड़ा पहुंचाता है कि आखिर जेपी ने आरएसएस जैसे एक अपाहिज और नफरत फैलाऊ संगठन के पैरों का सहारा लेकर अपने संपूर्ण क्रांति के वैचारिक आंदोलन को आगे बढ़ाने का सपना देखा ही क्यों?
इस सवाल का मेरी समझ के मुताबिक एक ही जवाब है कि प्रयोगधर्मिता जेपी के व्यक्तित्व की मौलिक पहचान थी और वे इस विरोधाभासी प्रयोग के माध्यम से आरएसएस को भी उसके विकलांग व नफरत फैलाऊ वैचारिक दलदल से बाहर निकालने का प्रयोग ही कर रहे थे।

1977 में जनता पार्टी के, केंद्र में सत्तारूढ़ होने के तीन-चार महीनों बाद ही हुई जनता पार्टी की केंद्रीय कार्यसमिति के सामने, जनता पार्टी के महामंत्री और महान समाजवादी नेता मधु लिमये ने, जेपी के सम्पूर्ण क्रांति के आंदोलन से सैद्धांतिक सहमति रखने वाले सभी सांस्कृतिक, स्वयंसेवी संगठनों के एकीकरण की इच्छा से जो नोट प्रस्तुत किया था, वह जेपी का यही असफल होने जा रहा प्रयोग था। उस नोट के, कार्यसमिति के समक्ष प्रस्तुत होते ही,राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(आरएसएस) की छाती पर सांप लोटने लगा।

आरएसएस की ही राजनीतिक शाखा, जनसंघ (जिसका नया नाम,जनता पार्टी के टूटने के बाद से भारतीय जनता पार्टी ‘भाजपा ‘हो गया है), जेपी के संपूर्ण क्रांति के आंदोलन का समर्थन करते हुए, विलीन होकर जनता पार्टी में शामिल हुई थी।

आरएसएस के लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी और नानाजी देशमुख जैसे निष्ठावान स्वयंसेवक एक तरफ जनता पार्टी के मंच से जेपी आंदोलन का समर्थन कर रहे थे और दूसरी तरफ आरएसएस की शाखाओं में हिन्दूराष्ट्र, भगवा ध्वज और एकचालकानुवर्तित्व के बुनियादी सिद्धांतों की आरती उतार कर, जेपी के संपूर्ण क्रांति के आंदोलन की पीठ में छुरा घोंप रहे थे।

दोहरी सदस्यता का यही विवाद जनता पार्टी में छिड़े यादवी संघर्ष का एक मुख्य कारण बना और जेपी का यह प्रयोग भी असफल हो गया।

लेकिन ये तथ्य भी जेपी की अनुपम नैतिक और वैचारिक शक्ति का ही, एक अटपटा सा ही सही, मगर प्रमाण तो है कि आज आरएसएस भी जेपी आंदोलन की पीठ में छुरा घोंपने के बावजूद जेपी का, दिखावे के लिए ही सही, लेकिन सम्मान तो करता है!

ऐसे ही जेपी के लिए दुष्यंत ने ये लिखा था कि –

एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यूँ कहो!
इस अँधेरी कोठरी में एक रोशनदान है!

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